Monday, November 21, 2022

धर्म की शुद्धता

धर्म की शुद्धता 

धर्म की शुद्धता को कायम रखने के लिए पूज्य गुरुजी इतने सतर्क हैं कि उन्होंने वर्ष 2004 की नव वर्ष की सामूहिक साधना के अंत में अपने एक मार्मिक उद्बोधन में सहायक आचार्यों और साधकों को सावधान करते हुए बड़े कठोर शब्दों में कहा कि जैसे अन्य परंपराओं में पुरोहित खड़े हो गये, ऐसे ही बुद्ध की परंपरा में भी पुरोहित न खड़े हो जायं। उन्होंने बताया कि --
“...यदि कोई कहता है कि हम तुमको मैत्री देंगे, तुम्हारा सारा विकार खैंच लेंगे, तब कोई काम ही क्यों करेगा? किसी गुरु महाराज के पास बैठ कर मैत्री लेगा। घंटे भर मैत्री ली और सारा पाप तो उसने खैंच लिया । तो समझना चाहिए कि ये धर्म के दुश्मन हैं। किसी को दो-चार मिनट मैत्री दे देना भी तब अच्छी बात है, जबकि साथ-साथ यह समझाया जाय कि मैं मैत्री देता हूं, तुम समता का अभ्यास करो। मन में समता रखो, मैं मैत्री देता हूं। दो-चार मिनट की मैत्री तो ठीक है। मैत्री समता रखने में सहायक न कि मैं तेरे सारे विकार खैंचता हूं। इससे बचना चाहिए। अपने पांव पर खड़ा होना है।

धर्म तभी धर्म है जबकि हमें स्वावलंबी बनाता है। तो हर आचार्य का यही धर्म है कि लोगों को समझाये, अपने पांव पर खड़े हो । ‘अत्ता हि अत्तनो नाथो’ - तुम अपने मालिक हो और कोई मालिक नहीं। ‘अत्ता हि अत्तनो गति’ -अपनी गति तुम बनाते हो । दुर्गति भी तुम बनाते हो, सद्गति भी तुम बनाते हो, सारी गतियों के परे मुक्त अवस्था भी तुम्हीं बनाते हो, कोई दूसरा बनाने वाला नहीं। यह होश रहे साधकों में तो कोई भी आचार्य पागलपन में किसी की हानि नहीं कर पायेगा । क्योंकि साधक समझेगा। कोई कहे कि मेरे साथ बैठो, एक घंटे मैं तुम्हें साधना कराऊं, मैं मैत्री देता हूं, तेरे सारे पाप मैं खैंच लूंगा। तो उठ कर चले जाओ। ऐसी मैत्री नहीं चाहिए हमें । धर्म को जीवित रखना है तो शुद्ध रूप में जीवित रखना है। 

अब तो ये आचार्य पैसा नहीं मांगते । अपना मान है, सम्मान है, गुरु की कुर्सी पर बैठे हैं और कोई सामने हाथ जोड़ करके बैठा है -हे गुरु महाराज! हमारे पाप धो दीजिए! अभी तो मान सम्मान के मारे करता है। एकधि पीढ़ी बीतते-बीतते दक्षिणा मांगना शुरू कर देगा। तेरे सारे पाप खत्म किये हमने, हमें कुछ नहीं दिया! अरे जो दोगे उसका अपना पुण्य है। तुमको बहुत पुण्य मिलेगा। फिर स्वर्ग में जाओगे, फिर तुम एक दम ब्रह्मलोक में जाओगे। शुरू हो जायगा। इसलिए अभी से चेतावनी दे रहे हैं। हम रहें न रहें, धर्म को बिगड़ने मत देना। हर साधक अपने पांव पर खड़ा होना सीखे। जो सिखाने वाला है, उसका यही काम है कि लोगों को अपने पांव पर खड़ा होना सिखाये । प्रेरणा दे कि तुझे मुक्त होना है भाई! अपने मन को तूने मैला बनाया, यह मैल तुझे निकालना है, तुझे दूर करना है। हमको रास्ता प्राप्त हुआ, हम तुम्हें बताते हैं। इस रास्ते चलोगे तो मैल निकाल लोगे। जब तक ऐसा होगा तब तक धर्म शुद्ध रहेगा, सदियों तक शुद्ध रहेगा। बड़ा लोक कल्याण करेगा।...”
(पू. गुरुजी के प्रवचन के कुछ अंश)

जून 2004 विपश्यना पत्रिका में प्रकाशित

Friday, August 5, 2022

सारीपुत्र और महामोद्गलयन)

🌻शुभ रात्रि 🌻

(सारीपुत्र और महामोद्गलयन) 

सारिपुत्र (उपतिष्य) और महामोद्गलयन(कोलित) यह दो ब्राह्मण तरुण राजगृह में संजय परिव्राजक के पास ब्रम्हचर्य वास एवं शिक्षा ग्रहण करते थे। किंतु उनकी शिक्षाओं से संतुष्ट नहीं थे। किसी श्रेष्ठ धर्म की खोज में थे। उस समय एक दिन अश्वजीत भिक्षु पात्र लेकर चीवर पहने भिक्षाटन करने राजगृह में प्रविष्ट हुए। सारिपुत्र ने अश्वजीत की गंभीर गतिविधि देखी और वह अत्यंत प्रभावित हुआ। उनसे गुरु धर्म पूछने की प्रबल इच्छा से वह भिक्खू अश्वजित के पीछे जाने लगा।

अश्वजीत भोजनदान लेकर चले गए। सारीपुत्र ने उनके पास पहुंचकर कुशल क्षेम पूछा और बोला - मित्र! आप किसके नाम प्रव्रज्जित हुए हैं ?  आप का गुरु कौन है ? आप किस धर्म को मानते हैं ? 
इन प्रश्नों को अश्वजीत का उत्तर था - मित्र! निश्चित से जो शाक्य  गौतम कुल के महान श्रमण वृद्ध हैं,  उन्हीं के नाम से मैं प्रव्रज्जित हुआ हूं। वही मेरे गुरु है। मैं उन्हीं का धर्म मानता हूं। 
यह सुनकर सारीपुत्र ने प्रश्न किया - आपके गुरु का सिद्धांत क्या है ? वह किस सिद्धांत को मानते हैं ? उनकी शिक्षा क्या है ? 
अश्वजीत ने उत्तर दिया - मैं नया हूं! इस धर्म में अभी नया ही प्रव्रज्जित हुआ हूं! विस्तार से मैं नहीं बता सकता! इसलिए संक्षेप में तुमसे धम्म कहता हूं। सारीपुत्र बोले - मुझे उसका सार अवश्य बता दें! मैं सार ही चाहता हूं। सार से प्रयोजन है। अश्वजीत बोला - अवश्य।
तब अश्वजीत ने सारीपुत्र को यह धम्मपर्याय उपदेश कहा -
*हे धम्मा हेतु पभभवा हेतु तथागत आहं।* 
*य च निरोधो एवं वादी महासमनो।।* 
अर्थात कारण से उत्पन्न होने वाले जितने वस्तुएं हैं उनका हेतु है। यह हेतु तथागत बतलाते हैं और उनका निरोध भी बतलाते हैं। यही महाश्रमण बुद्ध का वाद (धम्म मार्ग) है।

तब सारीपुत्र प्रसन्न मुद्रा में  महामोद्गलयन के पास गया और बोला मित्र - मैंने अमृत पा लिया है! हम भगवान बुद्ध के पास चले! तब यह दोनों संजय परिव्राजक के पास गए! उस समय उनके पास ढाई सौ परिव्राजक शिष्य उपस्थित थे। वहां जाकर वे संजय परिव्राजक से बोले - हम भगवान बुद्ध के पास जा रहे हैं! वही हमारे गुरु होंगे! संजय बोला - आप मत जाओ! यह सब जमात तुम्हारी है! तुम इनका अनुशासन करो! इस प्रकार प्रलोभ न देकर संजय ने उन्हें समझाने का प्रयत्न किया। आग्रह किया, किंतु वह सफल नहीं हुआ। तब सारीपुत्र महामोद्गलयन  और उनके वे 250 परिव्राजक भगवान के पास चले गए। जाकर उन्होंने भगवान के चरणों में शीश से वंदना कर, प्रार्थना की। भगवान भंते हमें आपसे प्रव्रज्या मिले, उपसंपदा मिले। तब भगवान ने कहा भिक्खूओ आओ धम्म सु आख्यात है। अच्छी प्रकार दुख के क्षय के लिए ब्रह्मचर्य का पालन करो। इस प्रकार ढाई सौ परिव्रजाको सहित सारीपुत्र महामोद्गलयन ने भगवान के पास प्रव्रज्जा और उपसंपदा ग्रहण की।

*सबका मंगल हो सबका कल्याण हो* 
संदर्भ :- भगवान बुद्ध का इतिहास और धर्म दर्शन

Thursday, May 19, 2022

चित्त के स्तर"*〰🌼🌺🌼

*"चित्त के स्तर"*
〰🌼🌺🌼〰

प्रत्येक साधक की कुछ दिन ध्यान साधना करने के बाद यह जानने की इच्छा होती है कि मेरी कुछ ‘आध्यात्मिक प्रगति’ हुई या नहीं? क्या मैं साधना के नाम पर "भुसे में लठ" तो नहीं मार रहा? इस बात से प्रेरित होकर आपको इस पोस्ट के माध्यम से अवगत करने की कोशिश कर रहा हूँ। ‘आध्यात्मिक प्रगति’ को नापने का मापदंड है- आपका अपना चित्त! आपका अपना चित्त कितना शुद्ध और पवित्र हुआ है, वही आपकी आध्यात्मिक स्थिति को दर्शाता है। अब आपको भी अपनी आध्यात्मिक प्रगति जानने की इच्छा है, तो आप भी इन निम्नलिखित चित्त के स्तरों से अपनी स्वयं की आध्यात्मिक स्थिति को जान सकते हैं | बस, अपने ‘चित्त का प्रामाणिकता’ के साथ ही ‘अवलोकन’ करें, यह अत्यंत आवश्यक है।

*(1) दूषित चित्त👉*
  
चित्त का सबसे निचला स्तर है, दूषित चित्त! इस स्तर पर साधक सभी के दोष ही खोजते रहता है। दूसरे, सबका बुरा कैसे किया जाए, सदैव इसी का विचार करते रहता है। दूसरों की प्रगति से सदैव ‘ईर्ष्या’ करते रहता है। नित्य नए-नए उपाय खोजते रहता है कि किस उपाय से हम दूसरे को नुकसान पहुँचा सकते है। सदैव नकारात्मक बातों से, नकारात्मक घटनाओं से, नकारात्मक व्यक्तिओं से यह ‘चित्त’ सदैव भरा ही रहता है।

*(2) भूतकाल में खोया चित्त👉*
 
एक चित्त एसा होता है, वह सदैव भूतकाल में ही खोया हुआ होता है। वह सदैव भूतकाल के व्यक्ति और भूतकाल की घटनाओं में ही लिप्त रहता है। जो भूतकाल की राग-द्वेष घटनाओं में रहने का इतना आदी हो जाता है कि उसे भूतकाल में रहने में आनंद का अनुभव होता हैं !

*(3) नकारात्मक चित्त👉*
  
इस प्रकार का चित्त सदैव बुरी संभावनाओं से ही भरा रहता है। कुछ-न-कुछ बुरा ही होगा! सदैव यह चित्त वाला मनुष्य सोचते रहता है। यह अति भूतकाल में रहने के कारण होता है, क्योंकि अति भूतकाल में रहने से वर्तमान काल खराब हो जाता है।

*(4) सामान्य चित्त👉*
 
यह चित्त एक सामान्य प्रकृत्ति का होता है। इस चित्त में अच्छे-बुरे दोनों ही प्रकार के विचार आते हैं। यह जब अच्छी संगत में होता है, तो इसे अच्छे विचार आते हैं और जब यह बुरी संगत में रहता है तब उसे बुरे विचार आते हैं। यानी इस चित्त के अपने कोई विचार नहीं होते। जैसी अन्य चित्त की संगत मिलती है, वैसे ही उसे विचार आते हैं। वास्तव में वैचारिक प्रदूषण के कारण नकारात्मक विचारों के प्रभाव में ही यह ‘सामान्य चित्त’ आता है।

*(5) निर्विचार चित्त👉*
  
साधक जब कुछ ‘साल’ तक ध्यान साधना करता है, तब यह निर्विचार चित्त की स्थिति साधक को प्राप्त होती है। यानी उसे अच्छे भी विचार नहीं आते और बुरे भी विचार नहीं आते। उसे कोई भी विचार ही नहीं आते। वर्तमान की किसी परिस्थितिवश अगर चित्त कहीं गया तो भी वह क्षण भर ही होता है। जिस प्रकार से बरसात के दिनों में एक पानी का बबुला एक क्षण ही रहता है, बाद में फूट जाता है, वैसे ही इसका चित्त कहीं भी गया तो एक क्षण के लिए जाता है, बाद में फिर अपने स्थान पर आ जाता है। यह आध्यात्मिक स्थिति की ‘प्रथम पायदान’ होती है, क्योंकि फिर कुछ साल तक अगर इसी स्थिति में रहता है तो चित्त का सशक्तिकरण होना प्रारंभ हो जाता है और साधक एक सशक्त चित्त का धनी हो जाता है।

*(6) दुर्भावनारहित चित्त👉*
 
चित्त के सशक्तिकरण के साथ-साथ चित्त में निर्मलता आ जाती है और बाद में चित्त इतना निर्मल और पवित्र हो जाता है कि चित्त में किसी के भी प्रति बुरा भाव ही नहीं आता है, चाहे सामनेवाला का व्यवहार उसके प्रति कैसा भी हो! यह चित्त की एक अच्छी दशा होती है।

*(7) सद्भावना भरा चित्त👉*

ऐसा चित्त बहुत ही कम लोगों को प्राप्त होता है। इनके चित्त में सदैव विश्व के सभी प्राणिमात्र के लिए सदैव सद्भावना ही भरी रहती है। ऐसे चित्तवाले मनुष्य ‘संत प्रकृत्ति’ के होते हैं वे सदैव सभी के लिए अच्छा, भला ही सोचते हैं। ये सदैव अपनी ही मस्ती में मस्त रहते हैं। इनका चित्त कहीं भी जाता ही नहीं है। ये साधना में लीन रहते हैं।

*(8) शून्य चित्त👉*
  
यह चित्त की सर्वोत्तम दशा है। इस स्थिति में चित्त को एक शून्यता प्राप्त हो जाती है। यह चित्त एक नली जैसा होता है, जिसमें साक्षात प्रकृति का ‘चैतन्य’ सदैव बहते ही रहता है। प्रकृति की ‘करुणा की शक्ति’ सदैव ऐसे शून्य चित्त से बहते ही रहती है। यह चित्त कल्याणकारी होता है। यह चित्त किसी भी कारण से किसी के भी ऊपर आ जाए तो भी उसका कल्याण हो जाता है। इसीलिए ऐसे चित्त को कल्याणकारी चित्त कहते हैं। ऐसे चित्त से कल्याणकारी शक्तियाँ सदैव बहते ही रहती हैं। यह चित्त जो भी संकल्प करता है, वह पूर्ण हो जाता है। यह सदैव सबके मंगल के ही कामनाएँ करता है। मंगलमय प्रकाश ऐसे चित्त से सदैव निरंतर निकलते ही रहता है।

अब आप अपना स्वयं का ‘अवलोकन’ करें और जानें कि आपकी आध्यात्मिक स्थिति कैसी है। आत्म की पवित्रता का और चित्त का बड़ा ही निकट का संबंध होता है। अब तो यह समझ लो कि ‘चित्तरूपी धन’ लेकर हम जन्मे हैं और जीवनभर हमारे आसपास सभी ‘चित्तचोर’ जो चित्त को दूषित करने वाले ही रहते हैं, उनके बीच रहकर भी हमें अपने चित्तरूपी धन को संभालना है। अब कैसे? वह आप ही जानें!!!

               🙏🌹🙏