🌷 समझो ये कर्म संस्कार कैसे बने?
A )जो भी विचार हमारे मन में चल रहा है यदि वो आया और थोड़ी देर में निकल गया तो भी कर्म संस्कार बनेंगे पर पानी की लकीर जैसे बनेंगे। उनका कोई प्रभाव नही होगा। जैसे जैसे बनते गए, वैसे वैसे समाप्त होते गए।
B) यदि उसका चिंतन देर तक चलता रहा तो बालू की लकीर जैसे बनेंगे। वो भी समय पाकर समाप्त हो जाते हैं। वो इतने बलवान नही होते की हमें एक नया जन्म दे सके।
C) लेकिन जब वे ही विचार बार बार उत्पन्न होते हुए इतने गहरे हो जाएँ की जैसे पत्थर पर छेँनी और हथोड़े से गहरी लकीर कर दें, तो भले हमने वाणी से कुछ नहीं कहा, भले हमने शरीर से कोई ऐसा काम नहीं किया पर मन ही मन ये अवस्था पैदा कर ली की जैसे वाणी से दुष्कर्म करते हुए मन की क्या अवस्था होती, वैसी अवस्था हमने अख्तियार(acquire) कर ली।शरीर से दुष्कर्म करते हुए मन की क्या अवस्था होती वो हमने अख्तियार कर ली, और कर्म तो मन का ही होता है।
मन का कर्म ही फल देता है।
पत्थर की लकीर वाला जो कर्म होगा वो इतना गहरा होगा की उनमे से कोई न कोई मृत्यु के समय जागेगा और अगले जन्म का कारण बन जायेगा।
तो यह जो भव संसरण है, जन्म मरण का चक्कर है वह मन के इन पत्थर की लकीरो जैसे कर्म संस्कारो की वजह से चलायमान होता है।
इसलिए मन पर संयम रखना बहुत आवश्यक है।
इन तीनों प्रकार के संस्कारों की उत्पत्ति जाने और अनजाने में अधिकतर समय होती ही रहती है। इन्हीं संस्कारों की उत्पत्ति को भगवान ने अनउत्पन्न संयोजन बताया है, जो खंद पर्व के अनुसार हमारे शरीर में छिपते रहते हैं। विपस्सना करते समय इन्हीं अनउत्पन्न संयोजनों की उत्पत्ति होती रहती है और आयतन पर्व के अनुसार इनका पहाण अर्थात् शरीर से परित्याग होता रहता है। तथा प्रहाण होने के बाद ये संयोजन वापिस नहीं आ सकते। ये सारी बातें साधक प्रज्ञा पूर्वक जानने लगता है।