Thursday, November 14, 2019

शून्यागार और पगोडा

शून्यागार और पगोडा 
(जयपुर पैगोडा के शिलान्यास के अवसर पर मार्च 24, 1982 का प्रवचन )

जहां शुद्ध धरम जागता है वहां की धरती तपने लगती है। धरम की शुद्ध तरंगों से ही धरती तपती है। सारा वातावरण तपता है। यह तपोभूमि न जाने कितने युगों में, कितनी सदियों में धरम के तप से तपी है। तभी यहां शुद्ध धरम जागने का, अनेक लोगों के कल्याण का अवसर प्राप्त हुआ है।

जिस धरती पर तापस तपते हैं, जहां सिवाय धरम-तप के और कोई प्रवृति नहीं होती, वहां चित कैसे राग से विमुक्त हो, द्वेष से विमुक्त हो, मोह से विमुक्त हो। इसका सक्रिय अभ्यास ही किया जाता है। इसका भी केवल चिंतन-मनन नहीं, सक्रिय अभ्यास होता है। अंतर्मन की गहराइयों तक कैसे संवर कर लें। नया राग जगने ही न पाये, नया द्वेष जगने ही न पाये, नया मोह जगने ही न पाये। और जो संग्रहीत है वह कैसे शनै: शनै: दूर होता चला जाय। धीरे-धीरे उसकी निर्जरा होती चली जाय, छूटता चला जाय, उसका क्षय होता चला जाय।

जिस धरती पर धरम का यह शुद्ध अभ्यास निरंतर होता रहता है. वह धरती खूब तपने लगती है। सारा वातावरण तरंगों से आप्लावित हो उठता है, तरंगित हो उठता है। अधिक लोक-कल्याण होने लगता है। ऐसी तपोभूमि में आकर जब कोई व्यक्ति थोड़ा भी प्रयास करता है तो अधिक सफलता प्राप्त होती है।
इस धरती पर अब भी लोग तप रहे हैं। भविष्य में जब यहां शून्यागार बन जायेंगे तो और अधिक लोग तपेंगे। आज भी लोगों का कल्याण होता है, शून्यागार में तपेंगे तब और अधिक कल्याण होगा। साधना के रास्ते, आगे बढ़ने के लिए एक तो अपनी मेहनत आवश्यक है, अपना परिश्रम आवश्यक है। बिना परिश्रम किये कोई उपलब्धि नहीं होती। दूसरे साधना की विधि निर्मल हो, स्वच्छ हो तो लाभ होता है। साधना की विधि निर्मल न हो तो बहुत मेहनत करने पर भी जो लाभ मिलना चाहिए वह नहीं मिलता। उचित मार्गदर्शक हो तो लाभ होता है। क्योंकि साधक गलत तरीके से काम नहीं करता। अच्छे मार्ग निर्देशन में जैसे काम करना चाहिए वैसे काम करता है। एक बात और जो बहुत आवश्यक है, वह है उचित वातावरण हो, उचित स्थान हो। हर कहीं ध्यान करने से वह लाभ नहीं प्राप्त होगा जितना लाभ किसी तपी हुई भूमि पर ध्यान करने से होता है।
अभी पिछले दिनों, साधकों की एक मंडली भारत के वैसे स्थानों पर होकर आयी जहां संत तपे, अरहंत तपे। तभी इतने लंबे अरसे के बाद भी साधक महसूस करता है कि कितनी प्रेरणादायी तरंगें वहां आज भी कायम हैं। तो भूमि का अपना बहुत बड़ा महत्व होता है। 

यह भूमि बहुत मंगलमयी है! तभी शुद्ध धरम का अभ्यास यहाँ आरंभ हुआ और आगे जा कर और अधिक लोग यहां तपेंगे। शून्यागार का अपना महत्व है। भगवान ने कहा, जब कोई व्यक्ति अकेला तपता है तो जैसे ब्रह्मा तप रहा हो! जहां दो साथ बैठ कर तपते हो तो जैसे दो देवता तप रहे हों। तीन बैठकर साथ तप रहे हो तो जैसे कोई तपस्वी मनुष्य तप रहे हैं। इससे अधिक एक साथ बैठकर तप रहे हों तो कोलाहल होता है। यानी उन गहराइयों तक तप नहीं होता। सामूहिक साधना का अपना महत्व होता है। शून्यागार का अलग महत्व है। शून्यागार माने ऐसा स्थान, ऐसा कमरा, ऐसी कुटी जिसमें अपने सिवाय कोई और नहीं। शून्य ही शून्य है। अकेला व्यक्ति एकांत ध्यान कर सके। बहुत आवश्यक है। बड़ा लाभ भी होता है। ब्रह्मदेश में जो ध्यान का केंद्र है, वहां जो शून्यागार हैं उनमें जो तपस्वी तपते हैं, उनकी तरंगें किस प्रकार धर्म से भरपूर हैं। साधक हो तो उसकी महत्ता को समझ सकता है। वहां बैठ करके ध्यान करे तो कितना अंतर। ठीक उसी प्रकार इगतपुरी में शून्यागार बने तो लोग उसमें ध्यान करते हैं तो कितना बड़ा अंतर मालूम होता है। शून्यागार का अपना महत्व, बहुत बड़ा महत्व है। 
सुञ्आगारं पविट्टस्स, सन्तचित्तस्स भिक्खुनो। 
अमानुसी रति होति, सम्मा धम्मं विपस्सतो॥
 “सम्मा धम्मं विपस्सतो” - सम्यक प्रकार से विपश्यना करता है। कहां करता है - " सुञ्आगारं पविट्ठस्स" - किसी शून्यागार में प्रवेश करके, शुद्ध धरम की विपश्यना करता हो तो शांतचित हो जाता है साधक। और "अमानुसी रति होति"- भीतर ऐसा आनंद, ऐसा रस प्राप्त होता है कि हम मनुष्यों को सामान्यतया अपने ऐन्द्रिय अनुभूति से होने वाले सुखों से उसका कोई मुकाबला नहीं, उसकी कोई तुलना नहीं। उससे बहुत परे है, बहुत परे है। दिव्य अनुभूति होती है, ब्राह्मी अनुभूति होती है और उससे भी परे निर्वाणिक अनुभूति होती है। क्युकि एकांत साधना कर रहा है। कहीं कोई व्यवधान नहीं है, बाधायें नहीं हैं।

तो बड़े कल्याण की बात होगी। इस तपोभूमि में भी ऐसे शून्यागार निर्मित होंगे। जहां साधक अपनी साधना द्वारा धर्म की गहरइयो तक जा सकेगा, अन्तेर्मन कि गहरइयो तक जो गाँठे बांध  रखी है उन्हें खोल सकेगा। किसी एक व्यक्ति का भी कल्याण हो जायगा और कल्याण तो जो-जो तपेगा सबका ही होने वाला है। किसी एक व्यक्ति का भी कल्याण हो जायगा तो इसके निर्माण के लिए जो श्रम, जो त्याग किसी ने भी किया वह सार्थक हो उठेगा। उससे बड़ा मूल्य और कुछ नहीं हो सकता। 

एक बार भगवान ने अपने किसी पूर्वजन्म की बात बताते हुए कहा कि जब वह बोधिसत्व थे. अभी बुद्ध नहीं बने थे, अनेक जन्मों तक बोधिसत्व का जीवन जीते-जीते, अपनी पारमिताओ को पूरा करते-करते ही वह अवस्था आती है जब कोई व्यक्ति बुद्ध बनता है। सम्यक संबुद्ध बनता है। तो दान की भी एक बहुत बड़ी पारमी होती है। 
बताते हैं कि वे किसी एक जीवन में बहुत बड़े देश के राजा थे। चित्त में दान की चेतना जागी तो जितना राजकोष था, जितना कुछ उनके पास था सब दान करना शुरू किया। सात वर्ष तक इतना दान दिया, हजारों लोगों को, लाखों लोगों को दान दिया। सात वर्ष तक लगातार दान का क्रम चलता ही रहा। अन्न का दान दिया। वस्त्र का दान दिया।  औषधि  का दान दिया। वाहन का दान दिया। निवास का दान दिया। लोगों की जो-जो सांसारिक आवश्यकताएं हो सकती हैं वे सारी पूरी हो जाय। किसी व्यक्ति को किसी सांसारिक बात की कमी न रह जाय। यों सात वर्ष तक खूब दान दिया। अब मुस्कराकर कहते हैं कि इतना बड़ा दान दिया, बहुत पुण्यशाली, पारमी बढ़ाने वाला लेकिन वह सारा का सारा दान एक ओर, और किसी श्रोतापन्न व्यक्ति को एक समय का भोजन दिया जाय, तो एक श्रोतापन्न व्यक्ति को एक समय के भोजन का दिया हुआ दान उससे कहीं अधिक पुण्यशाली होता है। पात्र कैसा है ? बीज कहां बोया गया अपने पुण्यकर्मों का। धरती उपजाऊ होगी तो फल और अधिक अच्छा आयेगा। वह श्रोतापन्न व्यक्ति साधना करते-करते शील, समाधी, समाधि प्रज्ञा में पुष्ट होते-होते अनार्य से आर्य बन गया। जिसने पहली बार निर्वाण का साक्षात्कार कर लिया, मुक्ति की चार सीढ़ियों में से पहली सीढ़ी तक पहुँच गया. पहला सोपान प्राप्त कर लिया। ऐसा व्यक्ति श्रोतापन्न हो गया। श्रोत में पड़ गया। 

दान का लाभ तो होता ही है पर किसको दान दे ?  तो कहा कि उस समय कोई श्रोतापन्न था ही नहीं पृथ्वी पर। क्योंकि विपश्यना नही थी। क्योंकी निर्वाण का साक्षात्कार करने का तरीका लोगों के पास नहीं था । तो जो थे उन्ही को दान दिया गया। लेकिन उनके मुकाबले एक श्रोतापन्न को केवल एक समय का भोजन दिया जाय तो वह भी उससे अधिक लाभदायक होता है। 

ऐसा क्यों होता है इसे समझे। किसी भी प्राणी को भोजन दे रहे है तो उसे हम एक दिन का जीवन और दे रहे हैं। उस भोजन के बल पर उसकी जीवनधारा आगे बढ़ेगी। किसको दे रहे हैं? एक कोई हिंसक पशु है, कोई शेर है. चीता है; दूसरी ओर एक गाय है। एक दिन का भोजन हमने दोनों को दिया। लेकिन गाय को दिया हुआ अधिक पुण्यशाली क्यों? सिंह एक दिन अधिक जी करके अन्य प्राणियों को कष्ट ही देगा। गाय एक दिन अधिक जी करके अन्य प्राणियों को लाभ ही देगी। इसलिए इन दोनों के मुकाबले गाय को दिया हुआ भोजन अधिक फलदायी है, अधिक कल्याणकारी है। एक ओर गाय है और उसके मुकाबले एक सामान्य मनुष्य है, उसे भोजन दिया गया तो उस सामान्य मनुष्य को दिया गया भोजन अधिक कल्याणकारी होगा। क्योंकि मनुष्य है। पशु के मुकाबले उसके पास ऐसी शक्ति है कि वह अंतर्मुखी हो करके, आत्ममुखी हो कर, सत्यमुखी होकर अपनी गांठे खोलना सीख जायेगा, मुक्त हो जायगा। वह काम पशु नहीं कर सकता। वह गाय जीवनभर जी कर के भी अपने आप को मुक्त नहीं कर सकती, उसके पास कुदरत ने वह शक्ति नहीं दी। इस मनुष्य को अगर हमने एक दिन और जिला दिया तो कौन जाने, उस एक दिन अधिक जीने में ही उसे शुद्ध धर्म का संपर्क हो जाये, ऐसी विधि मिल जाये, जिससे आत्ममुखी होकर अपनी गांठें खोल ले। इन दोनों के मुकाबले उस व्यक्ति को दिया हुआ दान, उस व्यक्ति को दिया हुआ भोजन अधिक कल्याणकारी है। 

मनुष्य में भी एक सामान्य व्यक्ति जिसको धरम का रास्ता नहीं मिला, सारे जीवन दुराचार का ही जीवन जीता है, उसके मुकाबले एक व्यक्ति जो सदाचार का जीवन जी रहा है, धरम के रास्ते पड़ गया। इन दोनों में से सदाचारी को दिया हुआ भोजन ज्यादा कल्याणकारी है। इसलिए कि उसका एक दिन भी अधिक जीना उसकी सन्मार्ग की ओर ले जाने में सहायता करेगा और सचमुच बढ़ते-बढ़ते मुक्त अवस्था तक पहुँच जायेगा। बड़ा लाभ हो जायगा उसका । 

सन्मार्ग के रास्ते पड़ा हुआ, धर्म के रास्ते पड़ा हुआ एक व्यक्ति है, लेकिन अभी तक उसको निर्वाण का साक्षात्कार नहीं हुआ। उसके मुकाबले एक व्यक्ति जिसको निर्वाण का साक्षात्कार हो गया, उसे एक दिन का भोजन देते हैं तो वह ज्यादा पुण्यशाली है। क्योंकि उस व्यक्ति को हमने यदि एक दिन का जीवन दिया तो एक दिन अधिक जी करके वह केवल अपना ही कल्याण नहीं कर रहा बल्कि हर सांस के साथ अब वह जो तरंगें पैदा करता है, हर क्षण जो तरंगों से भरती हैं। वह न जाने कितने लोगों के कल्याण का कारण बन जायेगा। 

इसीलिए कहा कि इतने लोगों को जो मैंने दान दिया उसके मुकाबले एक श्रोतापन्न को दिया गया भोजन दान कही अधिक कल्याणकारी होता है, कहीं अधिक पुण्यशाली होता है। 
अनेक श्रोतापन को भोजन दिया उसके मुकाबले अगर एक सक्दागामी को भोजन दे दिया, वह कही अधिक कल्याणकारी होगा, कही अधिक फलशाली होगा । अनेक सक्दागामी को भोजन दिया उसके मुकाबले एक अनागामी को भोजन दे दिया ।  वह कही अधिक कल्याणकारी हो गया! अनेक अनागामी को भोजन दान दिया, उसके मुकाबले एक अरहंत को भोजन दान दे दिया, वह उससे भी अधिक कल्याणकारी हो गया! अनेक अरहंतों को भोजन दिया और एक सम्यक संबुद्ध को भोजन दे दिया, वह कहीं अधिक कल्याणकारी हो गया। किसी सम्यक संबुद्ध को भोजन दे और तपने वाले संघ को भोजन दे तो सम्यक संबुद्ध को दिये हुए भोजन से भी ज्यादा कल्याणकारी हो गया !
 
और उसके बाद कहा कि कितने ही बड़े तपने वाले संघ को भोजन दे करके, कितना ही बड़ा पुण्य अर्जित क्यों न कर ले, उसके मुकाबले साधना करने वालो के लिय कोई सुविधा बना दी,  कोई शून्यागार बना दिया, जिसमें बैठ करके कोई व्यक्ति अपनी मुक्ति का रास्ता खोज सकता हो तो उन सारे पुण्यों से भी अधिक ऊंचा पुण्य है, अधिक कल्याणकारी है। 

अब तक जो काम हुए वे निरर्थक हुए ऐसा नहीं कहते, पर शून्यागार बनाने का जो भी श्रम कर रहे हैं वह अधिक कल्याणकारी है। एक-एक व्यक्ति अलग-थलग रहे। उसका निवास भी अलग हो और उसके ध्यान का जो स्थान ही वह भी अलग हो तो साधक की जो प्रगति होती है वह कई गुना अधिक होती है। बहुत अच्छी बात कि इस तपोभूमि में शून्यागार बनने का काम शुरू हुआ। इस धरती का सम्मान करते हैं। अपने यहां एक परंपरा है- भूमिपूजन होता है। शुद्ध धरम के रास्ते क्या भूमिपूजन होता है -भूमि का सम्मान इसी तरह किया जाता है कि तपते हैं उस भूमि पर बैठकर । तप करके जो शुद्ध तरंगें पैदा करेंगे, इससे बढ़कर कोई धरती सम्मानित नही हो सकती, पूजित नही हो सकती । तो इसीलिए यहाँ तपे, तप करके भूमि का सम्मान किया। अधिक से अधिक धरम की तरंगें इस भूमि पर स्थापित हों, इस वातावरण में स्थापित हों ताकि अधिक से अधिक लोगों का कल्याण हो, यही भूमिपूजन है। यही भूमि का सम्मान है। 

जो भी साधक अब तक यहाँ तपते रहे है, अपना मैल उतारते रहे हैं, जिसका थोड़ा भी मैल उतर जाता है मन में मंगल-मैत्री जागती ही है कि जैसे मेरा कल्याण हुआ, जैसी सुख-शांति मुझे मिली, थोड़ी-सी ही मिली, ऐसी सुख-शांति, अधिक से अधिक लोगों को मिले। अधिक से अधिक लोगों के करम-बंधन टूटें। अधिक से अधिक लोगों को मुक्ति का रास्ता मिले। ऐसा मंगलभाव मन में जागता है, कि मैं उसमें कैसे सहायक हो सकूं ! 
अनेक प्रकार से सहायक हो सकता है - जिसके पास जो शक्ति है. उस शक्ति के बल पर सहायक हो सकता है। शरीर की सेवा करके सहायक हो सकता है। वाणी द्वारा सहायक हो सकता है। किसी के पास धन है, धन द्वारा सहायक हो सकता है। पर उन सबसे बढ़कर एक बहुत बड़ी सहायता होती है, तपकर सहायक होता है।

पुराना साधक इस धरती पर जितना तपेगा उतना ही अनेक लोगों के मंगल का कारण बनेगा। गुरुदेव के जीवनकाल में देखते थे – कि अनेक लोग ऐसे जो निर्वाणीक अवस्था तक पहुचे हुये और उस अवस्था तक जो पहुँचता है वह जब जी चाहे, जितने समय के लिए जी चाहे, निवृणिक अवस्था की अनुभूति करता है। ऋण से मुक्त होना है तो कैसे हो सकते हो? और लोग अपनी ओर से शरीर-श्रम का दान दे करके, धन का दान दे करके, अन्य प्रकार से सहायता करके, अपने-अपने ऋण से मुक्त होने का प्रयत्न करेंगे। लेकिन इतने अच्छे तापस के लिए तो यही उचित है कि कम से कम समाह में एक बार यहां आ जाया करो और किसी शून्यागार में बैठ करके एक घंटे की निर्वाणक समाधि लेकर चले जाया करो। बस, हो गया! कितनी बड़ी सेवा हो गयी। सारा का सारा आश्रम उन धरम कि तरंगो से इतना अल्पवित हो उठेगा ! तो जो भी साधक जिस-जिस अवस्था तक पहुँचा है, जितना भी तपा है उतनी तरंगें पैदा करेगा ही।

शुन्यगार बना कर लोगों को उसमे जो तपने की सहूलियत दे रहे हैं, यह तो अपने आपमें बहुत पुण्य की बात है ही, पर उससे कही बड़े पुण्य कि बात यह होगी कि, हर साधक सप्ताह में एक बार यहां आकर के तपेंगे। यह अपने तप का दान है। अपने तप की तरंगों का दान है। वह इस धरती को खूब अधिक पकायेगा. खूब अधिक तपायेगा। जिससे कि जो भी व्यक्ति आये वह थोड़े ही श्रम से अधिक प्राप्त कर सके। अपने विकारों से युद्ध करने की मेहनत तो हर व्यक्ति को करनी पड़ेगी। लेकिन आसपास का वातावरण धर्म कि तरंगो से तरंगित है तो मेहनत आसान  हो जायगी। बाहर की तरंगें अगर दृषित हैं तो बाधायें अधिक आयेंगी। भीतर की तरंगों से यानी अपने विकारों से भी लड़ रहा है और बाहर कि तरंगे भी ऐसी है जो पाँव खीचने वाली है, तो काम नही करने देती। उससे बचाव हो जायगा। बहुत बड़ा बल मिलता है, बहुत बड़ी सहायता मिलती है।

साधकों को चाहिए कि अपने भीतर मंगल मैत्री जगायें। अपना कल्याण तो है ही। जब आकर तपेंगे तब अपना कल्याण तो है ही । लेकिन उस तपने से और न जाने कितनो का  कल्याण होगा। सदियों तक कल्याण होने वाला है। जहां धरम की तरंगे जगने लगी तो लोग अपने आप खीचते हुये चले आयेगे । इस स्थान पर धर्म अपने शुद्ध रूप में जितनी सदियों तक रहेगा, उतनी सदियों तक न जाने कितने लोग आयेगे, तपेंगे , अपना अपना कल्याण करेंगे। 

इस समय जो भी तप रहे हैं, भविष्य में आकर जो भी तपेंगे उन सब का मंगल हो ! उन सब का कल्याण हो !  मुक्ति हो, उन सब की स्वस्ति मुक्ति हो! 

कल्याण मित्र, स.ना.गोयंका.

यथाभूत दर्शन

🌷"यथाभूत दर्शन"🌷

यथार्थ में जीना वर्तमान में जीना है, इस क्षण में जीना है।

क्योंकि बीता हुआ क्षण यथार्थ नही वह तो समाप्त हो चूका है।

अब तो केवल उसकी याद ही रह सकती है, वह क्षण नही।

इसी तरह आने वाला क्षण अभी उपस्थित नही है, उसकी केवल कल्पना हो सकती है, कामना हो सकती है, उसका यथार्थ दर्शन नही हो सकता।

🍁वर्तमान में जीने का अर्थ है, इस क्षण में जो कुछ अनुभूत हो रहा है, उसी के प्रति जागरूक होकर जीना।

भूतकाल की सुखद या दुखद स्मृतिया अथवा भविष्य की दुखद आशंकाएं या सुखद आशाएँ हमे वर्तमान से दूर ले जातीं हैं और इस प्रकार सच्चे जीवन से विमुख रखती हैं।

🌻वर्तमान से विमुख यह थोथा निस्सार जीवन ही हमारे लिये विभिन्न क्लेशो का कारण बनता है। अशांति, असंतोष, अतृप्ति, आकुलता, व्यथा और पीड़ा को ही जन्म देता है।

जैसे ही हम इस क्षण का यथाभूत दर्शन करने लगते हैं, वैसे ही क्लेशो से स्वभाविक मुक्ति मिलने लगती है।

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🌹  🌹  🌹  बुद्ध वाणी  🌹  🌹  🌹

अतीतं  नान्वाग्मेय्य न पटिकंखे अनागतं।
यं अतीतं पहीणं  तं अप्पत्तंच अनागतं ।।
पच्चुपन्नंच यो धम्मं तत्थ तत्थ विपस्सति ।
असंहीर  असंकुप्पा  तं  विद्वा अनुब्रूहये ।।

                         मज्झिम निकाय 131

भूतकाल को यादकर व्यग्र - व्याकुल न हों , भविष्य की कपोल - कल्पना के प्रति कामनाग्रस्त न हों । भूतकाल तो बीत चूका ,  भविष्य अभी आया नहीं । 

इस क्षण जो - जो जहां - जहां उत्पन्न हुआ है , उस धर्म को , उस स्थिति को , समझदार आदमी वहां - वहां देखे । 

न राग - रंजित हो कर उससे चिपके और न ही द्वेष - दूषित हो कर उससे कुपित हो । इस प्रकार अनासक्त हो साक्षी स्वभाववाली विपश्यना का अभ्यास करे , उसका विकास करे ।  

🍃  🍃  🍃  मंगल हो 🍃  🍃  🍃

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🌷Words of Dhamma🌷

"Atītaṃ nānvāgameyya, nappaṭikaṅkhe anāgataṃ;
yadatītaṃ pahīnaṃ taṃ, appattañca anāgataṃ.
Paccuppannañca yo dhammaṃ, tattha tattha vipassati; asaṃhīraṃ asaṃkuppaṃ, taṃ vidvāmanubrūhaye.
Ajjeva kiccamātappaṃ ko jaññā maraṇaṃ suve;
Na hi no saṅgaraṃ tena mahāsenena maccunā.
Evaṃ vihāriṃ ātāpiṃ, ahorattamatanditaṃ;
taṃ ve bhaddekaratto’ti santo ācikkhate muni."

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One should not linger on the past nor yearn for what is yet to come. The past is left behind, the future out of reach. But in the present he observes with insight each phenomenon, immovable, unshakable. Let the wise practice this. 

Today, strive at the task. Tomorrow death may come—who knows? We can have no truce with death and his mighty horde. Thus practicing ardently, tireless by day and night; for such a person, even one night is auspicious, says the Tranquil Sage.

—— Bhaddekarattasuttaṃ, Majjhimanikāya, Uparipaṇṇāsapāḷi, Vibhaṅgavaggo

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🌹गुरूजी इस जीवन में हमारे साथ जो भी हो रहा है, क्या वह हमारे पूर्व कर्मो का ही परिणाम है?

उत्तर-- यह सच है तो भी हम इसके कारण अपने आप को निष्क्रिय न बना लें।यह सोचकर की हमारे पूर्व कर्म के अनुसार जो होने वाला है सो तो होगा ही, हम उसमे क्या कर सकते हैं? यह धर्म के, प्रकर्ति के नियमो के बिलकुल विरुद्ध चिंतन होगा।
यह सच है कि पुराने कर्म हमारे इस जीवन की धारा को सुखद या दुखद मोड़ देते हैं, परंतु हमारा वर्तमान कर्म बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि वर्तमान के हम मालिक हैं।और यह मिलकियत अगर हमने हासिल कर ली तो हम इस धारा को अगर दुखद है तो उसे मोड़ने में सफल हो सकते हैं।

🌻पहले तो उसका सामना करना सीखेंगे, समता स्थापित करेंगे, फिर देखेंगे की मोड़ने के काम में लग गए।दुःख सुख में बदलने लगा।लेकिन अगर यह मानकर बैठ गए की दुःख तो आने ही वाला है क्योंकि हमारे पुराने कर्म ही ऐसे हैं तो चिंतन गलत हो जाएगा।
और यदि जीवनधारा सुखमय है तो भी हम सत्कर्मो में लगे रहेंगे तो यह सुखद धारा और अधिक सुखद बनेगी।

🌷तो हर हालत में वर्तमान कुशल कर्म को अधिक से अधिक महत्त्व देने में ही समझदारी है।

Ageing

🌷Ageing 🌷

Goenkaji was asked about ageing. 

He said that old age is misery but that old age in itself does not make one unhappy. If there is wisdom coupled with the wealth of life experience, old age becomes a golden period where one can look at things with serenity and understanding. Such old age is a source of joy for others too. 

Goenkaji said, "I am aging happily. There is decay every moment, birth and death every moment. But I remember how miserable I was when I was thirty. Now almost fifty years later, I find myself a lot happier and healthier. Old age suits me well. I have more wisdom and I have so much happiness. I travel around the world to distribute happiness. I am meeting old students who are serious practitioners of Vipassana and I also meet people who have never heard the word Vipassana." 

He added, "The more happiness I distribute, the happier I get!" 

Material possessions are ephemeral. 

Therefore, happiness resulting from material pleasures is fragile. However, no one can rob the happiness that comes from wisdom.

http://www.vridhamma.org/en2002-11

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🌷Definition of success🌷

Goenkaji said, "Before Vipassana, I thought that the meaning of success was being one inch taller than others but after Vipassana I discovered that true success is being happy.

 I consider myself successful when I see how much I have come out of misery and also when I serve others and see so much change in them." 

🌷 He said that there was also a big difference in the way he gave donations. 

Before Vipassana, it was with the intention of getting name and fame. 

After Vipassana, he started giving donations out of compassion, to help others. He also understood that a donation given out of selfless love and compassion is more effective.

http://www.vridhamma.org/en2002-11

http://www.vridhamma.org/Home

https://www.dhamma.org/en/courses/search

The Shelter of Dhamma

• The Shelter of Dhamma

In the outer world, clouds roll through the sky; winds blow in the fields and gardens; trees bend before each gust. Branches sway; leaves flutter; each blade of grass quivers. Everywhere, there is impermanence, instability. And in the inner world as well, see how everywhere there is instability, change, tumult, agitation, oscillation, movement every moment.

Outside on the rocky face of the mountain to the north of Dhammagiri, waterfalls are flowing. Inside, as well, flows the Ganges of the awareness of anicca from head to feet. Outside, all the earth pulses beneath the steadily falling drops of rain. Inside, sensations throb throughout the body. Outside are ripples on the flowing streams. Inside as well are ripples, wavelets, arising and passing away.

Outside, at times, threatening storm clouds darken the sky. Inside too, a heavy fog of emotion may arise. The clouds without are driven away by the wind, and inside the wind of the wisdom of anicca dispels the solidity and intensity of emotions. When the clouds outside pass away, you can gaze into the infinity of space; and when the clouds of sankhāras within are removed, all illusions evaporate and you see the reality of the Void (suññata). The sky, at last, is liberated from obscuring clouds; within, the mind is liberated from defilements. Washed in the rainwater of Vipassana, it becomes freed from all impurities.

Observing thus the nature outside can give inspiration to discover the same reality within. And when a meditator becomes established in the practice, he finds that he has a matchless shelter amid the storms of life.

Goenkaji

http://news.dhamma.org/wp-content/uploads/1988-15-2-VNL-en-A4.pdf

स्थूल से सूक्ष्मता की ओर

स्थूल से सूक्ष्मता की ओर

सफल विपश्यी साधक चार सूक्ष्मताओं की चरमसीम सच्चाइयों का साक्षात्कार कर लेता है। चार परम सत्य का स्वयं साक्षात्कार कर कृतकृत्य हो जाता है।
पहली सूक्ष्मता है काया की । कायानुपश्यना करता हुआ साधक प्रारंभ में काया के ठोसपने की अनुभूति करता है। बार-बार के अभ्यास से स्थूल से सूक्ष्मता की ओर बढ़ता है। बीधते हुए तीक्ष्ण चित्त से ऊपर से नीचे की ओर तथा नीचे से ऊपर की ओर यात्रा करते-करते स्वतः शरीर का घनत्व नष्ट होता है। फिर इसी तीक्ष्णता से समग्र शरीर-पिंड को चीरता हुआ केवल ऊपरी-ऊपरी सतही स्तर तक ही नहीं, बल्कि भीतर तक की घनसंज्ञा नष्ट कर लेता है। रूप कलाप याने शरीरगत परमाणुओं की सूक्ष्म सच्चाई तक जा पहुँचता है। जो भौतिक जगत का अंतिम सत्य है। शरीर का एक-एक कण खुल जाता है। कहीं भी संकलन, संघटन, संयोजन, संश्लेषण नहीं रह जाता। जैसे कोई बालू का गीला पिंड सूख जाय । कण-कण को बांधे रखने वाली संयोजनरूपी नमी दूर हो जाय। घनीभूत पिंड विघटित हो जाय, बिखर जाय। शरीर के बाहर-भीतर कहीं भी कोई स्थिर, शाश्वत, ध्रुव, अचल, ठोस पदार्थ है, ऐसा भ्रम नहीं रह जाय। यही रूप-स्कंध की याने भौतिक रूप की अंतिम सच्चाई तक पहुँचना है। यही रूप का सूक्ष्मतम साक्षात्कार है जिसमें कि भासमान प्रकट सत्य परमसत्य के रूप में अनुभूत होने लगता है।

दूसरी सूक्ष्मता है - वेदना-स्कंध की। विपश्यी साधक वेदनानुपश्यना करता हुआ देखता है कि प्रारंभ में समस्त शरीर पर अधिक तर स्थूल-स्थूल संवेदनाएं महसूस होती हैं। जैसे कि घनीभूत दबाव, दुखाव, तनाव, खिचाव, भारीपन अथवा मूळ, अर्धमूळ आदि-आदि। परंतु शांत और समता भरे चित्त से इन स्थूल संवेदनाओं का साक्षीकरण करते-करते इनका स्वतः भेदन होने लगता है। शनैः शनैः शरीर के भीतर-बाहर सर्वत्र स्थूल संवेदनाएं क्षीण होने लगती हैं। उनका विघटन-विश्लेषण होने लगता है और एक अवस्था आती है जबकि शरीर पर कहीं भी मूर्छा या अर्धमूर्छा नहीं रह जाती। कहीं कोई सघन संवेदना नहीं रह जाती। सर्वत्र तरंगें, उदय-व्यय ही उदय-व्यय की अनुभूति होने लगती है। अनासक्तभाव से इसी का दर्शन करते-करते संवेदना की यह उदय-व्यय अनुभूति भी अधिक सूक्ष्मता की ओर प्रयाण करने लगती है और सूक्ष्मतम अवस्था तक पहुँचती है। तब उदय और व्यय की अलग-अलग अनुभूति भी बंद हो जाती है। उदय होते ही व्यय होता है। बीच की स्थिति ही समाप्त हो जाती है। यह परमाणुओं से चित्त का स्पर्श होते ही वेदना की उत्पत्ति की सूक्ष्मतम सच्चाई है, जो तत्क्षण व्यय में बदलती है। इस अवस्था में सारा प्रपंच इस तीव्रगति से प्रवाहमान प्रतीत होता है कि सर्वत्र भंग ही भंग का बोध होता है। जैसे बहती हुई नदी बालू के तटवर्ती कगार को काट दे और वह बालू का ढेर भरभरा कर गिर पड़े। कण-कण बिखर जाय। यों सारे शरीर-स्कंध पर जो संवेदना महसूस होती है। वह अत्यंत तीव्रगति से भंग होती हुई, बिखरती हुई ही महसूस होती है। कहीं ठोसपना नहीं, स्थूलता नहीं। कहीं अटकाव नहीं, व्यवधान नहीं, रुकावट नहीं, बाधा नहीं । सर्वत्र धारा-प्रवाह की ही अनुभूति होती है। यह भंग बोध ही संवेदना की सूक्ष्मतम अवस्था का साक्षीकरण है जो संवेदनाओं को सामिष नहीं बनने देता याने उनके प्रति राग-द्वेष नहीं जगने देता; जो संवेदनाओं को निरामिष बनाए रखता है याने उनके प्रति अनासक्तभाव पुष्ट करता है।

इसी प्रकार विपश्यी साधक चित्तानुपश्यना करता हुआ, चित्त के उस खंड के क्रिया-कलाप को देखता है जिसे संज्ञा कहते हैं। जिसका काम मूल्यांकन करना है। पूर्व अनुभूतियों और यादगारों के बल पर, पूर्व संस्कारों के रंगीन चश्मे चढ़ाए हुए चित्त का यह संज्ञा-स्कंध प्रत्येक अनुभूति को अच्छा या बुरा, प्रिय या अप्रिय, सुखद या दुःखद आदि-आदि मूल्य देते रहता है। साधक देखता है। कि यह संज्ञा-स्कंध कितना प्रबल है। प्रत्येक अनुभूति अच्छे-बुरे मूल्यांकन से जुड़ी ही रहती है। जिस अनुभूति को अच्छी मान लेता है उसे लगातार कितने अरसे तक अच्छी माने जाता है। जिसे बुरी मान लेता है उसे लगातार कितने अरसे तक बुरी ही माने जाता है। तारतम्य टूटता ही नहीं। संज्ञा की निरंतरता बनी ही रहती है। परिणामतः संज्ञा-स्कंध घनीभूत होते जाता है। विपश्यना के बल पर साक्षीकरण का अभ्यास करते-करते साधक देखने लगता है कि किस प्रकार घनीभूत संज्ञा के कारण ही प्रतिक्रियाओं से अभिभूत चित्त राग-द्वेष के नए संस्कार बनाता है और दूषित हो उठता है। और कैसे जब संज्ञा की निरंतरता टूटती है तो सघनता दुर्बल होती है। स्थूल से सूक्ष्म होती हुई संज्ञा की जकड़ कम होती है तो प्रतिक्रियाओं का प्रभाव भी स्वतः कम होने लगता है।

इसी प्रकार चित्तानुपश्यना के साथ-साथ साधक धम्मानुपश्यना भी करने लगता है। रूपकलापों याने परमाणुओं के धर्म-स्वभाव को देखता है। वेदनाओं के धर्म-स्वभाव को देखता है। और देखता है संज्ञा और उसके परिणामस्वरूप उत्पन्न हो रहे संस्कारों के धर्म-स्वभाव को भी, कैसे शरीर पर होने वाली किसी संवेदना के अनुभव का संज्ञा जब अच्छा, प्रिय, सुखद आदि मूल्यांकन कर देती है तो तुरंत रागात्मक संस्कार जागने लगते हैं, और घनीभूत होने लगते हैं। उसका बुरा, दुखद, अप्रिय मूल्यांकन कर देती है तो द्वेषात्मक संस्कार उभरने लगते हैं और घनीभूत होने लगते हैं। इन घनीभूत संस्कारों का तूफान ही भावावेश बन कर समस्त चित्त-स्कंध पर छा जाता है और चित्तधारा को व्याकुल-व्यथित कर देता है। साधक विपश्यना के आधार पर समझता है कि ये संस्कार कितने दुःखप्रद हैं। विपश्यना द्वारा ही इसके दु:खद होने का कारण भी समझ में आने लगता है। इन संस्कारों के प्रति कितना तादात्म्य स्थापित कर लिया है -आत्मभाव, आत्मीय भाव; ‘मैं' का भाव, ‘मेरे' का भाव। यही आसक्ति पैदा करता है। परिणामतः दुःख पैदा होता है। विपश्यी साधक को देखते-देखते स्पष्ट होने लगता है कि यह ‘आत्म-आत्मीय' भाव, ‘मैं-मेरे' का भाव, रूप-स्कंध या शरीर-स्कंध के प्रति याने घनीभूत परमाणुओं के पुंज के प्रति कितना गहन हो उठा है। फलतः दु:ख भी उतना ही गहन हो उठा है। विपश्यना द्वारा सत्य का साक्षात्कार करते-करते यह स्पष्ट होने लगता है कि जिस प्रकार रूप-सकंध याने परमाणु-पुंज उदय-व्यय स्वभाव के हैं, अनित्यधर्मा हैं, वैसे ही वेदना भी, वैसे ही संज्ञा भी और वैसे ही संस्कार भी। यह अनित्य-बोध जितना-जितना सबल होते जाता है, संस्कारों के प्रति ‘मैं-मेरे' का भाव उतना-उतना दुर्बल होते जाता है, आत्मभाव दुर्बल होता है तो अनात्मभाव स्वतः पुष्ट होता है। देखते-देखते आसक्ति क्षीण होती। है। अनासक्ति पुष्ट होती है। दुःख का कारण दूर होता है। दुःख दूर होता है।

अनात्मभाव पुष्ट होता है तो ही संज्ञा का घनत्व क्षीण होता है। संस्कार का घनत्व क्षीण है। दर्शन “केवल दर्शन" बन जाता है। ज्ञान केवल ज्ञान" बन जाता है। भोक्ता और कर्ता की भ्रांति तो दूर होती ही है; समय पाकर द्रष्टा और ज्ञाता की भ्रांति भी दूर हो जाती है। “देख रहा हूँ" के स्थान पर देखा जा रहा है" रह जाता है। “जान रहा हूँ" के स्थान पर “जाना जा रहा है" रह जाता है। दर्शक ,दर्शन और दृश्य तीनों एकाकार होकर “केवल दर्शन" रह जाता है। ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय तीनों एकाकार होकर “केवल ज्ञान" रह जाता है। यही सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान की चरम अवस्था है। ऐसी अवस्था में ही संज्ञा-निरोध होता है। साधक आध्यात्म की गहनतम अवस्था प्राप्त करता है। केवल ज्ञान, केवल दर्शन से “कैवल्य" की उपलब्धि करता है। “केवली" हो जाता है। इंद्रियातीत परमपद “निर्वाण" में यथेच्छ रत रहने में अभ्यस्त हो जाता है। उन्मुक्त हो जाता है। तब वह स्वयं जान लेता है कि अब मेरा पुनर्जन्म नहीं है क्योंकि उस अवस्था में पहुँच कर पुनर्जन्म के सारे भव-संस्कार क्षीण होकर क्षय हो जाते हैं। मनुष्य-जीवन सफल-सार्थक हो जाता है। संस्कार और संज्ञा के उदय-व्यय की अनुभूति से लेकर उनके निरोध तक की यह यात्रा ही इन दोनों की चरम सूक्ष्मतम अवस्था है। विपश्यी साधक यों रूप, वेदना, संज्ञा और संस्कार-स्कंधों की उन सूक्ष्मतम परम सच्चाइयों की अवस्थाओं का साक्षात्कार कर लेता है, जिनके आगे इन स्कंधों के क्षेत्र में कुछ और सूक्ष्मतर नहीं रह जाता। तदनंतर इनसे परे उस परम सत्य निर्वाण का साक्षात्कार करता है जो कि इंद्रियातीत है, नाम-रूपातीत है। साधक प्रत्यक्षानुभूति द्वारा भलीभांत जान लेता है। कि स्थूल भासमान सच्चाइयों का भेदन कर सूक्ष्मतम तक पहुँचने की यही विधा है, साधना है, शक्ति है। इससे बढ़ कर अन्य कोई विद्या, साधना, शक्ति नहीं। अतः इसे पाकर वह और कुछ पाने की अपेक्षा नहीं रखता।

अंतर्मुखी होकर विपश्यना साधना द्वारा स्थूल से सूक्ष्म की ओर यात्रा करने वाले साधक के लिए मार्ग में अनेक कठिनाइयां उत्पन्न होती हैं। अनेक बार भौतिक रूप और चित्त का घनत्व नष्ट होकर सूक्ष्म प्रवाह की स्थिति प्राप्त होने के बावजूद किसी सुसुप्त कर्म-संस्कार की उदीरणा होती है तो शरीर-स्कंध पर पुनः उस संस्कार के अनुरूप कोई स्थूल घनीभूत संवेदना प्रकट करती है, कभी मूछ-अर्धमूर्छा प्रकट करती है। साधक धीरज के साथ फिर उन्हें भासमान स्थूल प्रकट सत्य समझ कर साक्षीभाव से देखता है तो देर-सबेर उनका भी भेदन होता है -पूर्व संस्कारों की निर्जरा होती है,

उनक क्षय होता है। पुनः सूक्ष्म धाराप्रवाह की अनुभूति होने लगती है। यों जब तक अधोगति की ओर ले जाने वाले सुसुप्त कर्म-संस्कारों का संग्रह पूर्णतया समाप्त नहीं हो जाता, तब तक बीच-बीच में स्थूलता उभरती ही रहती है। समझदार साधक इन पूर्व संस्कारजन्य संवेदनाओं के प्रति उपेक्षा का अभ्यास करता है। यह संस्कार-उपेक्षा की यात्रा किसी के लिए लंबी, किसी के लिए ओछी होती है। निर्भर करता है - पूर्व-संग्रह कितना है! निर्भर करता है - संस्कार उपेक्षा का काम कितनी समझदारीपूर्वक किया जा रहा है!

ऐसी अवस्था में कोई कच्चा साधक राजमार्ग छोड़ कर किसी गलत भूल-भुलैया में पड़ जाता है। पूर्व संस्कारजन्य स्थूल भासमान सत्य प्रकट हो तो उसके वश की बात नहीं। उनका साक्षीभाव से सामना करना ही है। परंतु जब साधक बावलेपन में स्वयं कल्पनाजनित रूप, रंग, रोशनी, शब्द आदि का कृत्रिम आलंबन उत्पन्न करके उन पर ध्यान देने लगता है तो एक भासमान सत्य से दूसरे बनावटी भासमान सत्य के उधेड़-बुन में पड़ जाता है। सूक्ष्मता की ओर जाने का रास्ता रुक जाता है। राजमार्ग छूट जाता है। किसी अंधी गली में जा अटक ता है। मुक्ति दूर हो जाती है। साधक समझदार होता है तो इस धोखे से अपने आप को बचाता है।

इस साढ़े तीन हाथ की काया के भीतर समझदारीपूर्वक स्थूल सत्य से सूक्ष्मता की ओर प्रयाण और सूक्ष्मतम सत्य तक की पहुँच सब के लिए अत्यंत कल्याणकारी है । 

साधको! विपश्यना के सतत अभ्यास द्वारा सूक्ष्म से सूक्ष्मतर, सूक्ष्मतर से सूक्ष्मतम की ओर गतिशील बने रहना सीखें, किसी भुलावे में भटके नहीं और इस प्रकार सही माने में अपना मंगल-कल्याण साधे! स्वस्ति-मुक्ति साधे!

कल्याणमित्र, 
सत्यनारायण गोयन्का