🌹गुरूजी, आपका जन्म बर्मा में हुआ। सुना है वहां पर सन्यासियो और भिक्षुओ की बड़ी अच्छी परम्परा है।
आपका क्या अनुभव है?
उत्तर- मै बरमा में जन्मा और पला।
वहां सुबह सुबह भिक्षुओ की कतार निकलती है गोचरी के लिये, तब सब की नजर नीची। नपे तुले कदमो से चल रहें हैं। मोन है, कोई बोलता नही। शांति रहती है।
कोई चिल्लाता नही--माई रोटी दे, तेरा बेटा जिये। ऐसा कुछ नही कहते।
🍁घर के सामने थोड़ी देर रुके।भिक्षा मिली तो मंगल मैत्री, न मिली तो मंगल मैत्री।
अकेला साधु है तो जहाँ उसने देखा कि मेरे खाने के लिये पर्याप्त है तो वह कोई एकांत स्थान में जाकर भोजन कर ले।अपनी आवश्यकता से अधिक भोजन नही ले।यदि समूह में है और पीछे विहार में कोई बूढ़ा भिक्षु है, बीमार भिक्षु है या अन्य किसी कारण से गोचरी के लिये नही जा सका तो उसके लिये कुछ अवशय ले जाय।
लेकिन अपने लिये भोजन की मात्रा को जाने।
🌻मधुकरी की, जरा सा यहाँ से लिया, जरा सा वहां से लिया तो किसी पर बोझ नही बना।
और जहाँ जहाँ जाए वहां मन ही मन मंगल मैत्री ही मंगल मैत्री।
तेरा मंगल हो,
तेरा कल्याण हो!
भिक्षा दे तो भी, न दे तो भी।
ऐसा व्यक्ति सही माने में भिक्षु है।
वही आचार्य बनने लायक है,
वही पूजन करने लायक है,
सम्मान सत्कार करने लायक है।
भले वह स्वयं पूजन, अर्चन, मान, सम्मान का भूखा नही है।
लेकिन वह सही आचार्य है तो शिष्य उसकी दैनिक और नैसर्गिक आवश्यकताओं की पूर्ति करे, उसके स्वास्थ्य की उचित देखभाल करे।
यही ' पूजा व पूजनीयानं ' है।