Friday, December 10, 2021

My foot becomes numb during meditation

*प्रश्न - ध्यान के समय पांव शून्य हो जाता है। डर लगता है कि कहीं एक समय के बाद पांव से चलना असंभव न हो जाय?*

उत्तर - थोड़ा तो असंभव हुआ हमारा भी, लेकिन यह बैठने से नहीं हुआ मेरे भाई! यह अधिक चलने से हुआ। तो किसी अतियों में नहीं जाना। यह जो एक घंटे की बैठक बिना पांव हिलाये बैठने को कहते है, वह अधिष्ठान की बैठक केवल शिविरों में है। घर में आ करके जोर-जबरदस्ती घंटे भर बैलूंगा या बैलूंगी ही, बिल्कुल पांव नहीं हिलायेंगे - ऐसी अतियों में नहीं जाना । बडी आसानी से घंटे भर बैठ सकते हो, पांव बदलने की जरूरत नहीं हो तो बैठो, अन्यथा बदल
लेना चाहिए। जोर-जबरदस्ती किसी बात की नहीं। और यह भी कि भाई, हमारा पांव सो जायगा, न जाने क्या हो जायगा, इसलिए १० मिनट की साधना की, फिर भागते फिरे। फिर आए १० मिनट की साधना की, फिर भागते फिरे तो यह भी नहीं होना चाहिए। घंटे भर की बैठक करनी है और जहां पांव बदलना आवश्यक हो, वहां बदलेंगे तो लंगड़े नहीं होंगे, बिल्कुल नहीं होंगे। 

*🌷 Que: My foot becomes numb during meditation. Sometimes I fear it might be impossible to walk after sitting. What should I do?*

Goenkaji: "To some extent, it did become impossible for me to walk as well. But, it did not happen due to prolonged sitting! Rather, it happened because of too much walking. Here again, one should not go to extremes. The one-hour sittings of adhitthana, where you meditate with complete stillness, are only during the course. After reaching home you may have the resolve, ‘I will just forcibly sit for one hour without moving my leg; no matter what’. Don’t go to such extremes. If you can sit effortlessly then fine, otherwise just change your posture. There should be no forced effort about anything. 

On the courses the hour-long sitting is a must, so don’t worry about numbness. If we change the posture when we need to then we will not lose our ability to walk. Not at all!"

http://www.vridhamma.org/en2015-01

http://www.vridhamma.org/

https://www.dhamma.org/en/courses/search

Thursday, August 19, 2021

Household monk

*🌷"Nekkhamma Parami— (Renunciation)🌷*
     : During Vipassana course. 

One who becomes a monk or a nun renounces the householder’s life and lives without personal possessions, even having to beg for his or her daily food. All this is done for the purpose of dissolving the ego. 

*🌷 How can a lay person develop this quality?*

In a course like this, one has the opportunity to do so, since here one lives on the charity of others.

Accepting whatever is offered as food, accommodation, or other facilities, one gradually develops the quality of renunciation.

Whatever one receives here, one makes best use of it, working hard to purify the mind not only for one’s own good, but also for the good of the unknown person who donated on one’s behalf.

http://www.vridhamma.org/

https://www.dhamma.org/en/courses/search

🌷Que-Ans :Kalyanmitra S N Goenka  ji🌷

*1) As a Westerner living in today’s modern world, is it more beneficial to practice Vipassana as a householder or go to a monastery to live as a monk?*

A: Well, if you leave the householder’s life and become a monk, you have all the time just to practice. We give respect to such a person who has left the householder’s life and is practicing Vipassana full-time.  Nothing compares with that.
But not all householders can become monks.
Buddha’s teaching is for all, monks as well as householders.
As a householder, you can still practice although your progress will be slower than that of a monk. But still, you will get the same result.

-----

Nekkhamma Parami— (Renunciation)🌷* : During Vipassana course.

*🌷"Nekkhamma Parami— (Renunciation)🌷*
     : During Vipassana course. 

One who becomes a monk or a nun renounces the householder’s life and lives without personal possessions, even having to beg for his or her daily food. All this is done for the purpose of dissolving the ego. 

*🌷 How can a lay person develop this quality?*

In a course like this, one has the opportunity to do so, since here one lives on the charity of others.

Accepting whatever is offered as food, accommodation, or other facilities, one gradually develops the quality of renunciation.

Whatever one receives here, one makes best use of it, working hard to purify the mind not only for one’s own good, but also for the good of the unknown person who donated on one’s behalf.

http://www.vridhamma.org/

https://www.dhamma.org/en/courses/search

🌷Que-Ans :Kalyanmitra S N Goenka  ji🌷

*1) As a Westerner living in today’s modern world, is it more beneficial to practice Vipassana as a householder or go to a monastery to live as a monk?*

A: Well, if you leave the householder’s life and become a monk, you have all the time just to practice. We give respect to such a person who has left the householder’s life and is practicing Vipassana full-time.  Nothing compares with that.
But not all householders can become monks.
Buddha’s teaching is for all, monks as well as householders.
As a householder, you can still practice although your progress will be slower than that of a monk. But still, you will get the same result.

-----

प्रश्न- ईश्वर क्या है ? कहां है ? कौन है ? कैसा है ?

🌷प्रश्न- ईश्वर क्या है ? कहां है ? कौन है ? कैसा है ?

उत्तर:- हम क्या कहें भाई ? हम तो कहते हैं सत्य ही ईश्वर है । परम सत्य ही परमेश्वर है । अरे, अपने भीतर की सच्चाई को देखने लगे और देखते-देखते चित्त और शरीर, इन दोनों की सारी सच्चाई देख ली। स्थूल से स्थूल, वहाँ से शुरू करके सूक्षम से सूक्षम - सारा प्रपंच देख लिया इसका अतिक्रमण करके शरीर औरे चित्त के परे जो इन्द्रियातीत अवस्था है, उस अवस्था पर पहुंच गये, जो नित्य है, शाश्वत है, ध्रुव है ; उसका कोई नाम नहीं, उसका कोई रूप नहीं, आकृति नहीं---- उसका साक्षात्कार हो गया तो अपने आप ईश्वर का साक्षात्कार हो गया । यह साक्षात्कार करना चाहिए । केवल बुद्धि से मानने और न मानने से कोई बात बनती नहीं ।

🌹गुरूजी क्या आपकी ध्यान विधि में भगवत्प्राप्ति का प्रावधान नही है?

उत्तर--बिलकुल है!
भगवत्प्राप्ति का ही काम करना है।
हम अपने आपको भगवान् बनाने का ही काम करते हैं। यह स्वयं को भगवान् बनाने की साधना है।

भगवान् क्या होता है- जिसका राग भग्न हो गया, द्वेष भग्न हो गया, मोह भग्न हो गया वह मुक्ति के ऐश्वर्य का जीवन जीने वाला व्यक्ति भगवान् हो गया। उस अवस्था तक पहुँचने के लिये साधना कर रहें हैं। यह भगवत्प्राप्ति नही है तो और क्या है। हर व्यक्ति भगवत्प्राप्ति कर सकता है, भगवान् बन सकता है। उस अवस्था को प्राप्त कर सकता है। यह सब प्रैक्टिस करने से हो पायेगा। किसी की कृपा से नही। स्वयं काम करना होगा।

समझो ये कर्म संस्कार कैसे बने

🌷 समझो ये कर्म संस्कार कैसे बने?

A )जो भी विचार हमारे मन में चल रहा है यदि वो आया और थोड़ी देर में निकल गया तो भी कर्म संस्कार बनेंगे पर पानी की लकीर जैसे बनेंगे। उनका कोई प्रभाव नही होगा। जैसे जैसे बनते गए, वैसे वैसे समाप्त होते गए।

B) यदि उसका चिंतन देर तक चलता रहा तो बालू की लकीर जैसे बनेंगे। वो भी समय पाकर समाप्त हो जाते हैं। वो इतने बलवान नही होते की हमें एक नया जन्म दे सके।

C) लेकिन जब वे ही विचार बार बार उत्पन्न होते हुए इतने गहरे हो जाएँ की जैसे पत्थर पर छेँनी और हथोड़े से गहरी लकीर कर दें, तो भले हमने वाणी से कुछ नहीं कहा, भले हमने शरीर से कोई ऐसा काम नहीं किया पर मन ही मन ये अवस्था पैदा कर ली की जैसे वाणी से दुष्कर्म करते हुए मन की क्या अवस्था होती, वैसी अवस्था हमने अख्तियार(acquire) कर ली।शरीर से दुष्कर्म करते हुए मन की क्या अवस्था होती वो हमने अख्तियार कर ली, और कर्म तो मन का ही होता है।

मन का कर्म ही फल देता है।
पत्थर की लकीर वाला जो कर्म होगा वो इतना गहरा होगा की उनमे से कोई न कोई मृत्यु के समय जागेगा और अगले जन्म का कारण बन जायेगा।
तो यह जो भव संसरण है, जन्म मरण का चक्कर है वह मन के इन पत्थर की लकीरो जैसे कर्म संस्कारो की वजह से चलायमान होता है।

इसलिए मन पर संयम रखना बहुत आवश्यक है।

इन तीनों प्रकार के संस्कारों की उत्पत्ति जाने और अनजाने में अधिकतर समय होती ही रहती है। इन्हीं संस्कारों की उत्पत्ति को भगवान ने अनउत्पन्न संयोजन बताया है, जो खंद पर्व के अनुसार हमारे शरीर में छिपते रहते हैं। विपस्सना करते समय इन्हीं अनउत्पन्न संयोजनों की उत्पत्ति होती रहती है और आयतन पर्व के अनुसार इनका पहाण अर्थात् शरीर से  परित्याग होता रहता है। तथा प्रहाण होने के बाद ये संयोजन वापिस नहीं आ सकते। ये सारी बातें साधक प्रज्ञा पूर्वक जानने लगता है।

Sunday, August 8, 2021

Who is a successor?🌷

🌹उत्तराधिकारी कौन ?🌹
🌷Who is a successor?🌷

किसी पिता के एक या अधिक संतान हों तो वे सब उसके उत्तराधिकारी होते हैं। उसकी धन-दौलत, जायदाद के मालिक होते हैं। उसे बढ़ाते हैं या गॅवाते हैं।
लेकिन धर्म के क्षेत्र में ऐसा कदापि नहीं होता। भगवान बुद्ध से जिन्होंने विपश्यना सीखी और उसे फैलाया, वे सब उनके उत्तराधिकारी बने। उन उत्तराधिकारी शिक्षकों ने औरों को विपश्यना सिखा कर, उसमें प्रवीण करके, उन्हें अपना उत्तराधिकारी बनाया। इस प्रकार पीढ़ी-दर-पीढ़ी गुरु-शिष्य परंपरा के आधार पर इन सभी उत्ताधिकारियों ने धर्म सिखाया। सम्राट अशोक के समय भिक्षु सोण और उत्तर हुए। वे भगवान का धर्म सीख कर उनके उत्तराधिकारी हुए और इसी रूप में धर्म सिखाने के लिए म्यंमा गये। वहां सामान्य लोगों को धर्म सिखाने के  साथ-साथ उन्होंने कुछ ऐसे शिष्य तैयार किये जिन्होंने भगवान के उत्तराधिकारी के रूप में इस गुरु-शिष्य परंपरा को कायम रखा।

भगवान बुद्ध ने कभी अपने पुत्र राहुल को अपना उत्तराधिकारी नहीं बनाया। आगे जाकर गुरु नानकदेवजी ने अपने शिष्य अंगद देव को अपना उत्तराधिकारी बनाया, न कि अपने पुत्र को। धर्म के क्षेत्र में उत्तराधिकारी वही होता है जो अपने गुरु से धर्म सिखाने की विद्या प्राप्त करके उसे सिखाने लगता है। यह गुरु-शिष्य परंपरा पिछले ढाई हजार वर्षों से चलती आ रही है और आगे भी चलती रहेगी।

गुरुदेव सयाजी ऊ बा खिन से मैंने विपश्यना साधना, यानी, शुद्ध धर्म सीखा और उनकी उत्कट अभिलाषा को पूरी करते हुए भारत आकर लोगों को धर्म सिखाने लगा। रंगून रहते हुए 14 वर्षों तक मैं उनके संपर्क में रहा और देखा कि न जाने कितनी बार उन्होंने इन शब्दों का उच्चारण किया होगा, 'भारत से हमें विपश्यना के रूप में अनमोल रत्न मिला। परंतु आज भारत इस रत्न को खोकर कंगाल हो गया है। इसे पुनः भारत ले जाकर हमें भारत का कर्ज चुकाना है। यह कर्ज और कौन चुका पायेगा भला! मैं ही चुकाऊंगा।" उन्हें ही भारत आकर अनमोल कर्ज चुकाना था।

वे स्वयं भारत आकर यहां विपश्यना का पुनर्जागरण करना चाहते थे, परंतु उन दिनों बर्मी नागरिकों को दो कारणों से ही पासपोर्ट दिया जाता था -- या तो वे बर्मा छोड़ कर सदा के लिए चले जायें या उन्हें कहीं बाहर नौकरी मिल रही हो । सयाजी ऊ बा खिन न तो सदा के लिए बर्मा छोड़ना चाहते थे और न ही भारत आने के लिए किसी झूठी नौकरी का सहारा लेना चाहते थे। अतः सरकार ने उन्हें पासपोर्ट नहीं दिया और वे भारत नहीं आ सके। परंतु एक अत्यंत विशिष्ट कारण से सौभाग्यवश मुझे बर्मा का पासपोर्ट मिला। मेरी माता बम्बई (मुंबई) में मानसिक रूप से अस्वस्थ हो गई थी और मैं जानता था कि यदि वह विपश्यना कर लेगी तो स्वस्थ हो जायगी। बर्मी केबिनेट में मेरे दो घनिष्ठ मित्र थे। उन्होंने मेरा पुरजोर समर्थन किया और इस विशेष कारण से मुझे पासपोर्ट मिल गया।

गुरुदेव इस घटना से बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने कहा कि यद्यपि मैं स्वयं भारत का कर्जा नहीं चुका सकता, परंतु अब यह काम मेरी ओर से तुम्हें करना होगा। उनसे विपश्यना विद्या में पारंगत होकर मैं भारत आया और गुरुदेव के इस उद्देश्य की पूर्ति में लग गया। अतः धर्म के क्षेत्र में गुरु-शिष्य परंपरा के अनुसार मैं गुरुदेव सयाजी ऊ बा खिन का उत्तराधिकारी हुआ । मैंने भारत में अनेकों को विपश्यना की शिक्षा दी और कुछ को आचार्य पद पर स्थापित किया। जो आचार्यपद पर स्थापित हुए वे विपश्यना सिखाते हुए मेरे उत्तराधिकारी हुए। यों गुरुदेव के सपनों को साकार होते देख कर मेरे मन का बोझ हल्का हुआ। बर्मा पर भारत का जो कर्जा था, उसे चुकाने का काम आरंभ हुआ।

आगे जाकर विपश्यना के अनेक केंद्र बने और शनैः शनैः भारत में ही नहीं, बल्कि विश्व के अनेक देशों में केंद्र बनते गये। जहां-जहां ये केंद्र स्थापित हुए, वहां उन सभी केंद्रों में प्रशिक्षण देने वाले आचार्य मेरे उत्तराधिकारी ही हैं। क्योंकि मैंने उन्हें जो विपश्यना सिखायी, उसे वे फैलाने का ही काम कर रहे हैं।
जब दूर-दराज के अनेक स्थानों पर विपश्यना के अनेक केंद्र बन गये और बनते ही जा रहे हैं तब मैंने निश्चय किया कि प्रत्येक स्थानीय केंद्र पर प्रशिक्षक के रूप में एक-एक अलग-अलग उत्तराधिकारी हो, परंतु जहां कहीं आवश्यक हो, वहां उन्हें परामर्श देने के लिए अनेक प्रादेशिक आचार्य भी नियुक्त हों। जहां अनेक प्रादेशिक आचार्य काम कर रहे हों, वहां आवश्यक होने पर एक-एक बड़े क्षेत्र के लिए एक भौगोलिक आचार्य हो। केंद्रीय आचार्य, प्रादेशिक आचार्य तथा भौगोलिक आचार्यों की नियुक्ति होने पर वे सभी मेरे उत्तराधिकारी माने जायेंगे। इनके नाम मैं शीघ्र प्रकाशित करूंगा।

किसी केंद्र का अथवा प्रादेशिक या भौगोलिक क्षेत्र का उत्तराधिकारी हो जाने का अर्थ यह नहीं हुआ कि वह उस-उस केंद्र या क्षेत्र का मालिक हो गया। सभी आचार्य मात्र प्रशिक्षण क्षेत्र के उत्तराधिकारी हैं।
ऐसे ही केंद्र का संचालन करने वाले ट्रस्टियों का भी कोई उत्तराधिकार नहीं होता। किसी केंद्र में कोई मान-सम्मान या पद-प्रतिष्ठा पाने का अधिकार भी नहीं होता। वे सभी धर्मसेवक हैं। और केंद्र की यथावश्यक सेवा करते हैं। जिस किसी व्यक्ति ने धर्मस्थल के लिए जमीन दान दी अथवा किसी ने उस पर कोई इमारत बनवा दी, तब दान दी गयी जमीन पर, अथवा उस पर बनायी गयी इमारत पर, उसकी कोई मल्कियत नहीं हो सकती। मल्कियत धर्म की होती है, दानी की नहीं । उनको अपने-अपने दान का और सेवा का अमूल्य पुण्यलाभ प्राप्त हो जाता है, बस इतना ही।

उदाहरण स्वरूप भगवान बुद्ध के समय अनाथपिडिक ने सोने के सिक्के बिछा कर भगवान को भूमि का दान दिया। उस भूमि पर बहुत-सा धन लगा कर आवासीय आवश्यकताओं की भी पूर्ति की। इतना होने पर भी अनाथपिंडिक धर्म की परंपरा को खूब समझता था कि दान दी गयी भूमि और उस पर बनाई गयी इमारतों पर उसका रंचमात्र भी अधिकार नहीं है। जो दान दे दिया सो दे दिया। बदले में कुछ प्राप्त करने की भावना अत्यंत दोषपूर्ण है। यद्यपि उसने देखा कि वर्षावास के बाद जब भगवान अपने भिक्षुओं के साथ अन्य प्रदेशों में विहार करने चले जाते हैं तब यह विहार बिल्कुल सूना पड़ जाता है। भगवान के प्रवास के समय यहां जो भीड़ लगती, वह अब नहीं आती। उसकी बहुत इच्छा थी कि भगवान की अनुपस्थिति में भी लोगों की भीड़ सतत बनी रहे। इस निमित्त उस भूमि पर वह भगवान का एक मंदिर जैसा स्थान बनाना चाहता था। परंतु बहुत चाहते हुए भी ऐसा नहीं कर सका। क्योंकि जो भूमि दान दे दी, उस पर उसका कोई अधिकार नहीं था। अतः अपनी इच्छा पूरी करने के लिए वह भगवान से प्रार्थना करने गया कि उसे वहां एक मंदिर बनवाने की अनुमति दें। यदि दान दी गयी भूमि पर उसकी मल्कियत होती तो उसे भगवान से अनुमति लेने की क्या आवश्यकता थी? भगवान ने अनुमति नहीं दी। क्योंकि वे नहीं चाहते थे कि धर्म का स्थान पूजन-अर्चन और भीड़-भाड़ आदि के लिए हो। वह तो ध्यान के लिए होता है। अतः भगवान ने बोधिवृक्ष की शाखा मॅगवा कर वहां लगवायी और कहा, 'इसके बढ़ जाने पर लोग इसके नीचे बैठ कर ध्यान करेंगे। इस प्रकार इस धरती का लोगों को सही लाभ मिलेगा।

इसी प्रकार आज भी जमीन का, या उस पर केंद्र बनाने का, दान देने वाले व्यक्ति इस पुरातन परंपरा को खूब समझते रहें कि दिये हुए दान पर उनका रंचमात्र भी अधिकार नहीं हो सकता। धर्म की यह शुद्ध परंपरा कायम रहेगी तभी धर्म की सही अभिवृद्धि होती रहेगी। यहां सदैव पीढ़ी-दर-पीढ़ी धर्म का ही प्रशिक्षण दिया जाता रहेगा। केंद्र के आचार्य समय-समय पर बदलते रहेंगे, परंतु धर्म प्रशिक्षण का कार्य सतत चलता रहेगा।

विपश्यना के अनेक केंद्रों की स्थापना हो जाने पर मेरे मन में कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण विचार उठे, जिनका विपश्यना के प्रशिक्षण से कोई संबंध नहीं था। एक महत्त्वपूर्ण विचार तो यह आया कि भगवान बुद्ध की पावन शिक्षा भारत से कैसे पूर्णतया लुप्त हुई ? इसका अनुसंधान हो और भारत तथा विश्व में अब पुनः जाग्रत हुई। इस विद्या की समग्र प्रशिक्षण सामग्री सदियों तक सुरक्षित रहे। साथ ही भगवान की शिक्षा का प्रमुख साहित्य 'तिपिटक' यानी, इसका परियत्ति-पक्ष (Theoretical aspect) जो भारत से लुप्त हो चुका था, वह भी पुनः प्रकाशित हो। इसके लिए 'विपश्यना विशोधन विन्यास' के नाम से एक शोध संस्थान गठित हो। आने वाले युगों में बुद्ध की शिक्षा के पुनर्जागरण से संबंधित सारा साहित्य इसके पास सुरक्षित ही नहीं रहे, बल्कि आज और आगे भी सदियों तक इसका उपयोग और अनुसंधान भी होता रहे। इस विशोधन के लिए शोध करने वाले भिन्न-भिन्न मर्मज्ञ समय-समय पर सेवा में लगते रहेंगे। यानी, इस विशोधन-कार्य में गुरु-शिष्य परंपरा बिल्कुल नहीं रहेगी। इसीलिए जब इसका ट्रस्ट-डीड बने तब इस विशोधन संस्था के लिए मेरे द्वारा एक योग्य उत्तराधिकारी बनाने का प्रावधान रखा जाय।

मेरे मन में दूसरा विचार यह उठा कि भगवान बुद्ध की पावन धातुओं का सही सम्मान तभी होगा जब कि वे भगवान के मार्गदर्शन के अनुसार किसी भव्य स्तूप में सन्निधानित की जायेंगी। यह भव्य स्तूप भी ब्रह्मदेश की स्थापत्यकला के आधार पर ही बने। यह इसलिए कि ब्रह्मदेश ने सम्राट अशोक से प्राप्त हुई परियत्ति, यानी, बुद्ध-वाणी और पटिपत्ति, यानी, विपश्यना को गुरु-शिष्य परंपरा से पीढ़ी-दर-पीढ़ी दो हजार वर्षों तक शुद्ध रूप में कायम रखा। तभी ये दोनों हमें प्राप्त हुईं। जैसे बर्मा के लोगों ने भारत का उपकार माना, क्योंकि यहीं से उन्हें शुद्ध धर्म प्राप्त हुआ; साथ-साथ सम्राट अशोक का भी उपकार माना, जिसके प्रयास से उन्हें धर्म प्राप्त हुआ। इसी प्रकार आज भारत के लोग भी बर्मा का उपकार मानें, और साथ-साथ सयाजी ऊ बा खिन का भी उपकार मानें, जिन्होंने कि बर्मा का कर्ज चुकाने के लिए मुझे पूरी तरह से प्रशिक्षित करके भारत भेजा। इन दोनों के उपकारों की पावन स्मृतियां दीर्घकाल तक बनी रहें, इस निमित्त मेरे मन में एक भव्य स्तूप - विश्व विपश्यना पगोडा के निर्माण की योजना जागी। यह विश्वभर के बुद्धानुयायियों, विशेष करके विपश्यी साधकों को आह्वान करने के लिए एक आकर्षक प्रकाश स्तंभ होगा। इसके लिए 'ग्लोबल विपश्यना फाउंडेशन' का गठन किया जायगा और यह ध्यान रखा जायगा कि इस पगोडा की बनावट बर्मी स्थापत्य एवं वास्तुकला के अनुसार हो ताकि आज ही नहीं, भविष्य में भी लोगों को बर्मा तथा सयाजी ऊ बा खिन के उपकारों की याद आती रहे।

मेरी इस कल्पना के अनुसार पगोडा का निर्माण हुआ जिसमें भारत तथा पड़ोसी देशों के विपश्यी साधकों तथा अन्यान्य बुद्धभक्तों ने श्रद्धापूर्वक दान दिया। किसी ने भी यह सोच कर दान नहीं दिया कि मैं पगोडा का ट्रस्टी बन जाऊंगा अथवा इसका अध्यक्ष बन जाऊंगा अथवा गुरुजी के न रहने पर मालिक बन जाऊंगा। इन दानियों में मुझे एक सर्वश्रेष्ठ दान की याद आती रहती है जिसने मेरी आंखों को सजल बनाया। पगोडा के उद्घाटन समारोह में इसके मुख्य कक्ष (डोम) में दान के लिए एक छोटा-सा कलश रखा गया था। मैंने देखा कि सिर पर उठाकर घर-घर साग-सब्जी बेच कर गुजारा करने वाली डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर की अनुयायिनी एक महिला ने जब देखा कि भगवान बुद्ध के नाम पर इतना विशाल पगोडा बन रहा है, तब उसने अपनी साड़ी के पल्ले से खोल कर कुछ सिक्के निकाल कर श्रद्धापूर्वक दान-पात्र में डाले, जिनकी खनकती
आवाज ने मुझे भावविभोर बना दिया। उस गरीब महिला का दान कितना सात्त्विक और मूल्यवान था! करोड़ों का दान देने वालों के सामने अधिक सुफलदायी था । वह कुछ ऐसे दान देने वालों की भांति कैसे सोचती कि मैं कभी इस पगोडा की ट्रस्टी या अध्यक्ष बन जाऊंगी या आगे जाकर इसकी मालकिन बन जाऊंगी? बिना कुछ पाने की भावना के साथ दिया गया उस गरीब महिला का यह शुद्ध दान सचमुच इतिहास में याद रखने योग्य होगा। बिना बदले में कुछ पाने की भावना से दिया गया दान ही दान है, नहीं तो व्यवसाय है।

इस पगोडा के परिसर में भगवान बुद्ध के जीवनकाल की एक चित्र-प्रदर्शनी बनी, जिसे बनाने में बर्मा के प्रमुख कलाकार बुलाये गये। ऐसा हो जाने पर इस चित्रकला, वास्तुकला तथा पगोडा की भव्य विशेषता को कायम रखने के लिए जो ट्रस्ट-डीड बना उसमें मेरे द्वारा उत्तराधिकारी नियुक्त करने का प्रावधान रखा। इस उत्तराधिकार का एक व्यक्ति विशेष रूप से बर्मी कला तथा पगोडा की बर्मी स्थापत्यकला की देखभाल के लिए जिम्मेदार होगा और दूसरे चार विपश्यना के आचार्य होंगे जो कि विशाल ध्यानकक्ष तथा पगोडा-परिसर में कहीं कोई धर्मविरुद्ध कार्य न हो जाय, इसकी देखभाल करेंगे। अतः इस ट्रस्ट में एक की जगह पांच उत्तराधिकारी नियुक्त करके मैंने ट्रस्ट के मूल प्रावधान को आवश्यकतानुसार निभाया।

तीसरी आवश्यकता यह महसूस हुई कि इस पगोडा के रख-रखाव, अन्यान्य स्मृति-चिह्न और बर्मी वास्तुकला की मरम्मत आदि के लिए के लिए आवश्यक धन की पूर्ति हेतु 'सम्यक वाणिज्य चैरिटेबल ट्रस्ट' का गठन किया जाय। यहां भी गुरु-शिष्य परंपरा का कोई नियम नहीं होने के कारण मेरे द्वारा एक उत्तराधिकारी नियुक्त करने का प्रावधान रखा गया। यानी, विपश्यना के प्रशिक्षण केंद्रों से अलग केवल इन तीन उपरोक्त प्रतिष्ठानों में ही मेरे द्वारा उत्तराधिकारी नियुक्त करने का प्रावधान है।

ये तीनों संस्थाएं मेरे अपने स्वप्नों की उपज हैं। इन तीनों संस्थानों का गठन भिन्न-भिन्न उद्देश्यों से हुआ है। इन तीनों संस्थाओं को मेरे बाद भी चिर-काल तक स्थायी रखना आवश्यक मानता हूं। इसीलिए इन तीनों में उत्तराधिकारी नियुक्त करने का प्रावधान रखा गया है। अतः इनमें अब जो उत्तराधिकारी नियुक्त किये जायेंगे, वे अपने बाद अन्य योग्य व्यक्तियों को अपनी-अपनी जिम्मेदारी के कार्यों को करते रहने के लिए नियुक्त करेंगे; ताकि ये तीनों कार्य पीढ़ी-दर-पीढ़ी सुचारुरूप से चलते रहें।

जहां तक गुरुदेव सयाजी ऊ बा खिन द्वारा भारत का कर्ज चुकाने का प्रश्न था, उसके लिए विपश्यना केंद्रों का गठन इसी प्रकार से हुआ, जिनमें पुरातन काल से चली आ रही गुरु-शिष्य परंपरा को ही आधार बनाया गया है। क्योंकि जो लोगों को धर्म सिखाता है और उनमें धर्म जगाता है वही विपश्यना के प्रशिक्षण केंद्र का उत्तराधिकारी होता है। यहां जो भी आचार्य आज सुनिश्चित हैं या भविष्य में होंगे, वे सब उत्तराधिकारी का ही कार्य करेंगे। इसी कारण इन विपश्यना केंद्रों के गठन में किसी प्रशिक्षित आचार्य को छोड़ कर अन्य किसी को उत्तराधिकारी नहीं बनाया जा सकता। क्योंकि जितने भी विपश्यना केंद्र हैं उनके लिए तो प्रशिक्षक आचार्य उत्तराधिकारी होंगे ही, उनके बाद भी जो-जो आचार्य होंगे, वे सब गुरु-शिष्य परंपरा के आधार पर उत्तराधिकारी ही होंगे। इसी कारण इनके ट्रस्ट-डीडों में मेरे द्वारा किसी उत्तराधिकारी की नियुक्ति का वर्णन आवश्यक नहीं समझा गया। परंतु उपरोक्त तीन संस्थान जो कि विपश्यना के प्रशिक्षण के लिए नहीं हैं, उनमें मेरे द्वारा विशेष रूप से उत्तराधिकारी नियुक्त करने का प्रावधान अवश्य रखा गया।

यह बात फिर दुहरा दूं और सब को खूब समझ लेनी चाहिए कि धर्म के क्षेत्र पर किसी की मल्कियत नहीं होती -- न उत्तराधिकारियों की, न ट्रस्टियों की, न दान-दाताओं की, न शासनाधिकारियों की। सबको मात्र अपने-अपने जिम्मे का काम करने का अधिकार है। धर्म का सारा कार्य बहुत शांतिपूर्वक चलना चाहिए। किसी के मन में कोई मिथ्या संदेह हो अथवा भ्रांति हो तो मुझसे मिल कर उसे दूर कर ले । मंगल भावनाओं के साथ धर्म का कार्य चलता रहे, इसी में सबका कल्याण है।

कल्याणमित्र, 
सत्यनारायण गोयन्का

जून 2012 हिंदी विपश्यना पत्रिका में प्रकाशित
----------------------------------------------- 

🌷Who is a successor?🌷

When a father has one or more children, they are all his successors and inherit his wealth, riches and property, which they either multiply or squander. 

But this does not happen in the field of Dhamma. All the people who learned Vipassana from the Buddha and spread it became his successors. These succeeding teachers taught Vipassana to others, helped them attain proficiency in it and made them their own successors. In this way, from generation to generation, in the teacher - pupil tradition, all these successors taught Dhamma. At the time of the Emperor Ashoka, Bhikkhu Sona and Bhikkhu Uttara too became successors of the Buddha after learning Dhamma. As successors, they went to Myanmar to teach Dhamma. Apart from teaching to the general people they also trained such disciples, who as successors of the Buddha maintained the teacher - pupil tradition. 

The Buddha never appointed his son Rahula as his successor. Guru Nanakadevaji [founder of Sikhism] proclaimed his disciple Angad Deva as his successor, not his own son. A successor in Dhamma is one who, having learnt how to teach Dhamma from one's own teacher, starts teaching others. This teacher - pupil tradition has been continuing for the last 2500 years and will continue in the future also. 

I learned Vipassana meditation i.e. Pure Dhamma from Sayagyi U BA Khin and to fulfill his ardent desire, I came to India and started teaching Dhamma. While living in Rangoon, I was in close contact with him for 14 years and, on innumerable occasions, I heard him say... .

"We have received this priceless jewel from India in the form of Vipassana. But, today, India has lost it and become bankrupt. We need to repay this debt to India, but who can repay it? I will have to repay it." He was to come to India to repay this invaluable debt himself.

He wanted to come to India to revive Vipassana but in those days, Burmese citizens were issued passports for two reasons only – either to leave Burma forever or f they were offered employment abroad. Sayagyi U Ba Khin neither wanted to leave Burma forever nor wanted to pretend to have got a job in order to come to India. Thus the government did not issue him a passport and he could not come. However, I got a Burmese passport for a very special reason. My mother had become mentally ill in Bombay [Mumbai] and I was aware that if she could practice Vipassana, she would recover. I had two close friends in the Burmese cabinet who strongly supported me so I received my passport for this special reason.

Sayagyi was very happy to know this. He said, "I am unable to repay the debt to India myself, so now you have to accomplish this work on my behalf."

After attaining full expertise in Vipassana teaching under his guidance, I came to India and applied myself to fulfilling his objective. Therefore, in the sphere of Dhamma and the teacher - pupil tradition, I became a successor to Gurudeva Sayagyi U Ba Khin. After teaching Vipassana meditation to many people in India, I appointed some of them as Teachers. Those appointed became my successors in turn by teaching Vipassana to others. In this way, seeing the realisation of Sayagyi's dreams, I was relieved of the burden in my mind and the work of repaying the debt that Burma owed to India began.

After some time, Vipassana centres were gradually established not only in India, but also in many other countries of the world and they continue to get established even now. Wherever centres were established, the Teachers imparting training there are my successors. This is because they are spreading Vipassana as taught to them by me.

As Vipassana Centres got established in several far-flung places, and their number is increasing, so I decided that there should be an individual Centre Teacher as successor for each respective local Vipassana centre, and, wherever necessary, Area Teachers also be appointed to provide guidance to them, Wherever many Area Teachers are working, as per requirement there may be Regional Teachers for each of the bigger geographical region. All Centre Teachers, Area Teachers and Regional Teachers, on their appointment, shall be considered as my successors. I shall publish their names shortly. 

Becoming the successors of a centre or an area or a region, however, does not mean that they become the owners of those centres or areas or regions. All such teachers are successors only in terms of teaching vipassana.

Similarly, the trustees managing the centres do not have any right of succession either. In any of the centres they have no right to get any honour or prestigious position. All of them are Dhamma Servers and they serve the centre as per requirement. When any person donates a land for the Dhamma Centre or anyone constructs any building there, he/she does not have any ownership over the donated land or the building constructed there. Dhamma is its real owner, not the donor. For their respective donations and services they benefit by way of earning invaluable merits and that is all. 

For example, during the time of the Buddha, Anathpindika donated a piece of land to the Buddha, which he had bought by spreading gold coins on it. He constructed residential quarters on it, by investing a large sum of money. Anathpindika understood the Dhamma tradition very well that although he had bought the land and constructed residential quarters here he possessed no right over the donated land or on the buildings constructed there. Whatever was donated was given forever. The intention of expecting something in exchange is indeed very unwholesome. He was sad to observe that after the rainy season, when the Buddha along with his monks went away to the centres of other regions, the centre there became totally deserted. The crowd, which gathered during the presence of the Buddha, was no longer there. Therefore it was his strong desire that even in the absence of the Buddha, the place remained full of people. For this reason, he wanted to construct a temple of the Buddha there. But in spite of his strong desire, he could not do this, because, now he had no right over the donated land. Therefore, to fulfil his desire, he went to the Buddha and requested him to accord permission for the construction of a temple there. If he had any ownership of the donated land, then where was the need for him to seek permission from the Buddha? The Buddha did not grant him permission because he did not want that the place of Dhamma be used for offering prayers and worshipping or for gathering crowds. It is meant for meditation. Therefore the Buddha got a branch of the Bodhi tree planted and said, "People will meditate underneath it after it grows. In this way, the people will be benefited by this land in the right manner." 

Similarly, in the present time also, the individuals who donate land or money for the construction of centres should understand the very old tradition that they cannot have any right over whatever has been given as donation. The Dhamma will keep growing properly only if its pure tradition is maintained. The centre will be used forever from generation to generation for teaching vipassana and Dhamma only. The Teachers of the Centre will change from time to time, but the work of teaching Dhamma will always continue. 

After the establishment of many Vipassana centres, some important thoughts came to my mind, which had no connection at all with the teaching of Vipassana. One important thought was to know how the pure teaching of the Buddha was completely lost in India. Research should be carried out on this topic and now that Vipassana has again revived in India and in the world, the complete training material of teaching this technique should be resurrected and protected for centuries. Simultaneously, the original literature of the teachings of the Buddha called 'Tipitaka' which contains its theoretical aspect, which was lost in India should also be published again. For this purpose– 'Vipassana Research Institute' was established so that not only today but also in the coming centuries it should be preserved and be utilised for further research. Many scholars with profound knowledge in different fields will be engaged here from time to time for research work in this field. So, there will not be any teacher-pupil tradition in this research work. Therefore, when its Trust Deed is prepared, a provision be made for me to appoint a suitable person as a successor.

The second thought that came to my mind was that the pure relics of the Buddha would be rightly honoured only when they are enshrined in a pagoda as per the instructions of the Buddha. Also, this pagoda should be constructed in accordance with the architectural traditions of Myanmar. This is because Myanmar preserved the Pariyatti [the Buddha's teachings] and Patipatti [Vipassana] received from the Emperor Ashoka in pristine purity through the teacher -pupil tradition for two thousand years. For just that reason we could receive both. Just as the people of Myanmar feel grateful to India for receiving the pure Dhamma and also feel grateful to the Emperor Asoka for having received the Dhamma owing to his efforts, in the same way now, people of India should have a feeling of gratitude towards Myanmar and also towards Sayagyi U BA Khin, who, after training me consummately, sent me to India to repay the debt owed by Burma. With a volition that sacred memories of gratitude towards these two are preserved for a long period of time in the future, a thought to construct a magnificent pagoda called "Global Vipassana Pagoda" arose in my mind. This monument shall be an attractive lighthouse to beckon the world-wide followers of the Buddha in general and all the Vipassana meditators in particular. For this purpose, the 'Global Vipassana Foundation' was formed to ensure that the design and structure of the Pagoda are patterned after the Burmese architecture so as to reinforce the memories of gratitude towards the people of Myanmar and Sayagyi U Ba Khin not only in the present but also in the future. 

The Global Vipassana Pagoda was built in accordance with my conception of it. For constructing it donations were given by grateful Vipassana meditators in India & neighbouring countries as also by numerous other devoted followers of the Buddha. None of them gave donations with a view to becoming a trustee or a president or becoming an owner of the Pagoda when I am no more. Of all the people who donated for this Pagoda, I particularly cherish most the memory of one whose generosity made my eyes wet. On the day of the inauguration ceremony of the Pagoda a small donation box was kept in the main dome. I saw a woman, a follower of Dr. Babasaheb Ambedkar who earned her living by selling vegetables from door to door becoming so sentimental to see such a huge Pagoda constructed in the name of the Buddha that she took out some coins from the folds of her saree and put them in the donation box. The tinkling sound of the coins touched my heart. How pure and priceless was her donation! It was more beneficial than the donation given by a very rich man How could she expect like others that in return she could become a trustee or an office bearer or an owner of this Pagoda in future! The pure donation of this poor woman without any expectation in return is indeed a memorable event of historical importance.Giving without expecting anything in return is in fact true donation, otherwise it is a trade.

In the premises of the Pagoda, an Art Gallery depicting the life of the Buddha was made for which prominent artists from Myanmar were invited. After this was accomplished, the Trust Deed that was prepared had a provision for me to appoint successors for preserving these paintings, architecture and magnificent features of the Pagoda. One of these successors will be specifically responsible for looking after the Burmese art and architecture of the Pagoda and four others will be Teachers of Vipassana who will ensure that no anti-Dhamma activities take place in the large meditation hall and on the Pagoda premises. Thus, by appointing five successors instead of one in this trust, I have acted in accordance with the fundamental provisions of the Trust as per its need.

Thirdly, a need was felt for making available necessary funds for the maintenance and upkeep of the Pagoda & repairs of Mementos and Burmese architectures and therefore 'Samyak Vanijya Charitable Trust' was constituted. Here also, as the teacher - pupil tradition is not relevant, a provision for the appointment of one successor by me has been made.

In other words, only in the aforesaid three institutions there is a provision for me to appoint successors and not in training centres of Vipassana 

All these three institutions are the products of my dreams. They have been established for different purposes. I consider it necessary to maintain them long after me, for posterity. Therefore, a provision has been made in their trust deeds for me to appoint successors in them. Therefore, the successors who will now be appointed by me will appoint other competent persons after them so that these three continue to function satisfactorily and smoothly from generation to generation.

As far as the question of repaying the debt to India was concerned, Vipassana centres have been constituted after the teacher - pupil tradition, which has been prevalent since ancient times. In this tradition, the person who teaches Dhamma and helps it arise in others, is the right successor of the Vipassana Training Centre. The Teachers, who have been appointed today or will be appointed in future will work as successors. For this reason, in the constitution of these Vipassana centres, it is mentioned that no other person can be appointed as successor other than the trained teachers. In all the Vipassana centres, only the trained teachers will be successors and in future they will appoint their successors in accordance with the ancient teacher - pupil tradition. For this reason, there is no provision made for me to appoint successors in the Trust Deeds of these centres. But, in the trust deeds of the three institutions mentioned above a special provision has been made for me to appoint successors because they are not vipassana training centres.

I reiterate and everyone should understand clearly that there is no ownership of anybody in the field of Dhamma; neither of successors, nor of trustees, nor of donors, nor of administrators. Everyone only has the right to perform one's share of duties and take care of the responsibilities. 

All activities of Dhamma should be carried out peacefully. If one has any doubt or confusion he should meet me and discuss with me to remove it. May Dhamma activities go on with goodwill and happiness! This will be for the good and happiness of all.

Kalyanmitra,
       - Satyanaryana Goenka.

 https://www.vridhamma.org/node/2020

http://www.vridhamma.org/

https://www.dhamma.org/en/courses/search

कैंसर में समता का प्रभाव

🌹 कैंसर में समता का प्रभाव
सन 1995 में एक साधिका के थायराइड कैंसर के दो ऑपरेशन किए गए, ठीक हो गई पर भय मुक्त नहीं हो पा रही थी, क्योंकि सुन रखा था कि यह रोग हो गया तो बार-बार उभरते रहता है ,कहीं वापस हो गया तो क्या होगा, उस समय पूज्य गुरु जी ने उसे जो मार्गदर्शन दिया उनका पालन करके विपश्यना की यह आचार्य आज भी लोगों को धर्म दान दे रही हैं। उस बातचीत को उसके पति ने रिकॉर्ड किया था और टंकी त करवाकर भिजवाया है जिसे साधकों के लाभार्थ यहां प्रश्न उत्तर के रूप में प्रकाशित कर रहे हैं।
🌷 साधिका- मेरा दो बार कैंसर का ऑपरेशन हुआ है गुरुजी?
पूज्य गुरु जी -बेटी कैंसर हो गया तो क्या हुआ ।उसका सामना करना है।
साधिका - गुरु जी ,बहुत डर लग रहा है मैं जानती हूं कि ऐसा नहीं करना चाहिए?
गुरुजी- क्योंकि अंदर से समझ नहीं आई।अंदर से समझने के लिए जब भी चिंता आए ,भय आए  तब उस समय देख 'अच्छा मेरे मन में भय आया है 'अब देखें क्या संवेदना है? उस वक्त कहीं भी शरीर में जो संवेदना हुई वह भय के साथ जुड़ी हुई है, उस संवेदना को देखना है। यद्यपि मन का एक हिस्सा भय में लिप्त हो रहा है, न जाने क्या हो जाएगा क्या हो जाएगा, परंतु मन का एक हिस्सा उस संवेदना को देख रहा है ,भले 5% ही हो बाकी 95% रोल कर रहा है ।लेकिन वह 5% इतना बलवान है कि जड़े काट देगा। और यदि 100% रोल करेगा तब तो बढ़ेगा ही ना।
 विपस्सना से हमें इतना तो सीखना होता है कि हम अपने मानस का एक हिस्सा ऐसा बलवान बनाएं जो साक्षी भाव से देख रहा है ।अच्छा भाई हमें यह रोग है,और इस रोग का न जाने क्या परिणाम होगा ,इस चिंता को भी देख रहे हैं।यह चिंता आई तो उस समय संवेदना क्या है। संवेदना भी देख रहे हैं और यह चिंता है इसे भी देख रहे हैं ।यह संवेदना है, यह चिंता है, हम उसे बार-बार देखते हैं, यह भी जानते हैं कि संवेदना तो बदलती रहने वाली है ,सदा रहने वाली नहीं है। चिंता भी बदलने वाली है , देखते गए तो उसकी ताकत कम होते होते सारी चिंता निकल जाती है। यही तरीका है ,ऐसा नहीं हो और हम केवल बुद्धि से समझते रहे कि हमें चिंता नहीं करनी चाहिए तो ऐसा तो सारी दुनिया कहती है और करती है ,तब विपस्सना करने में और दुनिया के कहने में क्या फर्क हुआ।
🌹 साधिका- वही हो रहा है गुरु जी
गुरुजी- तो इसको समझना चाहिए ना बेटी ,हमें तो बताया गया कि तुम्हें रोग हो गया था वह निकल गया अब क्यों चिंता करती हो। चिंता के बाहर निकलने के लिए विपश्यना कि इतनी बड़ी विद्या मिली है ,जब ऐसा होने लगे तब देखो कि इस समय क्या संवेदना है।
 संवेदना तो 24 घंटे होगी ऐसा हो नहीं सकता कि संवेदना नही हो, यह भी जरूरी नहीं कि सिर से पांव तक जाओ ,जहां संवेदना हुई साफ-साफ मालूम हुआ उसको देख रहे हैं ,अच्छा यह अनित्य है, चिंता का विषय आया यह भी अनित्य है ,जैसी भी हो कुछ लेनदेन नहीं ।
क्योंकि मन और शरीर का इतना बड़ा संबंध है उस वक्त मन में कोई बात जोर से उठी है वह शरीर में संवेदना के साथ जुड़ जाएगी ,शरीर में जो संवेदना है वह मन के साथ जुड़ी हुई है। उस समय मन में जो घटना घट रही है वह शरीर के साथ जुड़ गई और उसको हम देख नहीं सकते इतनी ताकत अभी आई नहीं कि हम चिंता को चिंता की तरह देख सके कि देख यह चिंता है। नहीं देख सकते क्योंकि आसान बात नहीं। ऐसे ही भय है, हम उसे नहीं देख पाते। तो भय  है इसे स्वीकार कर लिया और 95% हमारा मन उसमें में रोल कर रहा है लेकिन 5% मन ऐसा है जो संवेदना को देखेगा, भले थोड़ी देर सही । यों देखते रहो संवेदना को और यह भी देखते रहो कि यह अनित्य है। जो भय आया है यह भी अनित्य है। अब देखेंगे कितनी देर रहता है। यों उसकी ताकत कम होते होते निकल जायेगा।
बहुत बार स्पष्ट दिखता है कि हम पर संकट आने वाला है ।बाहर कोई घटना ऐसी घटने वाली है जिससे हमारी कोई चीज नष्ट होने वाली है। भय जागा, न जाने क्या हो जाएगा? वह घटना तो पीछे घटेगी, मन में घबराहट पहले आ गई। ऐसे में हम जो बीज डालेंगे, बीज डालते ही एक तरह की संवेदना होगी। बीज का फल भी पीछे आएगा पर संवेदना पहले होगी ।फिर फल आएगा ।यह प्रकृति का नियम है ।बीज भी संवेदना के साथ, फल भी संवेदना के साथ। तो जब संवेदना आयी, फल आने में अभी देर है, परंतु संवेदना आ गई और हमने उसे देखना शुरू कर दिया तो उसकी ताकत कम होते होते वह फल आएगा भी तो फूल की छड़ी की तरह हल्का होकर आएगा। उसकी ताकत कम हो गई। यों समता से देख कर उसकी ताकत कम कर दी। आम आदमी क्या करता है, उस बेचारे को होश नहीं है तो जैसे हम कर रहे थे, चिंता ही करता है- हमारा क्या हो जाएगा, हमारा क्या हो जाएगा? उसका जो फल आने वाला है उसको और मजबूत बना देगा, बढ़ा देगा उसको बढ़ाने का काम कर रहे हो भाई ।भला चाहते हुए भी बुरा कर रहे हैं ,उल्टी बात हो गई ना।       क्रमश.........

Sunday, June 27, 2021

डिप्रेशन

🌹
प्रश्न: गुरुजी मुझे डिप्रेशन है और मै हमेशा व्याकुल रहती हूं।मुझे क्या करना चाहिए?
उत्तर: विपश्यना डिप्रेशन का अपूर्व इलाज है।
किसी शिविर में शामिल होकर अपने शरीर पर होने वाली संवेदनाओं को समता भाव से अनुभव करना सीख लो।डिप्रेशन दूर करने की औषधि मिल जाएगी।
जब डिप्रेशन आए तो स्वीकार करो कि मेरे मन में डिप्रेशन है।और अवश्य ही मनोचिकित्सक के मार्गदर्शन में रहो।यह बहुत जरूरी होता है।
साथ साथ किस बात को लेकर डिप्रेशन है उसे दूर करके केवल डिप्रेशन को स्वीकार करते हुए उस समय जो भी शारीरिक संवेदना महसूस हो रही है उन्हे तटस्थ भाव से देखने लगें,तो इस डिप्रेशन और उससे संबंधित संवेदनाओं को अनित्य भाव पर आधारित समता से देखते देखते डिप्रेशन दुर्बल होता जाएगा,और समय पाकर समाप्त हो जाएगा।
परंतु इस विद्या को किसी दस दिन के शिविर में भलीभांति सीख कर ही इसका प्रयोग करना चाहिए।
एक बात का ख्याल रखना चाहिए कि डिप्रेशन जैसे दर्दों में मनोचिकित्सक की सलाह और मार्गदर्शन अवश्य ही लेना चाहिए।

Thursday, March 18, 2021

English Discourse - Day 11

*English Discourse - Day 11*

Working one day after the other, we have come to the closing day of this Dhamma seminar. When you started the work, you were asked to surrender completely to the technique and discipline of the course. Without this surrender, you could not have given a fair trial to the technique. Now ten days are over; you are your own master. When you return to your home, you will review calmly what you have done here. If you find that what you have learned here is practical, logical, and beneficial to yourself and to all others, then you should accept it—not because someone has asked you to do so, but with a free will, of your own accord; not just for ten days, but for your whole life.

The acceptance must be not merely at the intellectual or emotional level. One has to accept Dhamma at the actual level by applying it, making it a part of one’s life, because only the actual practice of Dhamma will give tangible benefits in daily life.

You joined this course to learn how to practice Dhamma—how to live a life of morality, of mastery over one’s mind, of purity of mind. Every evening, Dhamma talks were given merely to clarify the practice. It is necessary to understand what one is doing and why, so that one will not become confused or work in a wrong way. However, in the explanation of the practice, certain aspects of the theory inevitably were mentioned, and since different people from different backgrounds come to a course, it is quite possible that some may have found part of the theory unacceptable. If so, never mind, leave it aside. More important is the practice of Dhamma. No one can object to living a life that does not harm others, to developing control of one’s mind, to freeing the mind of defilements and generating love and good will. The practice is universally acceptable, and this is the most significant aspect of Dhamma, because whatever benefit one gets will be not from theories but from practice, from applying Dhamma in one’s life.

In ten days one can get only a rough outline of the technique; one cannot expect to become perfect in it so quickly. But even this brief experience should not be undervalued: you have taken the first step, a very important step, although the journey is long—indeed, it is a lifetime job.

A seed of Dhamma has been sown, and has started sprouting into a plant. A good gardener takes special care of a young plant, and because of the service given it, that little plant gradually grows into a huge tree with thick trunk and deep roots. Then, instead of requiring service, it keeps giving, serving, for the rest of its life.

This little plant of Dhamma requires service now. Protect it from the criticism of others by making a distinction between the theory, to which some might object, and the practice, which is acceptable to all. Don’t allow such criticism to stop your practice. Meditate one hour in the morning and one hour in the evening. This regular, daily practice is essential. At first it may seem a heavy burden to devote two hours a day to meditation, but you will soon find that much time will be saved that was wasted in the past. Firstly, you will need less time for sleep. Secondly, you will be able to complete your work more quickly, because your capacity for work will increase. When a problem arises you will remain balanced, and will be able immediately to find the correct solution. As you become established in the technique, you will find that having meditated in the morning, you are full of energy throughout the day, without any agitation.

When you go to bed at night, for five minutes be aware of sensations anywhere in the body before you fall asleep. Next morning, as soon as you wake up, again observe sensations within for five minutes. These few minutes of meditation immediately before falling asleep and after waking up will prove very helpful.

If you live in an area where there are other Vipassana meditators, once a week meditate together for an hour. And once a year, a ten-day retreat is a must. Daily practice will enable you to maintain what you have achieved here, but a retreat is essential in order to go deeper; there is still a long way to go. If you can come to an organized course like this, very good. If not, you can still have a retreat by yourself. Do a self-course for ten days, wherever you can be secluded from others, and where someone can prepare your meals for you. You know the technique, the timetable, the discipline; you have to impose all that on yourself now. If you wish to inform your teacher in advance that you are starting a self course, I shall remember you and send my mettā, vibrations of good will; this will help to establish a healthy atmosphere in which you can work better. However, if you have not informed your teacher, you should not feel weak. Dhamma itself will protect you. Gradually you must reach a stage of self-dependence. The teacher is only a guide; you have to be your own master. Depending on anyone, all the time, is no liberation.

Daily meditation of two hours and yearly retreats of ten days are only the minimum necessary to maintain the practice. If you have more free time, you should use it for meditation. You may do short courses of a week, or a few days, even one day. In such short courses, devote the first one third of your time to the practice of anapana, and the rest to Vipassana.

In your daily meditation, use most of the time for the practice of Vipassana. Only if your mind is agitated or dull, if for any reason it is difficult to observe sensations and maintain equanimity, then practice Anapana for as long as necessary.

When practicing Vipassana, be careful not to play the game of sensations, becoming elated with pleasant ones and depressed with unpleasant ones. Observe every sensation objectively. Keep moving your attention systematically throughout the body, not allowing it to remain on one part for long periods. A maximum of two minutes is enough in any part, or up to five minutes in rare cases, but never more than that. Keep the attention moving to maintain awareness of sensation in every part of the body. If the practice starts to become mechanical, change the way in which you move your attention. In every situation remain aware and equanimous, and you will experience the wonderful benefits of Vipassana.

In active life as well you must apply the technique, not only when you sit with eyes closed. When you are working, all attention should be on your work; consider it as your meditation at this time. But if there is spare time, even for five or ten minutes, spend it in awareness of sensations; when you start work again, you will feel refreshed. Be careful, however, that when you meditate in public, in the presence of non-meditators, you keep your eyes open; never make a show of the practice of Dhamma.

If you practice Vipassana properly, a change must come for better in your life. You should check your progress on the path by checking your conduct in daily situations, in your behavior and dealings with other people. Instead of harming others, have you started helping them? When unwanted situations occur, do you remain balanced? If negativity starts in the mind, how quickly are you aware of it? How quickly are you aware of the sensations that arise along with the negativity? How quickly do you start observing the sensations? How quickly do you regain a mental balance, and start generating love and compassion? In this way examine yourself, and keep progressing on the path.

Whatever you have attained here, not only preserve it, but make it grow. Keep applying Dhamma in your life. Enjoy all the benefits of this technique, and live a happy, peaceful, harmonious life, good for you and for all others.

One word of warning: you are welcome to tell others what you have learned here; there is never any secrecy in Dhamma. But at this stage, do not try to teach the technique. Before doing that, one must be ripened in the practice, and must be trained to teach. Otherwise there is the danger of harming others instead of helping them. If someone you have told about Vipassana wishes to practice it, encourage that person to join an organized course like this, led by a proper guide. For now, keep working to establish yourself in Dhamma. Keep growing in Dhamma, and you will find that by the example of your life, you automatically attract others to the path.

May Dhamma spread around the world, for the good and benefit of many.

May all beings be happy, be peaceful, be liberated!

Monday, March 15, 2021

जीवन जीने की कला – विपश्यना साधना

💐 जीवन जीने की कला – विपश्यना साधना.

(बर्न, स्विटज़रलैंड में श्री सत्य नारायण गोयन्का द्वारा दिए गये प्रवचन पर आधारित।)

सभी सुख एवं शांति चाहते हैं, क्यों कि हमारे जीवन में सही सुख एवं शांति नहीं है। 
हम सभी समय समय पर द्वेष, दौर्मनस्य, क्रोध, भय, ईर्ष्या आदि के कारण दुखी होते हैं। और जब हम दुखी होते हैं तब यह दुख अपने तक ही सीमित नहीं रखते। हम औरों को भी दुखी बनाते हैं। जब कोई व्यक्ति दुखी होता है तो आसपास के सारे वातावरण को अप्रसन्न बना देता है, और उसके संपर्क में आने वाले लोगों पर इसका असर होता है। 

सचमुच, यह जीवन जीने का उचित तरिका नहीं है।

हमें चाहिए कि हम भी शांतिपूर्वक जीवन जीएं और औरों के लिए भी शांति का ही निर्माण करें। 

आखिर हम सामाजिक प्राणि हैं, हमें समाज में रहना पडता हैं और समाज के अन्य व्यक्तियों के साथ पारस्पारिक संबंध रखना है। ऐसी स्थिति में हम शांतिपूर्वक जीवन कैसे जी सकते हैं? कैसे हम अपने भीतर सुख एवं शांति का जीवन जीएं, और कैसे हमारे आसपास भी शांति एवं सौमनस्यता का वातावरण बनाए, ताकि समाज के अन्य लोग भी सुख एवं शांति का जीवन जी सके?

हमारे दुख को दूर करने के लिए पहले हम यह जान लें कि हम अशांत और बेचैन क्यों हो जाते हैं। 

गहराई से ध्यान देने पर साफ मालूम होगा कि जब हमारा मन विकारों से विकृत हो उठता है तब वह अशांत हो जाता है। हमारे मन में विकार भी हो और हम सुख एवं सौमनस्यता का अनुभव करें, यह संभव नहीं है।

ये विकार क्यों आते है, कैसे आते है? 

फिर गहराई से ध्यान देने पर साफ मालूम होगा कि जब कोई व्यक्ति हमारे मनचाहा व्यवहार नहीं करता उसके अथवा किसी अनचाही घटना के प्रतिक्रियास्वरूप आते हैं। अनचाही घटना घटती है और हम भीतर तणावग्रस्त हो जाते हैं। मनचाही के न होने पर, मनचाही के होने में कोई बाधा आ जाए तो हम तणावग्रस्त होते हैं। हम भीतर गांठे बांधने लगते है। 

जीवन भर अनचाही घटनाएं होती रहती हैं, मनाचाही कभी होती है, कभी नहीं होती है, और जीवन भर हम प्रतिक्रिया करते रहते हैं, गांठे बांधते रहते हैं। हमारा पूरा शरीर एवं मानस इतना विकारों से, इतना तणाव से भर जाता है कि हम दुखी हो जाते हैं।इस दुख से बचने का एक उपाय यह कि जीवन में कोई अनचाही होने ही न दें, सब कुछ मनचाहा ही हों। या तो हम ऐसी शक्ति जगाए, या और कोई हमारे मददकर्ता के पास ऐसी ताकद होनी चाहिए कि अनचाही होने न दें और सारी मनचाही पूरी हो। लेकिन यह असंभव है। 

विश्व में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है जिसकी सारी ईच्छाएं पूरी होती है, जिसके जीवन में मनचाही ही मनचाही होती है, और अनचाही कभीभी नहीं होती। जीवन में अनचाही होती ही है। 

ऐसे में प्रश्न उठता है, कैसे हम विषम परिस्थितियों के पैदा होने पर अंधप्रतिक्रिया न दें? 

कैसे हम तणावग्रस्त न होकर अपने मन को शांत व संतुलित रख सकें?

भारत एवं भारत के बाहर भी कई ऐसे संत पुरुष हुए जिन्होंने इस समस्या के, मानवी जीवन के दुख की समस्या के, समाधान की खोज की। 

उन्होंने उपाय बताया- जब कोई अनचाही के होने पर मन में क्रोध, भय अथवा कोई अन्य विकार की प्रतिक्रिया आरंभ हो तो जितना जल्द हो सके उतना जल्द अपने मन को किसी और काम में लगा दो। उदाहरण के तौर पर, उठो, एक गिलास पानी लो और पानी पीना शुरू कर दो—आपका गुस्सा बढेगा नहीं, कम हो जायेगा। अथवा गिनती गिननी शुरू कर दो—एक, दो, तीन, चार। अथवा कोई शब्द या मंत्र या जप या जिसके प्रति तुम्हारे मन में श्रद्धा है ऐसे किसी देवता का या संत पुरुष का नाम जपना शुरू कर दो। मन किसी और काम में लग जाएगा और कुछ हद तक तुम विकारों से, क्रोध से मुक्त हो जाओगे।इससे मदद हुई। यह उपाय काम आया। आजभी काम आता है। 

ऐसे लगता है कि मन व्याकुलता से मुक्त हुआ। 

लेकिन यह उपाय केवल मानस के उपरी सतह पर ही काम करता है। वस्तुत: हमने विकारों को अंतर्मन की गहराईयों में दबा दिया, जहां उनका प्रजनन एवं संवर्धन चलता रहा। 

मानस के उपर शांति एवं सौमनस्यता का एक लेप लग गया लेकिन मानस की गहराईयों में दबे हुए विकारों का सुप्त ज्वालामुखी वैसा ही रहा, जो समया पाकर फूट पडेगा ही।

भीतर के सत्य की खोज करने वाले कुछ वैज्ञानिकों ने इसके आगे खोज की। 

अपने मन एवं शरीर के सच्चाई का भीतर अनुभव किया। उन्होंने देखा कि मन को और काम में लगाना यानी समस्या से दूर भागना है। 

पलायन सही उपाय नहीं है, समस्या का सामना करना चाहिए। 

मन में जब विकार जागेगा, तब उसे देखो, उसका सामना करो। जैसे ही आप विकार को देखना शुरू कर दोगे, वह क्षीण होता जाएगा और धीरे धीरे उसका क्षय हो जाएगा।यह अच्छा उपाय है। दमन एवं खुली छूट की दोनो अतियों को टालता है। विकारों को अंतर्मन की गहराईयों में दबाने से उनका निर्मूलन नहीं होगा। और विकारों को अकुशल शारीरिक एवं वाचिक कर्मों द्वारा खुली छूट देना समस्याओं को और बढाना है। 

लेकिन अगर आप केवल देखते रहोगे, तो विकारों का क्षय हो जाएगा और आपको उससे छुटकारा मिलेगा।

कहना तो बड़ा आसान है, लेकिन करना बड़ा कठिन। 

अपने विकारों का सामना करना आसान नहीं है। 

जब क्रोध जागता है, तब इस तरह सिर पर सवार हो जाता है कि हमें पता भी नहीं चलता। क्रोध से अभिभूत होकर हम ऐसे शारीरिक एवं वाचिक काम कर जाते हैं जिससे हमारी भी हानि होती है, औरों की भी। जब क्रोध चला जाता है, तब हम रोते हैं और पछतावा करते हैं, इस या उस व्यक्ति से या भगवान से क्षमायाचना करते हैं— हमसे भूल हो गयी, हमें माफ कर दो। 

लेकिन जब फिर वैसी ही स्थिति का सामना करना पड़ता है तो हम वैसे ही प्रतिक्रिया करते हैं।

 बार-बार पश्चाताप करने से कुछ लाभ नहीं होता।

हमारी कठिनाई यह है कि जब विकार जागता है तब हम होश खो बैठते हैं। विकार का प्रजनन मानस की तलस्पर्शी गहराईयों में होता है और जब तक वह उपरी सतह तक पहुंचता है तो इतना बलवान हो जाता है कि हमपर अभिभूत हो जाता है। हम उसको देख नहीं पाते।

तो कोई प्राईवेट सेक्रेटरी साथ रख लिया जो हमें याद दिलाये, देख मालिक, तुझ में क्रोध आ गया है, तू क्रोध को देख। क्यों कि क्रोध दिन के चौबीस घंटों में कभी भी आ सकता है इसलिए तीन प्राईवेट सेक्रेटरीज् को नौकरी में रख लूं। समझ लो, रख लिए। क्रोध आया और सेक्रेटरी कहता है, देख मालिक, क्रोध आया। तो पहला काम यह करूंगा कि उसे डांट दूंगा। मूर्ख कहीं का, मुझको सिखाता है? मैं क्रोध से इतना अभिभूत हो जाता हूं कि यह सलाह कुछ काम नहीं आती।मान लो मुझे होश आया और मैं ने उसे नहीं डांटा। मैं कहता हूं—बड़ा अच्छा कहा तूने. अब मैं क्रोध का ही दर्शन करूंगा, उसके प्रति साक्षीभाव रखूंगा। 

क्या यह संभव है ? 

जब आंख बंद कर क्रोध देखने का प्रयास करूंगा तब जिस बात को लेकर क्रोध जागा, बार-बार वही बात, वही व्यक्ती, वह ही घटना मन में आयेगी। मैं क्रोध को नहीं, क्रोध के आलंबन को देख रहा हूं। इससे क्रोध और भी ज़ादा बढेगा। यह कोई उपाय नहीं हुआ। आलंबन को काटकर केवल विकार को देखना बिल्कुल आसान नहीं होता।

लेकिन कोई व्यक्ति परम मुक्त अवस्था तक पहुंच जाता है, तो सही उपाय बताता है।

 ऐसा व्यक्ति खोज निकालता है कि जब भी मन में कोई विकार जागे तो शरीर पर दो घटनाएं उसी वक्त शुरू हो जाती हैं। 

1) सांस अपनी नैसर्गिक गति खो देता है। जैसे मन में विकार जागे, सांस तेज एवं अनियमित हो जाता है। यह देखना बड़ा आसान है। 

2)  सूक्ष्म स्तर पर शरीर में एक जीवरासायनिक प्रक्रिया शुरू हो जाती है जिसके परिणामस्वरूप संवेदनाओं का निर्माण होता है। हर विकार शरीर पर कोई न कोई संवेदना निर्माण करता है।यह प्रायोगिक उपाय हुआ। 

एक सामान्य व्यक्ति अमूर्त विकारों को नहीं देख सकता—अमूर्त भय, अमूर्त क्रोध, अमूर्त वासना आदि। लेकिन उचित प्रशिक्षण एवं प्रयास करेगा तो आसानी से सांस एवं शरीर पर होने वाली संवेदनाओं को देख सकता है। दोनों का ही मन के विकारों से सीधा संबंध है।सांस एवं संवेदनाएं दो तरह से मदत करेगी। 

एक, वे प्राईवेट सेक्रेटरी का काम करेंगी। जैसे ही मन में कोई विकार जागा, सांस अपनी स्वाभाविकता खो देगा, वह हमे बतायेगा—देख, कुछ गडबड है! और हम सांस को डांट भी नहीं सकते। हमें उसकी चेतावनी को मानना होगा। ऐसे ही संवेदनाएं हमें बतायेगी कि कुछ गलत हो रहा है। दोन, चेतावनी मिलने के बाद हम सांस एवं संवेदनाओं को देख सकते है। ऐसा करने पर शीघ्र ही हम देखेंगे कि विकार दूर होने लगा।

यह शरीर और मन का परस्पर संबंध एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।

 एक तरफ मन में जागने वाले विचार एवं विकार हैं और दूसरी तरफ सांस एवं शरीर पर होने वाली संवेदनाएं हैं। 

मन में कोई भी विचार या विकार जागता है तो तत्क्षण सांस एवं संवेदनाओं को प्रभावित करता ही है।

 इस प्रकार, सांस एवं संवेदनाओं को देख कर हम विकारों को देख रहे हैं। पलायन नहीं कर रहे, विकारों के आमुख होकर सच्चाई का सामना कर रहे हैं। 

शीघ्र ही हम देखेंगे कि ऐसा करने पर विकारों की ताकत कम होने लगी, पहले जैसे वे हमपर अभिभूत नहीं होते। 

हम अभ्यास करते रहें तो उनका सर्वथा निर्मूलन हो जाएगा।

 विकारों से मुक्त होते होते हम सुख एवं शांति का जीवन जीने लग जाएंगे।

इस प्रकार आत्मनिरिक्षण की यह विद्या हमें भीतर और बाहर दोनो सच्चाईयों से अवगत कराती है।

 पहले हम केवल बहिर्मुखी रहते थे और भीतर की सच्चाई को नहीं जान पाते थे। अपने दुख का कारण हमेशा बाहर ढूंढते थे। बाहर की परिस्थितियों को कारण मानकर उन्हें बदलने का प्रयत्न करते थे। 

भीतर की सच्चाई के बारे में अज्ञान के कारण हम यह नहीं समझ पाते थे कि हमारे दुख का कारण भीतर है, वह है सुखद एवं दुखद संवेदनाओं के प्रति अंध प्रतिक्रिया।

अब, अभ्यास के कारण, हम सिक्के का दूसरा पहलू देख सकते हैं। हम सांस को भी जान सकते है और भीतर क्या हो रहा उसको भी। सांस हो या संवेदना, हम उसे मानसिक संतुलन खोये बिना देख सकते हैं। प्रतिक्रिया बंद होती है तो दुख का संवर्धन नहीं होता। उसके बजाय, विकार उभर कर आते हैं और उनकी निर्जरा होती है, क्षय होता है।

जैसे जैसे हम इस विद्या में पकते चले जांय, विकार शीघ्रता के साथ क्षय होने लगते हैं। धीरे धीरे मन विकारों से मुक्त होता है, शुद्ध होता है। 

शुद्ध चित्त हमेशा प्यार से भरा रहता है—सबके प्रति मंगल मैत्री, औरों के अभाव एवं दुखों के प्रति करुणा, औरों के यश एवं सुख के प्रति मुदिता एवं हर स्थिति में समता।जब कोई उस अवस्था पर पहुंचता है तो पूरा जीवन बदल जाता है। 

शरीर एवं वाणी के स्तर पर कोई ऐसा काम कर नहीं पायेगा जिससे की औरों की सुख-शांति भंग हो। उसके बजाय, संतुलित मन शांत हो जाता है और अपने आसपास सुख-शांति का वातावरण निर्माण करता है। अन्य लोग इससे प्रभावित होते हैं, उनकी मदत होने लगती है।जब हम भीतर अनुभव हो रही हर स्थिति में मन संतुलित रखते हैं, तब किसी भी बाह्य परिस्थिति का सामना करते हुए तटस्थ भाव बना रहता है। 

यह तटस्थ भाव पलायनवाद नहीं है, ना यह दुनिया की समस्याओं के प्रति उदासीनता या बेपरवाही है। 

विपश्यना (Vipassana) का नियमित अभ्यास करने वाले औरों के दुखों के प्रति अधिक संवेदनशील होते हैं, एवं उनके दुखों को हटाने के लिए बिना व्याकुल हुए मैत्री, करुणा एवं समता भरे चित्त के साथ हर प्रकार प्रयत्नशील होते हैं। उनमें पवित्र तटस्थता आ जाती हैं—मन का संतुलन खोये बिना कैसे पूर्ण रूप से औरों की मदत के लिए वचनबद्ध होना। इस प्रकार औरों के सुख-शांति के लिए प्रयत्नशील होकर वे स्वयं सुखी एवं शांत रहते हैं।

भगवान बुद्ध ने यही सिखाया—जीवन जीने की कला। 

उन्होंने किसी संप्रदाय की स्थापना नहीं की। उन्होंने अपने शिष्यों को मिथ्या कर्म-कांड नहीं सिखाये। बल्कि, उन्होंने भीतर की नैसर्गिक सच्चाई को देखना सिखाया। हम अज्ञानवश प्रतिक्रिया करते रहते हैं, अपनी हानि करते हैं औरों की भी हानि करते हैं। जब सच्चाई को जैसी-है-वैसी देखने की प्रज्ञा जागृत होती है तो यह अंध प्रतिक्रिया का स्वभाव दूर होता है। तब हम सही क्रिया करते हैं—ऐसा काम जिसका उगम सच्चाई को देखने और समझने वाले संतुलित चित्त में होता है। ऐसा काम सकारात्मक एवं सृजनात्मक होता है, आत्महितकारी एवं परहितकारी।आवश्यक है, खुद को जानना, जो कि हर संत पुरुष की शिक्षा है। केवल कल्पना, विचार या अनुमान के बौद्धिक स्तर पर नहीं, भावुक होकर या भक्तिभाव के कारण नहीं, जो सुना या पढा उसके प्रति अंधमान्यता के कारण नहीं। ऐसा ज्ञान किसी काम का नहीं है। हमें सच्चाई को अनुभव के स्तर पर जानना चाहिए। शरीर एवं मन के परस्पर संबंध का प्रत्यक्ष अनुभव होना चाहिए। इसी से हम दुख से मुक्ति पा सकते हैं।अपने बारे में इस क्षण का जो सत्य है, जैसा भी है उसे ठीक वैसा ही, उसके सही स्वभाव में देखना समझना, यही विपश्यना है। 

भगवान बुद्ध के समय की भारत की जनभाषा में पस्सना (पश्यना / passana) कहते थे देखने को, यह जो खुली आंखों से सामान्य देखना होता है उसको। लेकिन विपस्सना (विपश्यना) का अर्थ है जो चीज जैसी है उसे वैसी उसके सही रूप में देखना, ना कि केवल जैसा उपर उपर से प्रतित होता है। भासमान सत्य के परे जाकर समग्र शरीर एवं मन के बारे में परमार्थ सत्य को जानना आवश्यक है। 

जब हम उस सच्चाई का अनुभव करते हैं तब हमारा अंध प्रतिक्रिया करने का स्वभाव बदल जाता है, विकारों का प्रजनन बंद होता है, और अपने आप पुराने विकारों का निर्मूलन होता है। हम दुखों से छुटकारा पाते हैं एवं सही सुख का अनुभव करने लगते हैं।

विपश्यना साधना के शिविर में दिए जाने वाले प्रशिक्षण के तीन सोपान हैं। 

1) ऐसे शारीरिक एवं वाचिक कर्मों से विरत रहो, जिनसे औरों की सुख-शांति भंग होती हो। विकारों से मुक्ति पाने का अभ्यास हम नहीं कर सकते अगर दूसरी ओर हमारे शारीरिक एवं वाचिक कर्म ऐसे हैं जिससे की विकारों का संवर्धन हो रहा हो। इसलिए, शील की आचार संहिता इस अभ्यास का पहला महत्त्वपूर्ण सोपान है। जीव-हत्या, चोरी, कामसंबंधी मिथ्याचार, असत्य भाषण एवं नशे के सेवन से विरत रहना—इन शीलों का पालन निष्ठापूर्वक करने का निर्धार करते हैं। शील पालन के कारण मन कुछ हद तक शांत हो जाता है और आगे का काम करना संभव होता है।

2)  इस जंगली मन को एक (सांस के) आलंबन पर लगाकर वश में करना। जितना हो सके उतना समय लगातार मन को सांस पर टिकाने अभ्यास करना होता है। यह सांस की कसरत नहीं है, सांस का नियमन नहीं करते। बल्कि, नैसर्गिक सांस को देखना होता है, जैसा है वैसा, जैसे भी भीतर आ रहा हो, जैसे भी बाहर जा रहा हो। इस तरह मन और भी शांत हो जाता है और तीव्र विकारों से अभिभूत नहीं होता। साथ ही साथ, मन एकाग्र हो जाता है, तीक्ष्ण हो जाता है, प्रज्ञा के काम के लायक हो जाता है।शील एवं मन को वश में करने के यह दो सोपान अपने आपमें आवश्यक भी हैं और लाभदायी भी। लेकिन अगर हम तिसरा कदम नहीं उठायेंगे तो विकारों का दमन मात्र हो कर रह जाएगा। 

3)  अपने बारें में सच्चाई को जानकर विकारों का निर्मूलन द्वारा मन की शुद्धता। यह विपश्यना है—संवेदना के रूप में प्रकट होने वाले सतत परिवर्तनशील मन एवं शरीर के परस्पर संबंध को सुव्यवस्थित विधि से एवं समता के साथ देखते हुए अपने बारे में सच्चाई का अनुभव करना। 

यह भगवान बुद्ध की शिक्षा का चरमबिंदु है—आत्मनिरीक्षण द्वारा आत्मशुद्धि।

सभी इसका अभ्यास कर सकते हैं। सभी दुखियारे हैं। इस सार्वजनीन रोग का इलाज भी सार्वजनीन होना चाहिए, सांप्रदायिक नहीं। 

जब कोई क्रोध से पीड़ित होता है तो वह बौद्ध क्रोध, हिंदू क्रोध या ईसाई क्रोध नहीं होता। क्रोध क्रोध है। क्रोध के कारण जो व्याकुलता आती है, उसे ईसाई, यहुदी या मुस्लिम व्याकुलता नहीं कहा जा सकता। रोग सार्वजनीन है। इलाज भी सार्वजनीन होना चाहिए।

विपश्यना ऐसा ही सार्वजनीन उपाय है। 

औरों की सुख-शांति भंग न करने वाले शील के पालन का कोई विरोध नहीं करेगा। मन को वश करने के अभ्यास का कोई विरोध नहीं करेगा। अपने बारें में सच्चाई जानने वाली प्रज्ञा का, जिससे कि मन के विकार दूर होते है, कोई विरोध नहीं करेगा। 

विपश्यना सार्वजनीन विद्या है।भीतर की सच्चाई को देखकर सत्य को जैसा है वैसा देखना—यही अपने आपको प्रत्यक्ष अनुभव से जानना है। धीरजपूर्वक प्रयत्न करते हुए हम विकारों से मुक्ती पाते हैं। 

स्थूल भासमान सत्य से शुरू करके साधक शरीर एवं मन के परमसत्य तक पहुंचता है। फिर उसके भी परे, शरीर एवं मन के परे, समय एवं स्थान के परे, संस्कृत सापेक्ष जगत के परे—विकारों से पूर्ण मुक्ति का सत्य, सभी दुखों से पूर्ण मुक्ति का सत्य। उस परमसत्य को चाहे जो नाम दो, सभी के लिए वह अंतिम लक्ष्य है।

सभी उस परमसत्य का साक्षात्कार करें।

 सभी प्राणी दुखों से मुक्त हों। 

सभी प्राणी शांत हो, सुखी हो।

सबका मंगल हो।

Sunday, January 10, 2021

Hindi Discourse - Day

*Hindi Discourse - Day 4*
```विपश्यना का अभ्यास कैसा करे इसपर के प्रश्न - कम्मा का अधिनियम - मानसिक कार्य का महत्व - मन के चार समुच्चय: सजगता, बोध, संवेदना, प्रतिक्रिया – सजगता और समता रखकर दुख से बाहर आनेका मार्ग है ```

चौथा दिन बहुत ही महत्वपूर्ण दिन है.आपने भीतर की धम्म की गंगा में डुबकी लेते हुए, शारीरिक संवेदना के द्वारा खुद के सच्चाई के बारे में खोज शुरू कर दी है. अज्ञान की वजह से, यह संवेदानाए भूतकाल में,अपने दुख को बढावा देनेकी कारण बनती थी, लेकिन यह संवेदना भी दुख के निर्मूलन के लिए साधन हो सकती है. आपने शारीरिक संवेदना का निरीक्षण करना और उसके प्रति समता रखना सिखके मुक्ति के मार्ग पर एक पहला कदम उठाया है.

विधी(तकनीक) के बारे में कुछ सवाल है जो अक्सर आते है:

क्यों क्रम से ही शरीर पर ध्यान ले जाए, और इसी क्रम से ही क्यो? किसी भी क्रम का पालन करे, लेकिन एकही क्रम आवश्यक है. अन्यथा शरीर के कुछ भाग छुट जाने का खतरा है, और यह भाग मुर्छित, रिक्त रहेंगे. संवेदनाए पूरे शरीर में होती रहती हैं, और इस तकनीक से, उन्हें हर जगह अनुभव करने की क्षमता विकसित करना बहुत महत्वपूर्ण है. इस उद्देश्य से क्रम में आगे बढ़ना बहुत उपयोगी है.

अगर शरीर के किसी भाग मे संवेदना मालूम न हो,तब एक मिनट ध्यान देकर वहॉ रुक जाइये. हकीकत में जैसे कि शरीर के कणो कणोमे होती है,वैसेही वहॉपे संवेदनाए है,लेकिन यह इतनी सूक्ष्म है की आपका मन इसे ग्रहण नही कर पाता, और इसलिए यह क्षेत्र मूर्छित लगता है. एक मिनट के लिए शांत चित्तसे ध्यान देकर, स्वस्थ और समतासे रुकिये. संवेदना की आसक्ति,या मूर्छाके प्रती द्वेष पैदा न करे. यदि आप आसक्ति या द्वेष पैदा करेंगे, तो आप अपने मन के संतुलन खो देते है, और असंतुलित मन बहुत सुस्त होता है; यह निश्चित रूप से अधिक सूक्ष्म संवेदना का अनुभव नहीं कर सकता. लेकिन अगर मन संतुलित रहता है, तब यह तीक्ष्ण और अधिक संवेदनशील हो जाता है, सूक्ष्म संवेदना का पता लगाने में सक्षम होता है. एक मिनट के लिये उस भागका समतासे निरिक्षण करे,उससे अधिक नही. एक मिनट के भीतर कोई संवेदना प्रकट नही हुई, तो मुस्करा कर आगे चलिये. अगले बार, फिर एक मिनट के लिए रुकिये; जल्दीही या बाद में आपको वहाँ पे और पूरे शरीर में संवेदना का अनुभव होना शुरू हो जाएगा. आप एक मिनट के लिए रुके और अब भी एक संवेदना महसूस नहीं कर सके, तब आप अगर कमरेमे हो तो कपडेके स्पर्शको जाननेका प्रयास करे, या खुले मे हो तो वातावरण के स्पर्श को जाने. इस उपरी स्तरके संवेदनासे शुरु करे और धीरे-धीरे आपको दुसरे भागोंकी संवेदना भी अच्छी तरह से महसूस होना शुरू होगा. इस उपरी स्तरके संवेदनासे शुरु करे और धीरे-धीरे आपको दुसरे भागोंकी भी अच्छी तरह से महसूस होना शुरू होगा.

जब शरीर के एक भाग पर ध्यान लगा है और संवेदना किसी अन्य जगहमें शुरू होती है, तो यह संवेदना देखने के लिये किसिको आगे या पीछे जाना चाहिये? नही; क्रमसे ही आगे बढिये. शरीर के अन्य भागों की संवेदना को रोकने की कोशीश मत किजिये - आप ऐसा कर भी नही सकते - लेकिन उन्हें कोई महत्व भी न दे. हर संवेदना का जब इस स्थान पर क्रमसे आये केवल तब निरीक्षण करें.नहीं तो आप एक स्थान से दूसरे में शरीरके कई भाग छोडते हुए, केवल स्थूल संवेदना को देखते हुए छलांग मारते रहेंगे. आप को शरीर के हर भाग की स्थूल या सूक्ष्म,सुखद या दुःखद,स्पष्ट या अस्पष्ट संवेदना का निरिक्षण करने के लिए अपने आप को प्रशिक्षित करना है. इसलिए ध्यान को,एक जगह से दुसरे जगह छलांग मारनेकी अनुमति मत दिजिये.

सर से पाव तक ध्यान की यात्रा करनेके लिये किसिको कितना समय लग सकता है? कौनसी स्थिति से किसीको सामना करना पडता है उसपर यह निर्भर होता है. एक निश्चित क्षेत्र में आपका ध्यान रखने के लिए आदेश है, और जैसे ही आपको संवेदना मालूम हुई, आप आगे बढ जाईये. अगर मन काफी तीक्ष्ण है, जैसेही आपका ध्यान उस क्षेत्र पर जाएगा और आपको संवेदना की जानकारी होगी,तब आप तुरंत आगे बढ़ सकते हैं. अगर यह स्थिति पूरे शरीर में होती है, तो दस मिनटमेही सर से पाव तक यात्रा करना संभव हो सकता है, लेकिन इस समय अधिक तेजी से यात्रा करना उचित नहीं है. तथापि,अगर मन सुस्त है, तब वहाँ कई भाग हो सकते है जिसमें यह संवेदना प्रकट होने के लिए एक मिनटतक प्रतीक्षा करने की आवश्यकता हो सकती है. ऐसे स्थिती में, सिर से पैर तक यात्रा करने के लिए तीस मिनट या एक घंटा भी लग सकता है. कितना समय पुरी यात्रा के लिये लगता है इसको महत्व नही है. बस धीरजसे,लगातार काम करते रहे; आपको निश्चित रूप से सफलता मिलेगीही.

कितना बडा क्षेत्र ध्यान के लिये लेना चाहिये? शरीर का दो या तीन इंच चौड़ा भाग लिजिये; बाद मे दो या तीन इंच आगेका लिजिये, और वैसेही आगे बढिये. अगर मन सुस्त है, तो बडा हिस्सा लिजिये, उदाहरण के लिये, पूरा चेहरा, या पूरी दायिनी ऊपरी बांह ले, फिर धीरे-धीरे ध्यान का क्षेत्र कम करने का प्रयास करें. अंततः आप शरीर के हर कण में संवेदना महसूस करने में सक्षम हो जाएंगे, लेकिन अब के लिए, दो या तीन इंच का एक क्षेत्र काफी अच्छा है.

क्या किसी को सिर्फ शरीर की उपरी स्तर पर या भीतर की भी संवेदना महसूस करनी चाहिए? कभी कभी साधक जैसे ही विपश्यना शुरू करता है भीतर कि संवेदना महसूस करता है; कभी कभी सबसे पहले उनको बाहरकी संवेदना महसूस होती है. किसी भी प्रकारकी हो,पूर्णतः ठीक है. अगर संवेदना केवल उपरी स्तर पर ही महसूस होती हैं, तभी जब तक आप शरीर की सभी भागोमे उपरी स्तर कि संवेदना महसूस नही करेंगे तबतक उन्हें बार बार निरीक्षण करे .सभी जगह कि उपरी स्तर कि संवेदना के अनुभव के बाद, आप बाद में भीतर को वेधन करना शुरु किजिये. धीरे-धीरे आपका मन संवेदना को हर जगह महसूस करने की क्षमता पाएगा, दोनों प्रकारसे बाहर और भीतर से, शारीरिक रुपबंध के हर भाग मे संवेदना महसूस होगी. लेकिन शुरू करने के लिए, उपरी स्तर की संवेदना काफी अच्छी हैं.

यह पथ संवेदना क्षेत्र के माध्यम से जो संवेदना के अनुभव से परे है ऐसे सच्चाइतक ले जाता है. अगर आप संवेदना की मदद से अपना मन शुद्ध करते रहेंगे, तो निश्चित रूप से आप अंतिम लक्ष्य तक पहुंच जाएंगे.

जब कोईएक अज्ञानी है, तब संवेदनाए अपने दुःखोको बढावा देनेकी एक कारण बनती है, क्योंकि उसके प्रती हम आसक्ती या द्वेष की प्रतिक्रिया करते है. वास्तव में समस्याए उठती है, तनाव उत्पन्न होता है और शारीरिक संवेदना के स्तर पर अनुभव होता है; इसलिए समस्या को हल करने के लिए, इस स्तरपर मन की आदत पैटर्न बदलने के लिए काम करना चाहिए. किसी भी प्रतिक्रिया के बिना,उनके बदलते रहनेका, अव्यक्तिगत प्रकृति स्वभाव का स्विकार करते हुए , अलग अलग संवेदना की सजगता सीखनी चाहिए. ऐसा करके, कोईएक अंधे प्रतिक्रिया की आदत से बाहर आता है, अपने आप को दुख से मुक्त करता है.

What is a sensation?संवेदना क्या है?- किसीको भी जो कुछ शारीरिक स्तर पर जानकारी होती है उसिको संवेदना कहते है - कोई भी नैसर्गिक, सामान्य, साधारण शारीरिक संवेदना होती है, चाहे सुखद या दुःखद, स्थूल या सूक्ष्म, तीव्र या दुर्बल. इस आधार पर कि यह वातावरण की स्थिति से उत्पन्न हुइ है, या लंबे समय तक बैठनेसे हुइ है, या एक पुराने रोग के वजहसे उत्पन्न हुइ है इस कारण से संवेदना की कभी भी उपेक्षा मत किजिये. कोइ भी कारण हो, यह तथ्य यह है कि आपको संवेदना की जानकारी हो रही है. इससे पहले आपने अप्रिय संवदना को दूर ढकेलनेकी कोशिश करके, सुखद के तरफ आनेकी कोशिश की. अब आपने संवेदना की पहचान के बिना सिर्फ वस्तुनिष्ठ निरीक्षण किया.

यह बिना चयन एक निरिक्षण है. कभी संवेदना का चयन करने का प्रयास न करें; इसके बजाय स्वाभाविक रूप से जो उभरता है उसे स्वीकार करे. अगर आप कुछ विशेष प्रकारकी, कुछ असाधारण की तलाश शुरू करते हैं, तो आप खुद के लिए मुश्किलें पैदा करोगे, और मार्गपर प्रगति नही कर पाएंगे. यह तंत्रविधी कुछ खास अनुभव करने के लिए नहीं, बल्कि कोई भी संवेदना का सामना करने में समता रखने के लिए है. भूतकाल में आपके शरीर में वैसेही संवेदना होती थी, लेकिन आपको उसकी सचेतता नही थी, और आप प्रतिक्रिया व्यक्त करते थे. अब आप सजगता रखना और उसके प्रति प्रतिक्रिया न करना, शारीरिक स्तर पर जो कुछ हो रहा है उसे अनुभव करना और समता रखना सीख रहे है,

अगर आप इस तरह से काम करते रहेंगे, तब धीरे-धीरे प्रकृति के पूरे कानून आप को स्पष्ट हो जाएंगे. धम्मका मतलब हैःप्रकृति(निसर्ग), कानून, सत्य है. अनुभवात्मक स्तर पर सच्चाई को समझने के लिए, किसीको भी यह शरीर के ढांचे के भीतर की जांच करनी चाहिए. सिद्धार्थ गौतम ने बुद्ध बनने के लिए यही किया था, और यह उनको स्पष्ट हो गया, और उन्होने जैसे काम किया वैसेही कोइ भी काम करेगा तब उसको भी यह स्पष्ट हो जाएगा, की पुरे विश्व मे, शरीर के भीतर और बाहर, सब कुछ बदलते रहता है. कुछ भी पदार्थ अंतिम नही है; सब कुछ होने और नष्ट होनेके प्रक्रिया में शामिल है - bhava(भव).और एक सच्चाई स्पष्ट हो जाएगी: कुछ भी अकस्मात नही होता है. हर बदल के लिये एक कारण है जो फल देता है, और बदले में उस फल के प्रभाव से और अगले बदलाव का कारण बन जाता है, कारण और परिणाम की एक अंतहीन श्रृंखला बनती है. और अभी भी एक और नियम स्पष्ट हो जाएगा: जैसेही कारण वैसाही फल है;जैसा बीज वैसाही फल होगा.

एक ही मिट्टी पर कोईएक दो बीज बोता है,एक गन्नेका और दुसरा नीमकाneem -- एक बहुत कडवा उष्णकटिबंधीय पेड़. गन्ने के बीज से एक पौधा तयार होता है जिसका रेशा रेशा मीठा होता है, नीम के बीजसे, जो पौधा होता है उसका हर तन्तु कड़वा होता है. क्यों प्रकृति एक पर दया करती है और दुसरे पर इतनी निष्ठूर ऐसे कोई भी पूछ सकता है. तथ्य यह है कि प्रकृति न ही दयालू न निष्ठूर है; यह तय नियमों के अनुसार काम करता है. प्रत्येक बीज की गुणवत्ता प्रकट करने मे प्रकृति केवल मदद करती है. एक मिठा बीज बोता है, तो फसल भी मिठास होगी. एक कड़वाहट के बीज बोता है, तो फसल भी कड़वाहट होगी. जैसा बीज वैसा फल होगा; जैसा काम होगा वैसा ही परिणाम होगा.

समस्या यह है कि कोईएक पैदावार के समय बहुत सतर्क रहता है, मीठा फल प्राप्त करने के लिए इच्छुक है, लेकिन बुवाई के मौसम के दौरान बहुत बेपरवाही करता है, और कड़वाहट के पौधों के बीज डालता है.एक मीठा फल चाहता है, तो बीज का उचित प्रकार बोना चाहिए. प्रार्थना या एक चमत्कार की उम्मीद करना स्वयं को केवल धोखा है; किसीको भी प्रकृति को समझकर उसके के कानून के अनुसार जीना चाहिए. किसको भी अपने कृती के बारे में सावधान रहना चाहिए, क्योंकि यह बीज बो रहे है उसीके गुणवत्ता अनुसारही मिठा या कड़वा फल प्राप्त होगा.

कृती तीन प्रकार के होते है :शारीरके, वाणीके और मनके. कोई जो स्वयं को अवलोकन करने को सीखता है तो जल्दी ही समझ जाता है कि मानसिक कृती सबसे महत्वपूर्ण है, क्योंकि यही जो बीज है जो इस कृती का फल देगा. वाचिक और शारीरिक क्रियाओं केवल मानसिक कृती का बाह्य प्रक्षेपण,तीव्रता मापनेका एक प्रमाण है. वे मानसिक कृती से प्रारंभ होते है, और यह मानसिक कृती बाद में वाणी या शरीर स्तर पर प्रकट होती है. इसलिए बुद्ध ने घोषित कियाः

    मन सभी क्रिया से आगे है,
    मन सबसे ज्यादा मायने रखती है, सब कुछ मन से बनता है.
    अगर अशुद्ध मन हो तो,
    आप बोलते हैं या कृती करते है,
    तो दुःख आपका पीछा करता है
    जसे एक गाड़ी का पहिया मसौदा जानवर के पैर के पीछे चलता है.

    अगर शुद्ध मन से
    आप बोलते या कृती करते है,
    तो खुशी आपके पीछे आयेगी
    एक छाया के तरह जो कभी चली नही जाती.

अगर यदि यह बात है, तो एक को मालूम होना चाहिए मन क्या है और यह कैसे काम करता है. अपने अभ्यास द्वारा इस तथ्य की जांच शुरू कर दी है. जैसे ही आप आगे बढेंने, तो आपको स्पष्ट हो जायेगा की मनके चार प्रमुख खंड या aggregates( समुच्चय) हैं.

पहले खंड को कहा जाता है viññāṇa(विज्ञान), जिसको चेतना कहा जा सकता है. संवेदनशील इंद्रियों निर्जीव है जब तक चेतना उन के साथ संपर्क में नही आती है. उदाहरण के लिए, अगर एक देखने में तल्लीन है, और ध्वनि आ जाए तो उनको यह नहीं सुनाइ देगा, क्योंकि सभी चेतना आंखों के साथ समाई है.मन का यह हिस्सा कोइ भेदभाव के बिना पहचान करने के काम मे सिर्फ जानने के लिये है. ध्वनि कान के साथ संपर्क में आता है, और viññāṇa(विज्ञान) केवल एक ध्वनि आ गया है इसकी जान-पहचान करता है.

तब मन का अगला हिस्सा काम करना शुरू करता है: saññā(संज्ञा) बोध है. एक ध्वनि आया है, किसी के पुर्वानुभव और यादों से, यह पहचानता है: एक ध्वनि ... शब्द ... प्रशंसा के शब्दों ... अच्छा; वरना, एक ध्वनि ... शब्द ... गाली के शब्द ... बुरा. कोईएक अपने पुराने अनुभव के अनुसार, अच्छा या बुरा का मूल्यांकन करता है.

तुरंत मन का तीसरा भाग काम करना शुरू करता हैःvedanā(वेदना), संवेदना. जैसे ही एक ध्वनि आता है, वहाँ शरीर पर एक संवेदना होती है, लेकिन अनुभुती यह पहचानती है और मूल्यांकन करती है, मूल्यांकन के अनुसार अनुभूति सुखद या दुःखद लगती है. उदाहरण के लिए: एक ध्वनि आया है ... शब्द ... प्रशंसा के शब्दों ... अच्छा - और कोईएक पूरे शरीर में सुखद अनुभूति महसूस करता है. वरना; एक ध्वनि आ गया है ... शब्द ... गालीके शब्द ... बुरा - और कोईएक को पूरे शरीर में एक अप्रिय संवेदना की अनुभूती होती है. संवेदनाए शरीर पर उत्पन्न होती है, और मन महसूस कर रहा हैं; इस कार्य को vedanā(वेदना) संवेदना कहा जाता है.

तब मन का चौथा भाग काम शुरू करता है: sahkara(संस्कार) प्रतिक्रिया.एक ध्वनि आ गया है ... शब्द ... प्रशंसा के शब्दों ... अच्छा ... सुखद अनुभूति - और एक इसे पसंद करना शुरू करता है: "यह प्रशंसा असाधारण है मुझे और चाहिये!" वरना: एक ध्वनि आ गया है ... शब्द ... गाली का शब्द ... बुरा ... अप्रिय संवेदनाए - और एकको इससे नापसंती शुरू होती है: "मैं यह गाली सहन नहीं कर सकता, इसे बंद करो!" इंद्रियों के प्रत्येक दरवाजे में, एक ही प्रकारकी प्रक्रिया होती है; आंख, कान, नाक, जीभ, शरीर. इसी प्रकार, जब एक विचार या कल्पना मन के संपर्क में आती है, उसी प्रकारसे एक संवेदना शरीर पर उत्पन्न होती है, सुखद या दुखद, और कोईएक पसंदी या नापसंदी की प्रतिक्रिया शुरू करता है. यह क्षणिक पसंदी महान आसक्ति में बदल जाती है; यह नापसंदी महान द्वेष में बदल जाती है. कोईएक अपने भीतर गांठे बांधना शुरू करता है.

saṅkhārā(संस्कार) मानसिक प्रतिक्रिया: यह है असली बीज जो फल देती है, कृती जो परिणाम देती है. हर पल कोईएक यह बीज बोता रहता है, पसंदीका या नापसंदीका, राग या द्वेष की प्रतिक्रिया करते रहता है, और ऐसा करके अपने आप को दुखी करता है.

वहाँ प्रतिक्रियाओं है जो बहुत ही कम खिंचती है, और लगभग तुरंत नाश पाती है, जो थोडी गहरी लकीर बनाती है वह कुछ समय के बाद नाश होती हैं, और जो बहुत गहरी लकीर बनाती है, वह बहुत लंबे समय के बादही निकल जाती हैं. कोईएक दिन के अंत में, जब उत्पन्न किये हुए सब saṅkhārā(संस्कार) को याद करने की कोशिश करता है, तो दिनभरके संखारोसे इक्का दुक्का ही याद होगा जिसने बहुत गहरी लकीर छोडी है. उसी तरह, एक महीना या एक साल के अंत में, कोईएक को एक या दो saṅkhārā(संस्कार) याद होगा जिसने उस समय मे बहुत गहरी लकीर खिंची है. और यह पसंद है या नहीं, जो कुछ भी saṅkhārā(संस्कार) मजबूत लकीर बनाता है वह जीवन के अंत में,मन में उभर आना स्वाभाविक है; और अगला जीवन भी मनके उसी मधूर या कड़वाहट के गुणोंसे भरे हुए प्रकृति के साथ शुरू हो जाएगा. हम स्वयं अपने कृतीसे भविष्य बनाते है.

विपश्यना मरने की कला सिखाता है: कैसे शांति से सुसंगतीसे मर जाए. कोईएक जीने की कला सीखकर मरने की कला सीखता है: कैसे वर्तमान क्षण के मास्टर बने, कैसे इस क्षणमे saṅkhārā(संस्कार) उत्पन्न न हो, कैसे यहाँ और अब सुखी जीवन जीये. यदि वर्तमान अच्छा हो, तो जो केवल वर्तमान का एक निर्माण है ऐसे भविष्य की चिंता न करे, और इसलिए भविष्य अच्छा होना स्वाभाविक है.

यहाँ तकनीक के दो पहलू हैं:

पहले मन के चेतन और अचेतन के बीच की दिवार टूटती है.आमतौर पर चेतन मन को अचेतन मन क्या अनुभव कर रहा है इसकी कुछ भी जानकारी नहीं होती है. इस अज्ञान के वजहसे छिपे हुए, अचेतन स्तर पर प्रतिक्रियाए होती रहती है; सचेत स्तर पर कुछ समयसे पहुँचने तक, वे इतनी तीव्र होती है की वे(प्रतिक्रिया) आसानी से मन पर काबू कर लेती हैं. इस तकनीक के द्वारा, मन का पूरा पुंज सचेत, सजग हो जाता है; अज्ञान दूर किया जाता है.

समता यह तकनीक का दूसरा पहलू है. किसीएक को हर संवेदना के अनुभव कि जानकारी होती रहती है, लेकिन प्रतिक्रिया नही करता,राग या द्वेष की नई गांठे नही बांधता, अपने लिए दुख पैदा नहीं करता.

शुरू करने के लिये,जब आप ध्यान के लिए बैठते हैं, बहुत समयतक आप संवेदना के प्रती प्रतिक्रिया करेंगे, लेकिन कुछ क्षण तीव्र वेदना के बावजूद आप समता मे रहेंगे. ऐसे क्षण मन की आदत पैटर्न बदलने में बहुत शक्तिशाली हैं. धीरे-धीरे आप, ऐसे स्थिती तक पहुच जाएंगे जिसमें आप किसी भी संवेदना पर  aniccā(अनिक्क/अनिच्च),समाप्त होनेवाली है ऐसे समझकर मुस्कराएंगे, 

यह स्थिति को प्राप्त करने के लिए, आप को स्वयं ही काम करना है, बाकी कोई भी आप के लिए यह काम नही कर सकता. यह अच्छा है कि आपने रास्ते पर पहला कदम उठाया है; अब अपने स्वयं के मुक्ति की दिशा में कदम कदम चलते रहिये .

आप सब को असली खुशी का आनंद मिले.

सभी प्राणी सुखी हो!