Thursday, July 20, 2023

धर्मगंगा का बांध खुल गया

🌷 धर्मगंगा का बांध खुल गया 🌷 

✍️... 1 से 11 सितंबर, 1955 के शिविर में मुझे पू. गुरुदेव के चरणों में बैठ कर भगवती विपश्यना विद्या के अभ्यास द्वारा नया जन्म मिला। इसके पश्चात पू. गुरुदेव के मार्गनिर्देशन में चौदह वर्षों तक मेरा प्रभूत कल्याण करती हुई यह भगवती विद्या लगभग दो हजार वर्षों के लंबे अंतराल के बाद 25 जून 1969 के दिन भारत लौटी....🙏🙏

📃 पूज्य गुरुदेव सयाजी ऊ बा खिन की यह सुदृढ़ मान्यता थी कि भगवान बुद्ध के महापरिनिर्वाण के पच्चीस सौ वर्ष पूरे होने पर द्वितीय बुद्ध शासन आरंभ होगा। और वह विपश्यना साधनाजन्य प्रज्ञा से ही आरंभ होगा। ब्रह्म देश में चिर-संरक्षित विपश्यना विद्या पहले अपनी उद्गम भूमि भारत लौटेगी और तदनन्तर सारे विश्व में फैल कर अमित लोक कल्याण करेगी। 

पच्चीस सौ वर्ष पूरे होते-होते 1954 से 1956 तक यांगों (रंगून) में ऐतिहासिक छठे संगायन काआयोजन चल रहा था। इसी बीच 1 से 11 सितंबर, 1955 के शिविर में मुझे पू. गुरुदेव के चरणों में बैठ कर भगवती विपश्यना विद्या के अभ्यास द्वारा नया जन्म मिला। इसके पश्चात पू. गुरुदेव के मार्गनिर्देशन में चौदह वर्षों तक मेरा प्रभूत कल्याण करती हुई यह भगवती विद्या लगभग दो हजार वर्षों के लंबे अंतराल के बाद 25 जून 1969 के दिन भारत लौटी। 

अपनी योग्यता और क्षमता के प्रति मेरे मन में उठी हुई हजार शंकाओं के बावजूद यह विद्या भारत में अपनी जड़ें जमाने लगी। मुझे लगा कि मैं तो केवल एक माध्यम मात्र हूं। धर्म अपना काम स्वयं कर रहा है। गुरुदेव बारबार कहा करते थे कि विपश्यना का डंका बज चुका है। इस समय भारत और विश्व के अन्यान्य देशों में पुण्य पारमीसंपन्न अनेक लोग जन्मे हैं। इस डंके की आवाज सुनकर वे स्वतः धर्म की ओर खिंचे चले आएंगे और विपश्यना को सहर्ष अपना लेंगे। 

ऐसा ही हुआ। अत्यंत अप्रत्याशित ढंग से भारत के
भिन्न-भिन्न प्रदेशों के , भिन्न-भिन्न संप्रदायों के , भिन्न-भिन्न मत-मतान्तरों के अनेक लोग शिविरों में सम्मिलित होने लगे। इन संप्रदायों के प्रमुख सम्मिलित होने लगे। सभी को यह विद्या अपनी-सी लगी। किसी को कोई परायापन नहीं लगा। 

शिविरों में विपश्यना का प्रशिक्षण हिंदी भाषा में ही दिया जाता था। अधिकांशतः उत्तर भारत के लोग ही सम्मिलित होते थे, क्योंकि शिविर इसी क्षेत्र में लगते थे। परंतु कुछ एक महीने बीतते-बीतते इन शिविरों में पश्चिम देशों के कुछ लोग भी सम्मिलित होने लगे। उन दिनों इनकी संख्या थोड़ी ही होती थी। सांयकाल हिंदी में धर्म प्रवचन देने के बाद मैं इन्हें पांच-दस मिनटों में अपने प्रवचन का संक्षिप्त सार अंग्रेजी में समझा दिया करता था और विधि के सक्रिय अभ्यास करने का आदेश भी चंद शब्दों में ही दे दिया करता था। 

ये लोग बहुत उद्यमी थे और गंभीरतापूर्वक काम करने के कारण अंग्रेजी भाषा का इतना-सा प्रयोग इनके लिए पर्याप्त था। इन्हें आश्चर्यजनक सफलता प्राप्त होती थी। धीरे-धीरे इस विद्या की प्रशंसात्मक चर्चा पश्चिम से आने वाले अन्य पर्यटकों में भी फैलने लगी। एक वर्ष बीतते-बीतते डलहौजी में ठहरे हुए इन पर्यटकों के एक समूह ने मुझसे मांग की कि मैं वहां जाकर केवल उन्हीं के लिए एक शिविर लगाऊं। 

मेरे लिए कठिनाई थी। केवल विदेशियों का शिविर होगा तो संपूर्ण शिविर संचालन अंग्रेजी भाषा में ही करना पड़ेगा। कुछ शब्दों में प्रवचन का सार समझा देना, एक-दो वाक्यों में साधना के अभ्यास का निर्देश दे देना, अथवा किसी प्रश्न का थोड़े में उत्तर दे देना सरल था। किंतु हिंदी की भांति अंग्रेजी में घंटे भर धाराप्रवाह प्रवचन देना और दिन भर प्रेरणाभरे लंबे-लंबे निर्देश देते रहना मेरे लिए सर्वथा असंभव था। 

रंगून रहते हुए जब क भी मुझे चेंबर आफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री के अध्यक्ष की हैसियत से अथवा अन्य कहीं
किसी महत्त्वपूर्ण, सार्वजनिक समारोह में अंग्रेजी में भाषण देना पड़ता था तो लिखित वक्तव्य ही पढ़कर सुना दिया करता था। बिना पढ़े अंग्रेजी में भाषण देने का मुझे कतई अनुभव नहीं था और न ही इसकी क्षमता थी। 

वैसे ही अंग्रेजी भाषा का ज्ञान सीमित था, तिस पर साधना संबंधी प्रवचन, जिसमें कि भारतीय आध्यात्मिक परंपरा के अनेक पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग होता है, उनका अंग्रेजी पर्याय जानना मेरे लिए और भी कठिन था। अतः मैंने अपनी असमर्थता प्रकट की और उन्हें समझाया कि जहां कहीं हिंदी भाषा का शिविर लगता हो, वहां थोड़ी-थोड़ी संख्या में आते रहें। 

उन्होंने कहा कि हिंदी भाषी साधक-साधिकाएं मेरे सायंकालीन प्रवचन से और लंबे आदेशों से बहुत प्रभावित होते हैं और सारी विद्या को भली प्रकार हृदयंगम करके काम करते हैं। जबकि विदेशी इस लाभ से वंचित रह जाते हैं। अतः मुझे अंग्रेजी में शिविर लगाना चाहिए। उनकी नजरों में इतनी अंग्रेजी तो मैं बखूबी जानता ही था। 

परंतु मेरे न मानने पर उन्होंने पू. गुरुदेव से संपर्क स्थापित किया और उनसे मेरी शिकायत की। उन्होंने कहा कि बर्मा के बाहर आपका केवल एक ही प्रतिनिधि इस विद्या को सिखा रहा है और वह हमारी मांग को स्वीकार नहीं कर रहा। हम यह विद्या सीखने कहां जायँ? उन दिनों बर्मा में तीन दिन से अधिक का वीसा नहीं मिलता था। अतः उन्होंने पू. गुरुदेव पर दबाव डाला कि वे मुझे अंग्रेजी में शिविर लगाने की आज्ञा दें। 

उन दिनों मैं बंबई में था। गुरुजी ने मुझे बंबई फोन किया और आदेश दिया कि मैं तुरंत डलहौजी जाकर अंग्रेजी में शिविर लगाऊं। जब मैंने उनके सामने अपनी कठिनाई प्रकट की तो उन्होंने बड़ी प्यारभरी कठोरता के साथ आज्ञा दी – “तुम्हें जाना ही होगा। जैसी भी अंग्रेजी आती है, उसी में शिविर लगाना होगा। सफलता मिलेगी ही। धर्म सहायता करेगा । सफलता के बारे में जरा भी चिंता करने की आवश्यकता नहीं है। मेरी समस्त मंगल मैत्री तुम्हारे साथ है।” 

पू. गुरुदेव का इतना आश्वासन भरा आदेश पाकर मैं शिविर लगाने के लिए डलहौजी चला गया। डलहौजी जाने की हिचकिचाहट अवश्य थी, परंतु फिर भी वहां के लिए एक बहुत बड़ा आकर्षण भी मेरे मानस में था। हिमालय की गोद में यह मेरा पहला शिविर लगेगा । “हिमालयो नाम नगाधिराजः” की हिमाच्छादित शिखर-श्रंखलाओं का खिंचाव, तिस पर पू. गुरुदेव के वे बोल भली भांति स्मरण थे जबकि एक बार उन्होंने कहा था कि हम हिमालय की प्रशांत गुफाओं में, कंदराओं में न जाने कितने जन्मों में कितने दिनों तपे हैं। अतः कुछ झिझक के बावजूद डलहौजी जाने का आदेश प्रिय ही लगा। 

वहां पहुंचते ही मनमानस में आह्लाद, उल्हासभरी उमंगों की उच्छल ऊर्मियां तरंगित होने लगी। इस उत्साह के प्रवाह में अंग्रेजी में शिविर लगाने की शंकाएं न जाने कहां बह गयीं। परंतु फिर भी शिविर आरंभ करने पर दो दिनों तक धर्मपीठ पर बैठे हुए अत्यंत अप्रत्याशित रूप से घुटन महसूस होती थी। अतः पहली शाम के वल पंद्रह मिनट ही बोल पाया। दूसरी शाम बड़ी कठिनाई से बीस-पच्चीस मिनट तक बोलते-बोलते दम घुटने लगा। यद्यपि चेतन चित्त में रंचमात्र भी यह प्रतीत नहीं हो रहा था तथापि मुझे यों लगा कि शायद खुलकर अंग्रेजी न बोल सकने की हीनग्रंथि अंतर्मन में अड़चनें पैदा कर रही होंगी। 

परंतु इस घुटन का वास्तविक कारण कुछ और ही निकला जो कि तीसरे दिन प्रकट हुआ। कुल ग्यारह साधक-साधिकाओं का यह छोटा-सा शिविर था। शांतिकुटीर नामक एक छोटे से बंगले में यह शिविर लगा था। सामूहिक साधना और प्रवचन का कार्यक्रम भी एक छोटे कमरे में होता था। उस कमरे से सटे हुए दूसरे कमरे में वह साधक रहता था जिसने कि शिविर के लिए मुझे आमंत्रित किया था। 

तीसरे दिन मैंने देखा, उसी कमरे में से एक प्रकार की धर्मविरोधी दूषित तरंगे फूटती थीं जिनसे कि सामूहिक ध्यान-कक्ष घुटन से भर उठता था। समझ में नहीं आ रहा था कि एक ओर हिमालय की पावन तरंगें, दूसरी ओर पू. गुरुदेव की प्रबल मैत्री, जिनके रहते ये कैसी दूषित तरंगें हैं जो घुटन पैदा कर रही हैं। तीसरे दिन दोपहर को मैं उस साधक को चैक करने के लिए पास वाले कमरे में गया तो यह देख कर आश्चर्यचकि रह गया कि उसकी टेबल पर एक अस्थि कंकाल वाला नरमुंड पड़ा है और समीप ही सूखे हुए खून के रंग में रंगी एक नेपाली खुखरी पड़ी है। 

पूछने पर उसने बताया कि वह किसी स्थानीय तांत्रिक गुरु का शिष्य है और तीन रात पहले ही उसने श्मसान में जाकर एक तांत्रिक कर्मकांड पूरा करते हुए इसी खुखरी से एक पशुबलि चढ़ायी थी। उसके गुरू का कहना था कि यह खुखरी और नरमुंड पास रखने से उसकी साधना बहुत सफल होगी। मुझे धर्म कक्ष में फैलने वाली दूषित तरंगों का कारण अब समझ में आया। मेरे बहुत दबाव देने पर वह बाहर जाकर उस खुखरी और नरमुंड को किसी कंदरा में फेंक आया। तब कहीं उस “शांतिकुटीर” में व्याप्त अशांति की घुटन दूर हुई। 

उस दिन अपराह्न देर तक धर्मपीठ पर बैठ कर ध्यान करता रहा। सायंकालीन धर्म-प्रवचन का समय समीप आते-आते देखा कि सारा वातावरण हिमगिरि की पावन पवन-लहरियों से धुलकर स्वच्छ, निर्मल हो गया है और पू. गुरुदेव की मैत्रीभरी धर्म-तरंगों से आप्लावित हो उठा है। प्रवचन शुरू करने के कुछ ही क्षण पहले हृदय-वस्तु पर ध्यान जाते ही देखा कि भवंग अत्यंत सजीव और संवेदनशील हो उठा है। ब्रह्मरंध्र का कपाट खुल गया है जिसमें पू. गुरुदेव की मंगल मैत्री की धर्म-तरंगें प्रवहमान हो रही हैं। इससे संपूर्ण तन और मन पुलक-रोमांच से भर गया । 

बोलना शुरू किया तो बिना रुके धाराप्रवाह बोलता ही चला गया। ठीक वैसे ही जैसे कि हिंदी में बोला करता था। प्रवचन पूरा हुआ तो देखा, पूरे एक घंटे बोल गया था। पांच मिनट के विश्राम के पश्चात बैठक फिर आरंभ हुई तो उसी प्रवाह में अंग्रेजी में लंबा आदेश दिया और देखा कि सभी साधक-साधिकाएं अत्यंत दत्तचित्त होकर ध्यानमग्न हो गये हैं। नौ बजे बैठक समाप्त हुई तो सबके चेहरे खिले हुए थे। 

मैं यह देख कर स्वयं विस्मय-विभोर था कि पू. गुरुदेव की मंगल मैत्री से ऐसा धर्मबल जागा जिससे नितांत असंभव लगने वाला कार्य किस प्रकार सहज ही संभव हुआ! यों अंग्रेजी का पहला शिविर अत्यंत आश्चर्यजनक ढंग से सफलहुआ। धर्म यही चाहता था। यही हुआ। इसके बाद सभी शिविर द्विभाषी होने लगे। 

प्रतिदिन पूर्वाह्न और सायं हिंदी और अंग्रेजी प्रवचन होने लगे। सभी निर्देश दोनों भाषाओं में दिये जाने लगे। मानो विदेशियों के लिए धर्मगंगा का बांध खुल गया। सारी अड़चनें दूर हो गयीं। अब पहले से अधिक शिविर लगने लगे। अधिक साधकों वाले शिविर लगने लगे। शिविर-दर-शिविर विदेशियों की संख्या बढ़ती चली गयी । 

बोधगया, राजगीर, वाराणसी और कुशीनगर जैसे स्थानों में ऐसे अनेक शिविर लगे, जिनमें लगभग सारी संख्या विदेशियों की ही थी। भारत के अन्य भागों में लगने वाले शिविरों में भी इनकी संख्या पहले से कहीं अधिक होने लगी। धीरे-धीरे अनेक पश्चिमी देशों में इन शिविरों की चर्चा फैलने लगी । समूह के समूह विदेशी इन शिविरों में भाग लेने के लिए आने लगे। बहुधा स्थानाभाव से उन्हें प्रवेश भी नहीं मिलता था। अगले शिविरों तक प्रतीक्षा करनी पड़ती थी। चंद वर्षों में ही पश्चिम के लगभग अस्सी देशों के हजारों लोग शिविरों में भाग लेने के लिए आ गये। 

पड़ोसी थाईलैंड और श्रीलंका के लोग भी सम्मिलित होने लगे। यों लगा कि पू. गुरुदेव की भविष्यवाणी और धर्मकामना सार्थक होने का समय समीप आ रहा है। विपश्यना विद्या केवल भारत में ही नहीं बल्कि सारे विश्व में फैलेगी,शायद इसीलिए अंग्रेजी भाषा के शिविर लगने संभव हो सके हैं। इसके बिना बाहर देशों के लोगों के लिए विपश्यना का प्रसार संभव नहीं होता। 

मानो उन्हीं के लिए धर्मगंगा पर लगा हुआ बांध खुल गया और दोनों भाषाओं में कलकल निनाद करती हुई धर्मगंगा अनेकों के हित के लिए प्रवहमान हो उठी । विपश्यना सारे विश्व के लिए मंगल का संदेश पहुँचाने लायक हुई। यह देख कर मन संतोषजन्य प्रसन्नता से भर उठा। 

मंगलमित्र,
सत्य नारायण गोयन्का

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विपश्यना पत्रिका संग्रह, अप्रेल 1997
विपश्यना विशोधन विन्यास ॥ 

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      ✺ भवतु सब्ब मंङ्गलं ✺
      ✺ भवतु सब्ब मंङ्गलं ✺
      ✺ भवतु सब्ब मंङ्गलं ✺
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Drinking

Q: Why is drinking only one glass of wine a breakage of sila?

A: One glass becomes more. So why not come out it from the very beginning? Once one becomes addicted, it is so difficult to come out of the addiction. Why not refrain from anything that is addictive?

If someone who has come out of all kinds of intoxicants and is progressing in meditation takes even a very small quantity of alcohol, that person will immediately feel that it creates agitation and will feel unhappy. They can't take it. Ignorance causes impurities to develop and intoxicants are closely associated with ignorance. They drown all your understanding. Come out of them as quickly as possible.

Q. How can I stay friends with people who drink if I don’t drink myself?

SNG: If you are intelligent enough, then you will remain friends if necessary. 

First of all, decide why you want to be friends with such people. If you have to be in their company while they are drinking, then use your intelligence and judgment. If you refuse to drink by saying that now you are a pure person doing meditation, they will just get angry with you. So firmly decline the offer to drink by saying politely that it doesn’t suit you. This will be a true statement for it can never suit somebody to drink if he is trying to strengthen his mind with meditation. 

Consider an example. 
A man suffering from diabetes goes out with some friends one evening. The friends coax him to eat sweets arguing that one piece will do him no harm. If he eats the sweets, it will only make his condition worse, but if he is sensible, he won’t give in and suffer. He will say that he is diabetic and it does not suit him to eat sweets, whereas the others are free to eat them. 

Similarly, exercise your willpower and firmly but politely decline any offer to smoke or drink, giving the simple but true reason that these do not suit you. You might worry that they will make you feel like an outcaste. If you are intelligent, that won’t happen. Firstly, why be part of a group with such bad habits? If you can’t avoid it, act as advised above and protect yourself.

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🌷 व्यसनों से छुटकारा 🌷

अगर सिगरेट पीने की मन में कामना जागे तो उस समय तुरंत मत छूना सिगरेट को । कम से कम 10-15 मिनिट तक मत छूना।

फिर 10-15 मिनिट तक इस सच्चाई को जानते रहो की मेरे मन में सिगरेट पीने की तमन्ना है और शरीर में इस प्रकार की संवेदना हो रही है। 

और मैंने अनेक बार देखा है की शरीर की संवेदनाए अनित्य होती है। तो यह जो मेरे भीतर स्मोकिंग की इच्छा उठी है इसका इन संवेदनाओ से सम्बन्ध है, तो यह भी अनित्य है। तो दोनों को देखते है। कब तक रहती है देखते है।10-15 मिनिट देखोगे तो छुटकारा हो जाएगा।

तो देखना सीखो।

जब जब ऐसी कामना जागे तो उसका गुलाम होने की बजाय कम से कम 15 मिनट देखना सीखो, धीरे धीरे इसी प्रकार अन्य व्यसनों से भी छुटकारा होता चला जाएगा।

Friday, May 5, 2023

हमें विपश्यना ही क्यों करनी चाहिए क्योंकि भारत में विभिन्न प्रकार की विधियां हैं.

प्रश्न: हमें विपश्यना ही क्यों करनी चाहिए क्योंकि भारत में विभिन्न प्रकार की विधियां हैं.

उत्तर: हम नहीं कहते कि भारत की विभिन्न प्रकार की विधियां बंद हो जाएं। जिसको जो अनुकूल लगे सो करे लेकिन समझे कि कौन-सी चीज उसके लिए अधिक लाभदायक है तो करके देखें और लगे कि इससे तो अधिक लाभ मिलता है तो इसको करें । यह अंधविश्वास नहीं है । यह तो सच्चाई का दर्शन कराती है तो इसे करें। यह किसी को एक संप्रदाय में नहीं बांधती, इसलिए इसे करें । यह अभी आशुफलदायिनी है । अभी-का-अभी अपना परिणाम देती है, अच्छा परिणाम देती है इसलिए करें । लेकिन हर व्यक्ति स्वयं अनुभव करके तब करे, अंधविश्वास से नहीं ।

प्रश्न : विपश्यना का समाज में क्या उपयोग है?
उत्तर: स्वस्थ रहने का क्या उपयोग होता है? शरीर से आदमी बीमार रहे और समाज के सारे आदमी बीमार-ही-बीमार हैं तो यह कैसा समाज होगा? ठीक इसी प्रकार मन से स्वस्थ रहना बहुत आवश्यक है। अगर सारे लोग मन से अस्वस्थ हैं तो समाज अस्वस्थ हो जाएगा । यह मन को स्वस्थ बनाने की विद्या है । इसलिए समाज के लिए बहुत आवश्यक है ।

प्रश्र : आतंकवाद के इस समय में विपश्यना कैसे सहायक बन सकती है?
उत्तर : बहुत सामयिक प्रश्न है । आतंकवाद से जो भय पैदा होता है। लोग डरते रहते हैं क्या हो जाएगा, मुझे क्या हो जाएगा, मेरे परिवार को क्या हो जाएगा? मेरे देश को क्या हो जाएगा? इस भय से आतंकवादियों को प्रोत्साहन मिलता है। वे लोगों को भयभीत करके अपने मन की बात मनवाना चाहते हैं; और हम भयभीत हो गए तो उनका काम बन गया । विपश्यना निर्भय बनाती है । किसी अवस्था में भय ना आए हमारे सामने, हम सामना करेंगे । सरकार निर्भीक होकर सामना करेगी और लोग भी निर्भीक होकर सामना करेंगे। भय नजदीक नहीं आएगा ।
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Wednesday, March 8, 2023

🌺 स्वामी विवेकानंदजी का मेरे जीवन पर विपुल प्रभाव 🌺The Profound Influence of Swami Vivekananda on My Lifeस्वामी विवेकानंदजी सदैव मेरे श्रद्धाभाजन रहे हैं। युद्धोतर म्यंमा में रंगून की श्रीरामकृष्ण मिशन सोसायटी और श्रीरामकृष्ण मिशन सेवाश्रम में अपनी सक्रिय सेवा देते हुए वहां के विद्वान और चरित्रवान, करुणहृदयऔर सेवाभावी संन्यासियों के साथ काम करने का और उनके सत्संग का बहुत लाभ मिला। उनसे ही स्वामी विवेकानंदजी के आकर्षक व्यक्तित्व और प्रभावशाली कर्तृत्व की महती जानकारी प्राप्त हुई जिससे मुझे प्रभूत प्रेरणा मिली।कुछ वर्षों पूर्व दक्षिण भारत में विपश्यना के शिविर लगाते हुए अपने परिवार के कुछ सदस्यों के साथ कन्याकुमारी की तीर्थयात्रा पर गया। वहां पावन भारत-भूमि के अंतिम दक्षिणी छोर को तीन समुद्रों का जल स्पर्श करते रहता है मानो तीनों सागर मिल कर भारत माता के पांव धोते रहते हैं। यह वही स्थल है जिसका दर्शन बोधिसत्त्व को बुद्धत्व प्राप्ति के पूर्व की रात अपने विराटकाय बुद्ध स्वरूप के साथ स्वप्न में हुआ था। उन्होंने स्वप्न में देखा कि वे उच्च हिमालय की तकिया बना कर समग्र भारत भूमि पर लेटे हैं और उनके पांव यहीं कन्याकुमारी के तट तक फैले हुए हैं जहां तीन समुद्रों का जल उनका पाद प्रक्षालन कर गौरवान्वित हो रहा है। स्वप्न में यह भी देखा कि उन विशालकाय भगवान बुद्ध का एक हाथ (बंग सागर के तट तक और दूसरा हाथ सिंधु सागर के तट तक फैला है और वहां के सागर की उमंग भरी ऊर्मियां उनके हाथों का प्रक्षालन कर उल्लसित हो रही हैं। यह स्वप्न उस भावी सत्य का पूर्व आभास था कि भगवान की पावन शिक्षा समग्र भारत द्वारा सहर्ष स्वीकृत की जायगी और तदनंतर हिमालय से उत्तर दिशा की ओर तथा इन समुद्री तटों से अन्य सभी दिशाओं की ओर देश-विदेशों में फैलेगी। यह वही तट है जहां से तैर कर स्वामी विवेकानंदजी सामने के चट्टानी द्वीप पर गये थे और तीन दिनों तक वहीं ध्यान-मग्न रहे थे। किसी भी भारतीय के लिए इस त्रिविध पावन स्थल का भावनात्मक महत्त्व स्वाभाविक है। भारतीय प्रायद्वीप के इस अंतिम छोर के तट पर तीनों सागरों का स्नेह संगम और तीनों की जल लहरियों का पारस्परिक तटवर्ती क्रीड़ा-किलोल अत्यंत मनोहारी था। हम तट पर बैठे इस अनोखे चित्ताकर्षक दृश्य का आनंद ले रहे थे। इतने में देखा, दो-चार नवयुवक मुस्कराते हुए हमारी ओर चले आ रहे हैं। उन्होंने हमें अभिवादन करके बताया कि वे स्थानीय विवेकानंद केंद्र के कार्यकर्ता हैं। उन्हें हमारे आने की कोई सूचना नहीं थी। परंतु उनमें से एक दो विपश्यी थे। उन्होंने मुझे पहचान लिया। बड़े प्यार और सम्मान के साथ मार्गदर्शन करते हुए उन्होंने हमारी इस अपरिचित, अनजान स्थान की तीर्थ यात्रा को अत्यंत सुखद और सफल बनाया। हम कृतार्थ हुए।वे हमें एक छोटे जहाज से विवेकानंद चट्टान पर ले गये। वहां का भव्य और कलापूर्ण मंदिर देखा। वहीं भीतर बने एक ध्यान प्रकोष्ठ में ले गये। ऐसी मान्यता है कि यहीं स्वामीजी ने तीन दिन तपस्या की थी। हम भी उस पावन स्थली पर कुछ घंटों तक ध्यान करके अत्यंत सुख-विभोर हुए।साधना करते हुए मन में यह धर्मकामना अत्यंत सबल होकर जागी कि जैसे सुदूर अतीत में साहसी और त्यागी धर्मदूत भिक्षुओं के माध्यम से भगवान बुद्ध की कल्याणी वाणी और विपश्यना विद्या हिंद महासागर तथा बंग और सिंधु सागर की उत्ताल तरंगों पर सवार होकर देश-विदेशों में फैली, जिस प्रकार निकट भूतकाल में स्वामी विवेकानंदजी के माध्यम से भारत की एक अन्य महत्त्वपूर्ण आध्यात्मिक परंपरा दूर देशों में फैली, वैसे ही अब सर्वजन हितकारिणी विपश्यना विद्या एक बार फिर चारों दिशाओं के छहों महाद्वीपों में फैलेगी और वहां के संतप्त मानवों को सद्धर्म की सुधा-धारा से संतृप्त कर, भव-संसरण के दु:खों से मुक्त करेगी। भारत की पावन भूमि इस द्वितीय बुद्ध शासन काल में एक बार पुनः लोककल्याण करने का गौरव प्राप्त करेगी। निकट दक्षिण में हिंद महासागर से सतत अभिषिक्त मुकुलित कमल सदृश श्रीलंका का धर्मद्वीप, निकट पूर्व में भारत की पुण्य भूमि से सटी हुई मेरी पावन जन्मभूमि बरमा, तथा इनके साथ-साथ समस्त एशियाव्यापी बुद्ध संतति के अन्यान्य धर्म देश इस पुनीत अभियान में सहयोग देकर पुण्यलाभी बनें। इन्हीं मंगल भावनाओं से आप्लावित होकर, अत्यंत प्रसन्न चित्त से हमने अपनी सुदूर दक्षिण की तीर्थयात्रा पूरी की।मुझे यह भी जान कर अत्यंत प्रसन्नता हुई थी कि स्वामी विवेकानंदजी ने अपने जीवन के कुछ एक अंतिम दिवस बोधगया में बोधिवृक्ष के तले ध्यान करते हए बिताये थे। हम नहीं जानते कि उन्होंने विवेकानंद द्वीप पर, अथवा बोधिवृक्ष के तले कैसी ध्यान साधना की। परंतु इतना स्पष्ट है कि विपश्यना तो नहीं ही की, क्योंकि उस समय तक भारत में विपश्यना का पुनरागमन नहीं हुआ था। भारत अपनी इस पुरातन अनमोल धरोहर से सर्वथा अनभिज्ञ था।काश! स्वामी विवेकानंदजी जैसे विचक्षण प्रतिभाशाली संत पुरुष को भारत की पुरातन विपश्यना विद्या और साथ-साथ भगवान बुद्ध की मूल वाणी प्राप्त हुई होती तो उसका कितना कल्याणकारी परिणाम होता। उनके मन में भगवान बुद्ध के व्यक्तित्व के प्रति जितनी आस्था और श्रद्धा थी, उतनी ही उनकी शिक्षा के प्रति भी होती। दुर्भाग्य से भारत में सदियों से चले आते हुए मिथ्या प्रचार के कारण उनके मन में जो भ्रांतियां जागीं, वे अवश्य दूर हो जातीं और उस अवस्था में देश तथा विश्व को दी हुई उनकी आध्यात्मिक देन कई गुना अधिक महत्त्वपूर्ण हो पाती। परंतु विपश्यना विद्या और बुद्ध की मूल शिक्षा समय पकने पर ही भारत में पुन: उजागर हो सकी। ऐसा माना जाता है कि पुरातन भारत के एक महान संत ने भविष्यवाणी की थी कि भगवान बुद्ध के 2500 वर्ष पश्चात ही ये दोनों पुन: भारत लौटेंगी, और तभी लौट पायीं। परंतु फिर भी परम पूज्य स्वामी विवेकानंदजी ने भगवान बुद्ध के व्यक्तित्व के प्रति जो असीम श्रद्धा प्रकट की उसके कारण मेरे हृदय में भगवान बुद्ध के प्रति जो भक्तिभाव था, उसका संवर्धन हुआ। मेरा अतुल उपकार हुआ।🌺 भगवान बुद्ध की महानता ये हैं भगवान बुद्ध के प्रति स्वामी विवेकानंदजी के कुछ एक हृदयोद्गार, जिनके कारण भगवान बुद्ध के प्रति बचपन में मेरे मानस में जो बिरवा रोपा गया था, उसका संजीवनीय अभिसिंचन हुआ। श्रद्धा की जो बुनियाद पड़ी थी वह दृढ़ से दृढ़तर हुई। यथाः--• एक हजार वर्ष तक जिस विशाल तरंग ने समग्र भारत को सराबोर कर दिया था, उसके सर्वोच्च शिखर पर एक और महामहिम मूर्ति को देखते हैं और वे हमारे शाक्यमुनि गौतम हैं।• जहां तक चरित्र का सवाल है, बुद्ध संसार के सबसे महान चरित्रवान व्यक्ति थे।• नैतिकता का इतना बड़ा निर्भीक प्रचारक संसार में और उत्पन्न नहीं हुआ।• अन्य किसी की अपेक्षा मैं इस चरित्र के प्रति सबसे अधिक श्रद्धा रखता हूं। वह साहस, वह निर्भीकता, वह विराट प्रेम।• वह बुद्ध था जिसके पास अभीष्ट मस्तिष्क, अभीष्ट शक्ति और विस्तीर्ण आकाश जैसा अभीष्ट हृदय था।• उनके विशाल हृदय का सहस्रांश पाकर भी मैं स्वयं को धन्य मानता।• अपने राजपाट और सब प्रकार के सुखों को तिलांजलि देकर इस राजकुमार ने अपना सिंधु-सा विशाल हृदय लेकर नर-नारी तथा जीवजंतुओं के कल्याण हेतु आर्यावर्त की वीथी-वीथी में भ्रमण कर भिक्षावृत्तिसे जीवन निर्वाह करते हुए अपने उपदेशों का प्रचार किया। • बुद्ध ही एक व्यक्ति थे जो पूर्णतया तथा यथार्थ में निष्काम कहे जा सकते हैं। • भगवान पूर्णरूप से निष्काम थे। वे कर्मयोग के ज्वलंत आदर्श स्वरूप थे और जिस उच्च अवस्था पर वे पहुँच गये थे, उससे प्रतीत होता है कि कर्मशक्ति द्वारा हम भी उच्चतम आध्यात्मिक स्थिति को प्राप्त कर सकते हैं।• उन्हें वह पूर्ण अवस्था प्राप्त हो गयी थी जो अन्यजन भक्ति, ज्ञान या योग के मार्ग से प्राप्त करते हैं।• केवल निष्काम कर्म ही मनुष्य को पूर्णत्व तक पहुँचा सकता है। • वह विराट मस्तिष्क कभी अंधविश्वासी नहीं हुआ।• उन्होंने ईश्वर संबंधी प्रचलित धारणाओं में अंतर्निहित मनोवृत्ति का खंडन किया। उन्होंने देखा कि वे मनुष्य को दुर्बल और अंधविश्वासी बनाती हैं।• ऐसे अन्य कई महापुरुष थे जो अपने को ईश्वर का अवतार कहते थे और विश्वास दिलाते थे कि जो उनमें श्रद्धा रखेंगे वे स्वर्ग प्राप्त कर सकेंगे। पर बुद्ध के अधरों पर अंतिम क्षण तक यही शब्द थे- “अपनी उन्नति अपने ही प्रयत्न से होगी। अन्य कोई इसमें तुम्हारा सहायक नहीं हो सकता। स्वयं अपनी मुक्ति प्राप्त करो।” • संसार के समस्त शिक्षकों में वे ही केवल एक ऐसे शिक्षक हैं जिन्होंने हमें स्वावलंबी होने की शिक्षा सबसे अधिक दी। उन्होंने हमें मिथ्या मान्यताओं के बंधन से ही नहीं, वरन ईश्वर या देवता कही जाने वाली अदृश्य शक्ति, सत्ता या सत्ताओं पर निर्भरता से भी मुक्त किया।• अपनी मुक्ति स्वयं ही निष्पन्न करो। • हर स्वावलंबी वस्तु सुखी होती है, हर परावलंबी वस्तु दु:खी।• बुद्ध की शिक्षा में सब मनुष्य बराबर हैं। वहां किसी के साथ कोई रियायत नहीं। बुद्ध समता के महान उपदेष्टा थे। • उन्होंने पुरोहितों और अन्य जातियों के मध्य अंतर का उन्मूलन कर दिया। निम्नतर लोग भी उच्चतम उपलब्धियों के अधिकारी हैं। मेरे लिए बुद्ध की महानता निर्विवाद थी। उन्होंने तत्कालीन समाज में फैले हुए अंधविश्वास को दूर किया। लोगों को स्वावलंबी बनाया। समाज में कोढ़ की भांति फैले हुए जाति-पांति पर आधारित ऊंच-नीच के भेदभाव को दूर करने का प्रबल प्रयत्न किया। व्यक्ति-व्यक्ति को अपना मन स्फटिक की भांति निर्मल करना सिखाया। इसी कारण वे विश्ववंद्य हुए, जगतपूजित हुए। इतना कुछ होते हुए भी उनकी शिक्षा में अवश्य कहीं कोई भूल थी, कहीं कोई कमी थी, जिसके कारण स्वामी विवेकानंदजी को कहना पड़ा.. "अपने सारे जीवन में मैं बुद्ध का अनुरागी रहा हूं, परंतु उनकी शिक्षा का नहीं।"इन शब्दों के कारण बुद्ध की शिक्षा के प्रति उन दिनों मेरे मन में जो भ्रम भ्रांति थी, वह अधिक प्रगाढ़ हो गयी।स्वामी विवेकानंदजी की वाणी द्वारा बुद्ध-शिक्षा की जो भूलें और खामियां मेरे मन में घर कर गयीं, वे तब तक दूर नहीं हुई, जब तक कि विपश्यना के प्रथम शिविर में सम्मिलित होकर मैंने स्वयं उनकी शिक्षा के विशुद्ध व्यावहारिक पक्ष का सक्रिय अभ्यास नहीं कर लिया, और तदनंतर मूल बुद्धवाणी का सार्थक अध्ययन करके उसे नितांत निर्दोष और निष्कलंक देख कर पूर्णतया आश्वस्त हो गया। काश! स्वामीजी भी विपश्यना कर पाये होते।... स० ना गोयन्का(आत्म कथन भाग 2 से साभार) May-2019क्रमशः ...-------------------------------------------------------- 🌺 🌺

🌺 स्वामी विवेकानंदजी का मेरे जीवन पर विपुल प्रभाव 🌺
The Profound Influence of Swami Vivekananda on My Life

स्वामी विवेकानंदजी सदैव मेरे श्रद्धाभाजन रहे हैं। युद्धोतर म्यंमा में रंगून की श्रीरामकृष्ण मिशन सोसायटी और श्रीरामकृष्ण मिशन सेवाश्रम में अपनी सक्रिय सेवा देते हुए वहां के विद्वान और चरित्रवान, करुणहृदय
और सेवाभावी संन्यासियों के साथ काम करने का और उनके सत्संग का बहुत लाभ मिला। उनसे ही स्वामी विवेकानंदजी के आकर्षक व्यक्तित्व और प्रभावशाली कर्तृत्व की महती जानकारी प्राप्त हुई जिससे मुझे प्रभूत प्रेरणा मिली।

कुछ वर्षों पूर्व दक्षिण भारत में विपश्यना के शिविर लगाते हुए अपने परिवार के कुछ सदस्यों के साथ कन्याकुमारी की तीर्थयात्रा पर गया। वहां पावन भारत-भूमि के अंतिम दक्षिणी छोर को तीन समुद्रों का जल स्पर्श करते रहता है मानो तीनों सागर मिल कर भारत माता के पांव धोते रहते हैं। 
 यह वही स्थल है जिसका दर्शन बोधिसत्त्व को बुद्धत्व प्राप्ति के पूर्व की रात अपने विराटकाय बुद्ध स्वरूप के साथ स्वप्न में हुआ था। उन्होंने स्वप्न में देखा कि वे उच्च हिमालय की तकिया बना कर समग्र भारत भूमि पर लेटे हैं और उनके पांव यहीं कन्याकुमारी के तट तक फैले हुए हैं जहां तीन समुद्रों का जल उनका पाद प्रक्षालन कर गौरवान्वित हो रहा है। स्वप्न में यह भी देखा कि उन विशालकाय भगवान बुद्ध का एक हाथ (बंग सागर के तट तक और दूसरा हाथ सिंधु सागर के तट तक फैला है और वहां के सागर की उमंग भरी ऊर्मियां उनके हाथों का प्रक्षालन कर उल्लसित हो रही हैं। यह स्वप्न उस भावी सत्य का पूर्व आभास था कि भगवान की पावन शिक्षा समग्र भारत द्वारा सहर्ष स्वीकृत की जायगी और तदनंतर हिमालय से उत्तर दिशा की ओर तथा इन समुद्री तटों से अन्य सभी दिशाओं की ओर देश-विदेशों में फैलेगी। 
 यह वही तट है जहां से तैर कर स्वामी विवेकानंदजी सामने के चट्टानी द्वीप पर गये थे और तीन दिनों तक वहीं ध्यान-मग्न रहे थे। किसी भी भारतीय के लिए इस त्रिविध पावन स्थल का भावनात्मक महत्त्व स्वाभाविक है। 

भारतीय प्रायद्वीप के इस अंतिम छोर के तट पर तीनों सागरों का स्नेह संगम और तीनों की जल लहरियों का पारस्परिक तटवर्ती क्रीड़ा-किलोल अत्यंत मनोहारी था। हम तट पर बैठे इस अनोखे चित्ताकर्षक दृश्य का आनंद ले रहे थे। इतने में देखा, दो-चार नवयुवक मुस्कराते हुए हमारी ओर चले आ रहे हैं। उन्होंने हमें अभिवादन करके बताया कि वे स्थानीय विवेकानंद केंद्र के कार्यकर्ता हैं। उन्हें हमारे आने की कोई सूचना नहीं थी। परंतु उनमें से एक दो विपश्यी थे। उन्होंने मुझे पहचान लिया। बड़े प्यार और सम्मान के साथ मार्गदर्शन करते हुए उन्होंने हमारी इस अपरिचित, अनजान स्थान की तीर्थ यात्रा को अत्यंत सुखद और सफल बनाया। हम कृतार्थ हुए।

वे हमें एक छोटे जहाज से विवेकानंद चट्टान पर ले गये। वहां का भव्य और कलापूर्ण मंदिर देखा। वहीं भीतर बने एक ध्यान प्रकोष्ठ में ले गये। ऐसी मान्यता है कि यहीं स्वामीजी ने तीन दिन तपस्या की थी। हम भी उस पावन स्थली पर कुछ घंटों तक ध्यान करके अत्यंत सुख-विभोर हुए।

साधना करते हुए मन में यह धर्मकामना अत्यंत सबल होकर जागी कि जैसे सुदूर अतीत में साहसी और त्यागी धर्मदूत भिक्षुओं के माध्यम से भगवान बुद्ध की कल्याणी वाणी और विपश्यना विद्या हिंद महासागर तथा बंग और सिंधु सागर की उत्ताल तरंगों पर सवार होकर देश-विदेशों में फैली, जिस प्रकार निकट भूतकाल में स्वामी विवेकानंदजी के माध्यम से भारत की एक अन्य महत्त्वपूर्ण आध्यात्मिक परंपरा दूर देशों में फैली, वैसे ही अब सर्वजन हितकारिणी विपश्यना विद्या एक बार फिर चारों दिशाओं के छहों महाद्वीपों में फैलेगी और वहां के संतप्त मानवों को सद्धर्म की सुधा-धारा से संतृप्त कर, भव-संसरण के दु:खों से मुक्त करेगी। भारत की पावन भूमि इस द्वितीय बुद्ध शासन काल में एक बार पुनः लोककल्याण करने का गौरव प्राप्त करेगी। निकट दक्षिण में हिंद महासागर से सतत अभिषिक्त मुकुलित कमल सदृश श्रीलंका का धर्मद्वीप, निकट पूर्व में भारत की पुण्य भूमि से सटी हुई मेरी पावन जन्मभूमि बरमा, तथा इनके साथ-साथ समस्त एशियाव्यापी बुद्ध संतति के अन्यान्य धर्म देश इस पुनीत अभियान में सहयोग देकर पुण्यलाभी बनें। इन्हीं मंगल भावनाओं से आप्लावित होकर, अत्यंत प्रसन्न चित्त से हमने अपनी सुदूर दक्षिण की तीर्थयात्रा पूरी की।

मुझे यह भी जान कर अत्यंत प्रसन्नता हुई थी कि स्वामी विवेकानंदजी ने अपने जीवन के कुछ एक अंतिम दिवस बोधगया में बोधिवृक्ष के तले ध्यान करते हए बिताये थे। हम नहीं जानते कि उन्होंने विवेकानंद द्वीप पर, अथवा बोधिवृक्ष के तले कैसी ध्यान साधना की। परंतु इतना स्पष्ट है कि विपश्यना तो नहीं ही की, क्योंकि उस समय तक भारत में विपश्यना का पुनरागमन नहीं हुआ था। भारत अपनी इस पुरातन अनमोल धरोहर से सर्वथा अनभिज्ञ था।

काश! स्वामी विवेकानंदजी जैसे विचक्षण प्रतिभाशाली संत पुरुष को भारत की पुरातन विपश्यना विद्या और साथ-साथ भगवान बुद्ध की मूल वाणी प्राप्त हुई होती तो उसका कितना कल्याणकारी परिणाम होता। उनके मन में भगवान बुद्ध के व्यक्तित्व के प्रति जितनी आस्था और श्रद्धा थी, उतनी ही उनकी शिक्षा के प्रति भी होती। दुर्भाग्य से भारत में सदियों से चले आते हुए मिथ्या प्रचार के कारण उनके मन में जो भ्रांतियां जागीं, वे अवश्य दूर हो जातीं और उस अवस्था में देश तथा विश्व को दी हुई उनकी आध्यात्मिक देन कई गुना अधिक महत्त्वपूर्ण हो पाती। परंतु विपश्यना विद्या और बुद्ध की मूल शिक्षा समय पकने पर ही भारत में पुन: उजागर हो सकी। ऐसा माना जाता है कि पुरातन भारत के एक महान संत ने भविष्यवाणी की थी कि भगवान बुद्ध के 2500 वर्ष पश्चात ही ये दोनों पुन: भारत लौटेंगी, और तभी लौट पायीं। परंतु फिर भी परम पूज्य स्वामी विवेकानंदजी ने भगवान बुद्ध के व्यक्तित्व के प्रति जो असीम श्रद्धा प्रकट की उसके कारण मेरे हृदय में भगवान बुद्ध के प्रति जो भक्तिभाव था, उसका संवर्धन हुआ। मेरा अतुल उपकार हुआ।

🌺 भगवान बुद्ध की महानता 
ये हैं भगवान बुद्ध के प्रति स्वामी विवेकानंदजी के कुछ एक हृदयोद्गार, जिनके कारण भगवान बुद्ध के प्रति बचपन में मेरे मानस में जो बिरवा रोपा गया था, उसका संजीवनीय अभिसिंचन हुआ। श्रद्धा की जो बुनियाद पड़ी थी वह दृढ़ से दृढ़तर हुई। यथाः--
• एक हजार वर्ष तक जिस विशाल तरंग ने समग्र भारत को सराबोर कर दिया था, उसके सर्वोच्च शिखर पर एक और महामहिम मूर्ति को देखते हैं और वे हमारे शाक्यमुनि गौतम हैं।
• जहां तक चरित्र का सवाल है, बुद्ध संसार के सबसे महान चरित्रवान व्यक्ति थे।
• नैतिकता का इतना बड़ा निर्भीक प्रचारक संसार में और उत्पन्न नहीं हुआ।
• अन्य किसी की अपेक्षा मैं इस चरित्र के प्रति सबसे अधिक श्रद्धा रखता हूं। वह साहस, वह निर्भीकता, वह विराट प्रेम।
• वह बुद्ध था जिसके पास अभीष्ट मस्तिष्क, अभीष्ट शक्ति और विस्तीर्ण आकाश जैसा अभीष्ट हृदय था।
• उनके विशाल हृदय का सहस्रांश पाकर भी मैं स्वयं को धन्य मानता।
• अपने राजपाट और सब प्रकार के सुखों को तिलांजलि देकर इस राजकुमार ने अपना सिंधु-सा विशाल हृदय लेकर नर-नारी तथा जीवजंतुओं के कल्याण हेतु आर्यावर्त की वीथी-वीथी में भ्रमण कर भिक्षावृत्ति
से जीवन निर्वाह करते हुए अपने उपदेशों का प्रचार किया। 
• बुद्ध ही एक व्यक्ति थे जो पूर्णतया तथा यथार्थ में निष्काम कहे जा सकते हैं। 
 • भगवान पूर्णरूप से निष्काम थे। वे कर्मयोग के ज्वलंत आदर्श स्वरूप थे और जिस उच्च अवस्था पर वे पहुँच गये थे, उससे प्रतीत होता है कि कर्मशक्ति द्वारा हम भी उच्चतम आध्यात्मिक स्थिति को प्राप्त कर सकते हैं।
• उन्हें वह पूर्ण अवस्था प्राप्त हो गयी थी जो अन्यजन भक्ति, ज्ञान या योग के मार्ग से प्राप्त करते हैं।
• केवल निष्काम कर्म ही मनुष्य को पूर्णत्व तक पहुँचा सकता है। 
• वह विराट मस्तिष्क कभी अंधविश्वासी नहीं हुआ।
• उन्होंने ईश्वर संबंधी प्रचलित धारणाओं में अंतर्निहित मनोवृत्ति का खंडन किया। उन्होंने देखा कि वे मनुष्य को दुर्बल और अंधविश्वासी बनाती हैं।
• ऐसे अन्य कई महापुरुष थे जो अपने को ईश्वर का अवतार कहते थे और विश्वास दिलाते थे कि जो उनमें श्रद्धा रखेंगे वे स्वर्ग प्राप्त कर सकेंगे। पर बुद्ध के अधरों पर अंतिम क्षण तक यही शब्द थे- “अपनी उन्नति अपने ही प्रयत्न से होगी। अन्य कोई इसमें तुम्हारा सहायक नहीं हो सकता। स्वयं अपनी मुक्ति प्राप्त करो।” 
 • संसार के समस्त शिक्षकों में वे ही केवल एक ऐसे शिक्षक हैं जिन्होंने हमें स्वावलंबी होने की शिक्षा सबसे अधिक दी। उन्होंने हमें मिथ्या मान्यताओं के बंधन से ही नहीं, वरन ईश्वर या देवता कही जाने वाली अदृश्य शक्ति, सत्ता या सत्ताओं पर निर्भरता से भी मुक्त किया।
• अपनी मुक्ति स्वयं ही निष्पन्न करो। 
• हर स्वावलंबी वस्तु सुखी होती है, हर परावलंबी वस्तु दु:खी।
• बुद्ध की शिक्षा में सब मनुष्य बराबर हैं। वहां किसी के साथ कोई रियायत नहीं। बुद्ध समता के महान उपदेष्टा थे। 
 • उन्होंने पुरोहितों और अन्य जातियों के मध्य अंतर का उन्मूलन कर दिया। निम्नतर लोग भी उच्चतम उपलब्धियों के अधिकारी हैं। 

 मेरे लिए बुद्ध की महानता निर्विवाद थी। उन्होंने तत्कालीन समाज में फैले हुए अंधविश्वास को दूर किया। लोगों को स्वावलंबी बनाया। समाज में कोढ़ की भांति फैले हुए जाति-पांति पर आधारित ऊंच-नीच के भेदभाव को दूर करने का प्रबल प्रयत्न किया। व्यक्ति-व्यक्ति को अपना मन स्फटिक की भांति निर्मल करना सिखाया। इसी कारण वे विश्ववंद्य हुए, जगतपूजित हुए। इतना कुछ होते हुए भी उनकी शिक्षा में अवश्य कहीं कोई भूल थी, कहीं कोई कमी थी, जिसके कारण स्वामी विवेकानंदजी को कहना पड़ा
.. "अपने सारे जीवन में मैं बुद्ध का अनुरागी रहा हूं, परंतु उनकी शिक्षा का नहीं।"
इन शब्दों के कारण बुद्ध की शिक्षा के प्रति उन दिनों मेरे मन में जो भ्रम भ्रांति थी, वह अधिक प्रगाढ़ हो गयी।
स्वामी विवेकानंदजी की वाणी द्वारा बुद्ध-शिक्षा की जो भूलें और खामियां मेरे मन में घर कर गयीं, वे तब तक दूर नहीं हुई, जब तक कि विपश्यना के प्रथम शिविर में सम्मिलित होकर मैंने स्वयं उनकी शिक्षा के विशुद्ध व्यावहारिक पक्ष का सक्रिय अभ्यास नहीं कर लिया, और तदनंतर मूल बुद्धवाणी का सार्थक अध्ययन करके उसे नितांत निर्दोष और निष्कलंक देख कर पूर्णतया आश्वस्त हो गया। काश! स्वामीजी भी विपश्यना कर पाये होते।... 
स० ना गोयन्का
(आत्म कथन भाग 2 से साभार) May-2019
क्रमशः ...
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उत्तराधिकारी कौन

🌹?🌹
🌷Who is a successor?🌷

किसी पिता के एक या अधिक संतान हों तो वे सब उसके उत्तराधिकारी होते हैं। उसकी धन-दौलत, जायदाद के मालिक होते हैं। उसे बढ़ाते हैं या गॅवाते हैं।
लेकिन धर्म के क्षेत्र में ऐसा कदापि नहीं होता। भगवान बुद्ध से जिन्होंने विपश्यना सीखी और उसे फैलाया, वे सब उनके उत्तराधिकारी बने। उन उत्तराधिकारी शिक्षकों ने औरों को विपश्यना सिखा कर, उसमें प्रवीण करके, उन्हें अपना उत्तराधिकारी बनाया। इस प्रकार पीढ़ी-दर-पीढ़ी गुरु-शिष्य परंपरा के आधार पर इन सभी उत्ताधिकारियों ने धर्म सिखाया। सम्राट अशोक के समय भिक्षु सोण और उत्तर हुए। वे भगवान का धर्म सीख कर उनके उत्तराधिकारी हुए और इसी रूप में धर्म सिखाने के लिए म्यंमा गये। वहां सामान्य लोगों को धर्म सिखाने के  साथ-साथ उन्होंने कुछ ऐसे शिष्य तैयार किये जिन्होंने भगवान के उत्तराधिकारी के रूप में इस गुरु-शिष्य परंपरा को कायम रखा।

भगवान बुद्ध ने कभी अपने पुत्र राहुल को अपना उत्तराधिकारी नहीं बनाया। आगे जाकर गुरु नानकदेवजी ने अपने शिष्य अंगद देव को अपना उत्तराधिकारी बनाया, न कि अपने पुत्र को। धर्म के क्षेत्र में उत्तराधिकारी वही होता है जो अपने गुरु से धर्म सिखाने की विद्या प्राप्त करके उसे सिखाने लगता है। यह गुरु-शिष्य परंपरा पिछले ढाई हजार वर्षों से चलती आ रही है और आगे भी चलती रहेगी।

गुरुदेव सयाजी ऊ बा खिन से मैंने विपश्यना साधना, यानी, शुद्ध धर्म सीखा और उनकी उत्कट अभिलाषा को पूरी करते हुए भारत आकर लोगों को धर्म सिखाने लगा। रंगून रहते हुए 14 वर्षों तक मैं उनके संपर्क में रहा और देखा कि न जाने कितनी बार उन्होंने इन शब्दों का उच्चारण किया होगा, 'भारत से हमें विपश्यना के रूप में अनमोल रत्न मिला। परंतु आज भारत इस रत्न को खोकर कंगाल हो गया है। इसे पुनः भारत ले जाकर हमें भारत का कर्ज चुकाना है। यह कर्ज और कौन चुका पायेगा भला! मैं ही चुकाऊंगा।" उन्हें ही भारत आकर अनमोल कर्ज चुकाना था।

वे स्वयं भारत आकर यहां विपश्यना का पुनर्जागरण करना चाहते थे, परंतु उन दिनों बर्मी नागरिकों को दो कारणों से ही पासपोर्ट दिया जाता था -- या तो वे बर्मा छोड़ कर सदा के लिए चले जायें या उन्हें कहीं बाहर नौकरी मिल रही हो । सयाजी ऊ बा खिन न तो सदा के लिए बर्मा छोड़ना चाहते थे और न ही भारत आने के लिए किसी झूठी नौकरी का सहारा लेना चाहते थे। अतः सरकार ने उन्हें पासपोर्ट नहीं दिया और वे भारत नहीं आ सके। परंतु एक अत्यंत विशिष्ट कारण से सौभाग्यवश मुझे बर्मा का पासपोर्ट मिला। मेरी माता बम्बई (मुंबई) में मानसिक रूप से अस्वस्थ हो गई थी और मैं जानता था कि यदि वह विपश्यना कर लेगी तो स्वस्थ हो जायगी। बर्मी केबिनेट में मेरे दो घनिष्ठ मित्र थे। उन्होंने मेरा पुरजोर समर्थन किया और इस विशेष कारण से मुझे पासपोर्ट मिल गया।

गुरुदेव इस घटना से बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने कहा कि यद्यपि मैं स्वयं भारत का कर्जा नहीं चुका सकता, परंतु अब यह काम मेरी ओर से तुम्हें करना होगा। उनसे विपश्यना विद्या में पारंगत होकर मैं भारत आया और गुरुदेव के इस उद्देश्य की पूर्ति में लग गया। अतः धर्म के क्षेत्र में गुरु-शिष्य परंपरा के अनुसार मैं गुरुदेव सयाजी ऊ बा खिन का उत्तराधिकारी हुआ । मैंने भारत में अनेकों को विपश्यना की शिक्षा दी और कुछ को आचार्य पद पर स्थापित किया। जो आचार्यपद पर स्थापित हुए वे विपश्यना सिखाते हुए मेरे उत्तराधिकारी हुए। यों गुरुदेव के सपनों को साकार होते देख कर मेरे मन का बोझ हल्का हुआ। बर्मा पर भारत का जो कर्जा था, उसे चुकाने का काम आरंभ हुआ।

आगे जाकर विपश्यना के अनेक केंद्र बने और शनैः शनैः भारत में ही नहीं, बल्कि विश्व के अनेक देशों में केंद्र बनते गये। जहां-जहां ये केंद्र स्थापित हुए, वहां उन सभी केंद्रों में प्रशिक्षण देने वाले आचार्य मेरे उत्तराधिकारी ही हैं। क्योंकि मैंने उन्हें जो विपश्यना सिखायी, उसे वे फैलाने का ही काम कर रहे हैं।
जब दूर-दराज के अनेक स्थानों पर विपश्यना के अनेक केंद्र बन गये और बनते ही जा रहे हैं तब मैंने निश्चय किया कि प्रत्येक स्थानीय केंद्र पर प्रशिक्षक के रूप में एक-एक अलग-अलग उत्तराधिकारी हो, परंतु जहां कहीं आवश्यक हो, वहां उन्हें परामर्श देने के लिए अनेक प्रादेशिक आचार्य भी नियुक्त हों। जहां अनेक प्रादेशिक आचार्य काम कर रहे हों, वहां आवश्यक होने पर एक-एक बड़े क्षेत्र के लिए एक भौगोलिक आचार्य हो। केंद्रीय आचार्य, प्रादेशिक आचार्य तथा भौगोलिक आचार्यों की नियुक्ति होने पर वे सभी मेरे उत्तराधिकारी माने जायेंगे। इनके नाम मैं शीघ्र प्रकाशित करूंगा।

किसी केंद्र का अथवा प्रादेशिक या भौगोलिक क्षेत्र का उत्तराधिकारी हो जाने का अर्थ यह नहीं हुआ कि वह उस-उस केंद्र या क्षेत्र का मालिक हो गया। सभी आचार्य मात्र प्रशिक्षण क्षेत्र के उत्तराधिकारी हैं।
ऐसे ही केंद्र का संचालन करने वाले ट्रस्टियों का भी कोई उत्तराधिकार नहीं होता। किसी केंद्र में कोई मान-सम्मान या पद-प्रतिष्ठा पाने का अधिकार भी नहीं होता। वे सभी धर्मसेवक हैं। और केंद्र की यथावश्यक सेवा करते हैं। जिस किसी व्यक्ति ने धर्मस्थल के लिए जमीन दान दी अथवा किसी ने उस पर कोई इमारत बनवा दी, तब दान दी गयी जमीन पर, अथवा उस पर बनायी गयी इमारत पर, उसकी कोई मल्कियत नहीं हो सकती। मल्कियत धर्म की होती है, दानी की नहीं । उनको अपने-अपने दान का और सेवा का अमूल्य पुण्यलाभ प्राप्त हो जाता है, बस इतना ही।

उदाहरण स्वरूप भगवान बुद्ध के समय अनाथपिडिक ने सोने के सिक्के बिछा कर भगवान को भूमि का दान दिया। उस भूमि पर बहुत-सा धन लगा कर आवासीय आवश्यकताओं की भी पूर्ति की। इतना होने पर भी अनाथपिंडिक धर्म की परंपरा को खूब समझता था कि दान दी गयी भूमि और उस पर बनाई गयी इमारतों पर उसका रंचमात्र भी अधिकार नहीं है। जो दान दे दिया सो दे दिया। बदले में कुछ प्राप्त करने की भावना अत्यंत दोषपूर्ण है। यद्यपि उसने देखा कि वर्षावास के बाद जब भगवान अपने भिक्षुओं के साथ अन्य प्रदेशों में विहार करने चले जाते हैं तब यह विहार बिल्कुल सूना पड़ जाता है। भगवान के प्रवास के समय यहां जो भीड़ लगती, वह अब नहीं आती। उसकी बहुत इच्छा थी कि भगवान की अनुपस्थिति में भी लोगों की भीड़ सतत बनी रहे। इस निमित्त उस भूमि पर वह भगवान का एक मंदिर जैसा स्थान बनाना चाहता था। परंतु बहुत चाहते हुए भी ऐसा नहीं कर सका। क्योंकि जो भूमि दान दे दी, उस पर उसका कोई अधिकार नहीं था। अतः अपनी इच्छा पूरी करने के लिए वह भगवान से प्रार्थना करने गया कि उसे वहां एक मंदिर बनवाने की अनुमति दें। यदि दान दी गयी भूमि पर उसकी मल्कियत होती तो उसे भगवान से अनुमति लेने की क्या आवश्यकता थी? भगवान ने अनुमति नहीं दी। क्योंकि वे नहीं चाहते थे कि धर्म का स्थान पूजन-अर्चन और भीड़-भाड़ आदि के लिए हो। वह तो ध्यान के लिए होता है। अतः भगवान ने बोधिवृक्ष की शाखा मॅगवा कर वहां लगवायी और कहा, 'इसके बढ़ जाने पर लोग इसके नीचे बैठ कर ध्यान करेंगे। इस प्रकार इस धरती का लोगों को सही लाभ मिलेगा।

इसी प्रकार आज भी जमीन का, या उस पर केंद्र बनाने का, दान देने वाले व्यक्ति इस पुरातन परंपरा को खूब समझते रहें कि दिये हुए दान पर उनका रंचमात्र भी अधिकार नहीं हो सकता। धर्म की यह शुद्ध परंपरा कायम रहेगी तभी धर्म की सही अभिवृद्धि होती रहेगी। यहां सदैव पीढ़ी-दर-पीढ़ी धर्म का ही प्रशिक्षण दिया जाता रहेगा। केंद्र के आचार्य समय-समय पर बदलते रहेंगे, परंतु धर्म प्रशिक्षण का कार्य सतत चलता रहेगा।

विपश्यना के अनेक केंद्रों की स्थापना हो जाने पर मेरे मन में कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण विचार उठे, जिनका विपश्यना के प्रशिक्षण से कोई संबंध नहीं था। एक महत्त्वपूर्ण विचार तो यह आया कि भगवान बुद्ध की पावन शिक्षा भारत से कैसे पूर्णतया लुप्त हुई ? इसका अनुसंधान हो और भारत तथा विश्व में अब पुनः जाग्रत हुई। इस विद्या की समग्र प्रशिक्षण सामग्री सदियों तक सुरक्षित रहे। साथ ही भगवान की शिक्षा का प्रमुख साहित्य 'तिपिटक' यानी, इसका परियत्ति-पक्ष (Theoretical aspect) जो भारत से लुप्त हो चुका था, वह भी पुनः प्रकाशित हो। इसके लिए 'विपश्यना विशोधन विन्यास' के नाम से एक शोध संस्थान गठित हो। आने वाले युगों में बुद्ध की शिक्षा के पुनर्जागरण से संबंधित सारा साहित्य इसके पास सुरक्षित ही नहीं रहे, बल्कि आज और आगे भी सदियों तक इसका उपयोग और अनुसंधान भी होता रहे। इस विशोधन के लिए शोध करने वाले भिन्न-भिन्न मर्मज्ञ समय-समय पर सेवा में लगते रहेंगे। यानी, इस विशोधन-कार्य में गुरु-शिष्य परंपरा बिल्कुल नहीं रहेगी। इसीलिए जब इसका ट्रस्ट-डीड बने तब इस विशोधन संस्था के लिए मेरे द्वारा एक योग्य उत्तराधिकारी बनाने का प्रावधान रखा जाय।

मेरे मन में दूसरा विचार यह उठा कि भगवान बुद्ध की पावन धातुओं का सही सम्मान तभी होगा जब कि वे भगवान के मार्गदर्शन के अनुसार किसी भव्य स्तूप में सन्निधानित की जायेंगी। यह भव्य स्तूप भी ब्रह्मदेश की स्थापत्यकला के आधार पर ही बने। यह इसलिए कि ब्रह्मदेश ने सम्राट अशोक से प्राप्त हुई परियत्ति, यानी, बुद्ध-वाणी और पटिपत्ति, यानी, विपश्यना को गुरु-शिष्य परंपरा से पीढ़ी-दर-पीढ़ी दो हजार वर्षों तक शुद्ध रूप में कायम रखा। तभी ये दोनों हमें प्राप्त हुईं। जैसे बर्मा के लोगों ने भारत का उपकार माना, क्योंकि यहीं से उन्हें शुद्ध धर्म प्राप्त हुआ; साथ-साथ सम्राट अशोक का भी उपकार माना, जिसके प्रयास से उन्हें धर्म प्राप्त हुआ। इसी प्रकार आज भारत के लोग भी बर्मा का उपकार मानें, और साथ-साथ सयाजी ऊ बा खिन का भी उपकार मानें, जिन्होंने कि बर्मा का कर्ज चुकाने के लिए मुझे पूरी तरह से प्रशिक्षित करके भारत भेजा। इन दोनों के उपकारों की पावन स्मृतियां दीर्घकाल तक बनी रहें, इस निमित्त मेरे मन में एक भव्य स्तूप - विश्व विपश्यना पगोडा के निर्माण की योजना जागी। यह विश्वभर के बुद्धानुयायियों, विशेष करके विपश्यी साधकों को आह्वान करने के लिए एक आकर्षक प्रकाश स्तंभ होगा। इसके लिए 'ग्लोबल विपश्यना फाउंडेशन' का गठन किया जायगा और यह ध्यान रखा जायगा कि इस पगोडा की बनावट बर्मी स्थापत्य एवं वास्तुकला के अनुसार हो ताकि आज ही नहीं, भविष्य में भी लोगों को बर्मा तथा सयाजी ऊ बा खिन के उपकारों की याद आती रहे।

मेरी इस कल्पना के अनुसार पगोडा का निर्माण हुआ जिसमें भारत तथा पड़ोसी देशों के विपश्यी साधकों तथा अन्यान्य बुद्धभक्तों ने श्रद्धापूर्वक दान दिया। किसी ने भी यह सोच कर दान नहीं दिया कि मैं पगोडा का ट्रस्टी बन जाऊंगा अथवा इसका अध्यक्ष बन जाऊंगा अथवा गुरुजी के न रहने पर मालिक बन जाऊंगा। इन दानियों में मुझे एक सर्वश्रेष्ठ दान की याद आती रहती है जिसने मेरी आंखों को सजल बनाया। पगोडा के उद्घाटन समारोह में इसके मुख्य कक्ष (डोम) में दान के लिए एक छोटा-सा कलश रखा गया था। मैंने देखा कि सिर पर उठाकर घर-घर साग-सब्जी बेच कर गुजारा करने वाली डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर की अनुयायिनी एक महिला ने जब देखा कि भगवान बुद्ध के नाम पर इतना विशाल पगोडा बन रहा है, तब उसने अपनी साड़ी के पल्ले से खोल कर कुछ सिक्के निकाल कर श्रद्धापूर्वक दान-पात्र में डाले, जिनकी खनकती
आवाज ने मुझे भावविभोर बना दिया। उस गरीब महिला का दान कितना सात्त्विक और मूल्यवान था! करोड़ों का दान देने वालों के सामने अधिक सुफलदायी था । वह कुछ ऐसे दान देने वालों की भांति कैसे सोचती कि मैं कभी इस पगोडा की ट्रस्टी या अध्यक्ष बन जाऊंगी या आगे जाकर इसकी मालकिन बन जाऊंगी? बिना कुछ पाने की भावना के साथ दिया गया उस गरीब महिला का यह शुद्ध दान सचमुच इतिहास में याद रखने योग्य होगा। बिना बदले में कुछ पाने की भावना से दिया गया दान ही दान है, नहीं तो व्यवसाय है।

इस पगोडा के परिसर में भगवान बुद्ध के जीवनकाल की एक चित्र-प्रदर्शनी बनी, जिसे बनाने में बर्मा के प्रमुख कलाकार बुलाये गये। ऐसा हो जाने पर इस चित्रकला, वास्तुकला तथा पगोडा की भव्य विशेषता को कायम रखने के लिए जो ट्रस्ट-डीड बना उसमें मेरे द्वारा उत्तराधिकारी नियुक्त करने का प्रावधान रखा। इस उत्तराधिकार का एक व्यक्ति विशेष रूप से बर्मी कला तथा पगोडा की बर्मी स्थापत्यकला की देखभाल के लिए जिम्मेदार होगा और दूसरे चार विपश्यना के आचार्य होंगे जो कि विशाल ध्यानकक्ष तथा पगोडा-परिसर में कहीं कोई धर्मविरुद्ध कार्य न हो जाय, इसकी देखभाल करेंगे। अतः इस ट्रस्ट में एक की जगह पांच उत्तराधिकारी नियुक्त करके मैंने ट्रस्ट के मूल प्रावधान को आवश्यकतानुसार निभाया।

तीसरी आवश्यकता यह महसूस हुई कि इस पगोडा के रख-रखाव, अन्यान्य स्मृति-चिह्न और बर्मी वास्तुकला की मरम्मत आदि के लिए के लिए आवश्यक धन की पूर्ति हेतु 'सम्यक वाणिज्य चैरिटेबल ट्रस्ट' का गठन किया जाय। यहां भी गुरु-शिष्य परंपरा का कोई नियम नहीं होने के कारण मेरे द्वारा एक उत्तराधिकारी नियुक्त करने का प्रावधान रखा गया। यानी, विपश्यना के प्रशिक्षण केंद्रों से अलग केवल इन तीन उपरोक्त प्रतिष्ठानों में ही मेरे द्वारा उत्तराधिकारी नियुक्त करने का प्रावधान है।

ये तीनों संस्थाएं मेरे अपने स्वप्नों की उपज हैं। इन तीनों संस्थानों का गठन भिन्न-भिन्न उद्देश्यों से हुआ है। इन तीनों संस्थाओं को मेरे बाद भी चिर-काल तक स्थायी रखना आवश्यक मानता हूं। इसीलिए इन तीनों में उत्तराधिकारी नियुक्त करने का प्रावधान रखा गया है। अतः इनमें अब जो उत्तराधिकारी नियुक्त किये जायेंगे, वे अपने बाद अन्य योग्य व्यक्तियों को अपनी-अपनी जिम्मेदारी के कार्यों को करते रहने के लिए नियुक्त करेंगे; ताकि ये तीनों कार्य पीढ़ी-दर-पीढ़ी सुचारुरूप से चलते रहें।

जहां तक गुरुदेव सयाजी ऊ बा खिन द्वारा भारत का कर्ज चुकाने का प्रश्न था, उसके लिए विपश्यना केंद्रों का गठन इसी प्रकार से हुआ, जिनमें पुरातन काल से चली आ रही गुरु-शिष्य परंपरा को ही आधार बनाया गया है। क्योंकि जो लोगों को धर्म सिखाता है और उनमें धर्म जगाता है वही विपश्यना के प्रशिक्षण केंद्र का उत्तराधिकारी होता है। यहां जो भी आचार्य आज सुनिश्चित हैं या भविष्य में होंगे, वे सब उत्तराधिकारी का ही कार्य करेंगे। इसी कारण इन विपश्यना केंद्रों के गठन में किसी प्रशिक्षित आचार्य को छोड़ कर अन्य किसी को उत्तराधिकारी नहीं बनाया जा सकता। क्योंकि जितने भी विपश्यना केंद्र हैं उनके लिए तो प्रशिक्षक आचार्य उत्तराधिकारी होंगे ही, उनके बाद भी जो-जो आचार्य होंगे, वे सब गुरु-शिष्य परंपरा के आधार पर उत्तराधिकारी ही होंगे। इसी कारण इनके ट्रस्ट-डीडों में मेरे द्वारा किसी उत्तराधिकारी की नियुक्ति का वर्णन आवश्यक नहीं समझा गया। परंतु उपरोक्त तीन संस्थान जो कि विपश्यना के प्रशिक्षण के लिए नहीं हैं, उनमें मेरे द्वारा विशेष रूप से उत्तराधिकारी नियुक्त करने का प्रावधान अवश्य रखा गया।

यह बात फिर दुहरा दूं और सब को खूब समझ लेनी चाहिए कि धर्म के क्षेत्र पर किसी की मल्कियत नहीं होती -- न उत्तराधिकारियों की, न ट्रस्टियों की, न दान-दाताओं की, न शासनाधिकारियों की। सबको मात्र अपने-अपने जिम्मे का काम करने का अधिकार है। धर्म का सारा कार्य बहुत शांतिपूर्वक चलना चाहिए। किसी के मन में कोई मिथ्या संदेह हो अथवा भ्रांति हो तो मुझसे मिल कर उसे दूर कर ले । मंगल भावनाओं के साथ धर्म का कार्य चलता रहे, इसी में सबका कल्याण है।

कल्याणमित्र, 
सत्यनारायण गोयन्का

जून 2012 हिंदी विपश्यना पत्रिका में प्रकाशित
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🌷Who is a successor?🌷

When a father has one or more children, they are all his successors and inherit his wealth, riches and property, which they either multiply or squander. 

But this does not happen in the field of Dhamma. All the people who learned Vipassana from the Buddha and spread it became his successors. These succeeding teachers taught Vipassana to others, helped them attain proficiency in it and made them their own successors. In this way, from generation to generation, in the teacher - pupil tradition, all these successors taught Dhamma. At the time of the Emperor Ashoka, Bhikkhu Sona and Bhikkhu Uttara too became successors of the Buddha after learning Dhamma. As successors, they went to Myanmar to teach Dhamma. Apart from teaching to the general people they also trained such disciples, who as successors of the Buddha maintained the teacher - pupil tradition. 

The Buddha never appointed his son Rahula as his successor. Guru Nanakadevaji [founder of Sikhism] proclaimed his disciple Angad Deva as his successor, not his own son. A successor in Dhamma is one who, having learnt how to teach Dhamma from one's own teacher, starts teaching others. This teacher - pupil tradition has been continuing for the last 2500 years and will continue in the future also. 

I learned Vipassana meditation i.e. Pure Dhamma from Sayagyi U BA Khin and to fulfill his ardent desire, I came to India and started teaching Dhamma. While living in Rangoon, I was in close contact with him for 14 years and, on innumerable occasions, I heard him say... .

"We have received this priceless jewel from India in the form of Vipassana. But, today, India has lost it and become bankrupt. We need to repay this debt to India, but who can repay it? I will have to repay it." He was to come to India to repay this invaluable debt himself.

He wanted to come to India to revive Vipassana but in those days, Burmese citizens were issued passports for two reasons only – either to leave Burma forever or f they were offered employment abroad. Sayagyi U Ba Khin neither wanted to leave Burma forever nor wanted to pretend to have got a job in order to come to India. Thus the government did not issue him a passport and he could not come. However, I got a Burmese passport for a very special reason. My mother had become mentally ill in Bombay [Mumbai] and I was aware that if she could practice Vipassana, she would recover. I had two close friends in the Burmese cabinet who strongly supported me so I received my passport for this special reason.

Sayagyi was very happy to know this. He said, "I am unable to repay the debt to India myself, so now you have to accomplish this work on my behalf."

After attaining full expertise in Vipassana teaching under his guidance, I came to India and applied myself to fulfilling his objective. Therefore, in the sphere of Dhamma and the teacher - pupil tradition, I became a successor to Gurudeva Sayagyi U Ba Khin. After teaching Vipassana meditation to many people in India, I appointed some of them as Teachers. Those appointed became my successors in turn by teaching Vipassana to others. In this way, seeing the realisation of Sayagyi's dreams, I was relieved of the burden in my mind and the work of repaying the debt that Burma owed to India began.

After some time, Vipassana centres were gradually established not only in India, but also in many other countries of the world and they continue to get established even now. Wherever centres were established, the Teachers imparting training there are my successors. This is because they are spreading Vipassana as taught to them by me.

As Vipassana Centres got established in several far-flung places, and their number is increasing, so I decided that there should be an individual Centre Teacher as successor for each respective local Vipassana centre, and, wherever necessary, Area Teachers also be appointed to provide guidance to them, Wherever many Area Teachers are working, as per requirement there may be Regional Teachers for each of the bigger geographical region. All Centre Teachers, Area Teachers and Regional Teachers, on their appointment, shall be considered as my successors. I shall publish their names shortly. 

Becoming the successors of a centre or an area or a region, however, does not mean that they become the owners of those centres or areas or regions. All such teachers are successors only in terms of teaching vipassana.

Similarly, the trustees managing the centres do not have any right of succession either. In any of the centres they have no right to get any honour or prestigious position. All of them are Dhamma Servers and they serve the centre as per requirement. When any person donates a land for the Dhamma Centre or anyone constructs any building there, he/she does not have any ownership over the donated land or the building constructed there. Dhamma is its real owner, not the donor. For their respective donations and services they benefit by way of earning invaluable merits and that is all. 

For example, during the time of the Buddha, Anathpindika donated a piece of land to the Buddha, which he had bought by spreading gold coins on it. He constructed residential quarters on it, by investing a large sum of money. Anathpindika understood the Dhamma tradition very well that although he had bought the land and constructed residential quarters here he possessed no right over the donated land or on the buildings constructed there. Whatever was donated was given forever. The intention of expecting something in exchange is indeed very unwholesome. He was sad to observe that after the rainy season, when the Buddha along with his monks went away to the centres of other regions, the centre there became totally deserted. The crowd, which gathered during the presence of the Buddha, was no longer there. Therefore it was his strong desire that even in the absence of the Buddha, the place remained full of people. For this reason, he wanted to construct a temple of the Buddha there. But in spite of his strong desire, he could not do this, because, now he had no right over the donated land. Therefore, to fulfil his desire, he went to the Buddha and requested him to accord permission for the construction of a temple there. If he had any ownership of the donated land, then where was the need for him to seek permission from the Buddha? The Buddha did not grant him permission because he did not want that the place of Dhamma be used for offering prayers and worshipping or for gathering crowds. It is meant for meditation. Therefore the Buddha got a branch of the Bodhi tree planted and said, "People will meditate underneath it after it grows. In this way, the people will be benefited by this land in the right manner." 

Similarly, in the present time also, the individuals who donate land or money for the construction of centres should understand the very old tradition that they cannot have any right over whatever has been given as donation. The Dhamma will keep growing properly only if its pure tradition is maintained. The centre will be used forever from generation to generation for teaching vipassana and Dhamma only. The Teachers of the Centre will change from time to time, but the work of teaching Dhamma will always continue. 

After the establishment of many Vipassana centres, some important thoughts came to my mind, which had no connection at all with the teaching of Vipassana. One important thought was to know how the pure teaching of the Buddha was completely lost in India. Research should be carried out on this topic and now that Vipassana has again revived in India and in the world, the complete training material of teaching this technique should be resurrected and protected for centuries. Simultaneously, the original literature of the teachings of the Buddha called 'Tipitaka' which contains its theoretical aspect, which was lost in India should also be published again. For this purpose– 'Vipassana Research Institute' was established so that not only today but also in the coming centuries it should be preserved and be utilised for further research. Many scholars with profound knowledge in different fields will be engaged here from time to time for research work in this field. So, there will not be any teacher-pupil tradition in this research work. Therefore, when its Trust Deed is prepared, a provision be made for me to appoint a suitable person as a successor.

The second thought that came to my mind was that the pure relics of the Buddha would be rightly honoured only when they are enshrined in a pagoda as per the instructions of the Buddha. Also, this pagoda should be constructed in accordance with the architectural traditions of Myanmar. This is because Myanmar preserved the Pariyatti [the Buddha's teachings] and Patipatti [Vipassana] received from the Emperor Ashoka in pristine purity through the teacher -pupil tradition for two thousand years. For just that reason we could receive both. Just as the people of Myanmar feel grateful to India for receiving the pure Dhamma and also feel grateful to the Emperor Asoka for having received the Dhamma owing to his efforts, in the same way now, people of India should have a feeling of gratitude towards Myanmar and also towards Sayagyi U BA Khin, who, after training me consummately, sent me to India to repay the debt owed by Burma. With a volition that sacred memories of gratitude towards these two are preserved for a long period of time in the future, a thought to construct a magnificent pagoda called "Global Vipassana Pagoda" arose in my mind. This monument shall be an attractive lighthouse to beckon the world-wide followers of the Buddha in general and all the Vipassana meditators in particular. For this purpose, the 'Global Vipassana Foundation' was formed to ensure that the design and structure of the Pagoda are patterned after the Burmese architecture so as to reinforce the memories of gratitude towards the people of Myanmar and Sayagyi U Ba Khin not only in the present but also in the future. 

The Global Vipassana Pagoda was built in accordance with my conception of it. For constructing it donations were given by grateful Vipassana meditators in India & neighbouring countries as also by numerous other devoted followers of the Buddha. None of them gave donations with a view to becoming a trustee or a president or becoming an owner of the Pagoda when I am no more. Of all the people who donated for this Pagoda, I particularly cherish most the memory of one whose generosity made my eyes wet. On the day of the inauguration ceremony of the Pagoda a small donation box was kept in the main dome. I saw a woman, a follower of Dr. Babasaheb Ambedkar who earned her living by selling vegetables from door to door becoming so sentimental to see such a huge Pagoda constructed in the name of the Buddha that she took out some coins from the folds of her saree and put them in the donation box. The tinkling sound of the coins touched my heart. How pure and priceless was her donation! It was more beneficial than the donation given by a very rich man How could she expect like others that in return she could become a trustee or an office bearer or an owner of this Pagoda in future! The pure donation of this poor woman without any expectation in return is indeed a memorable event of historical importance.Giving without expecting anything in return is in fact true donation, otherwise it is a trade.

In the premises of the Pagoda, an Art Gallery depicting the life of the Buddha was made for which prominent artists from Myanmar were invited. After this was accomplished, the Trust Deed that was prepared had a provision for me to appoint successors for preserving these paintings, architecture and magnificent features of the Pagoda. One of these successors will be specifically responsible for looking after the Burmese art and architecture of the Pagoda and four others will be Teachers of Vipassana who will ensure that no anti-Dhamma activities take place in the large meditation hall and on the Pagoda premises. Thus, by appointing five successors instead of one in this trust, I have acted in accordance with the fundamental provisions of the Trust as per its need.

Thirdly, a need was felt for making available necessary funds for the maintenance and upkeep of the Pagoda & repairs of Mementos and Burmese architectures and therefore 'Samyak Vanijya Charitable Trust' was constituted. Here also, as the teacher - pupil tradition is not relevant, a provision for the appointment of one successor by me has been made.

In other words, only in the aforesaid three institutions there is a provision for me to appoint successors and not in training centres of Vipassana 

All these three institutions are the products of my dreams. They have been established for different purposes. I consider it necessary to maintain them long after me, for posterity. Therefore, a provision has been made in their trust deeds for me to appoint successors in them. Therefore, the successors who will now be appointed by me will appoint other competent persons after them so that these three continue to function satisfactorily and smoothly from generation to generation.

As far as the question of repaying the debt to India was concerned, Vipassana centres have been constituted after the teacher - pupil tradition, which has been prevalent since ancient times. In this tradition, the person who teaches Dhamma and helps it arise in others, is the right successor of the Vipassana Training Centre. The Teachers, who have been appointed today or will be appointed in future will work as successors. For this reason, in the constitution of these Vipassana centres, it is mentioned that no other person can be appointed as successor other than the trained teachers. In all the Vipassana centres, only the trained teachers will be successors and in future they will appoint their successors in accordance with the ancient teacher - pupil tradition. For this reason, there is no provision made for me to appoint successors in the Trust Deeds of these centres. But, in the trust deeds of the three institutions mentioned above a special provision has been made for me to appoint successors because they are not vipassana training centres.

I reiterate and everyone should understand clearly that there is no ownership of anybody in the field of Dhamma; neither of successors, nor of trustees, nor of donors, nor of administrators. Everyone only has the right to perform one's share of duties and take care of the responsibilities. 

All activities of Dhamma should be carried out peacefully. If one has any doubt or confusion he should meet me and discuss with me to remove it. May Dhamma activities go on with goodwill and happiness! This will be for the good and happiness of all.

Kalyanmitra,
       - Satyanaryana Goenka.

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