Tuesday, February 18, 2020

गुरूजी, आपका जन्म बर्मा में हुआ। सुना है वहां पर सन्यासियो और भिक्षुओ की बड़ी अच्छी परम्परा है।आपका क्या अनुभव

🌹गुरूजी, आपका जन्म बर्मा में हुआ। सुना है वहां पर सन्यासियो और भिक्षुओ की बड़ी अच्छी परम्परा है।
आपका क्या अनुभव है?

उत्तर- मै बरमा में जन्मा और पला।
वहां सुबह सुबह भिक्षुओ की कतार निकलती है गोचरी के लिये, तब सब की नजर नीची। नपे तुले कदमो से चल रहें हैं। मोन है, कोई बोलता नही। शांति रहती है।
कोई चिल्लाता नही--माई रोटी दे, तेरा बेटा जिये। ऐसा कुछ नही कहते।

🍁घर के सामने थोड़ी देर रुके।भिक्षा मिली तो मंगल मैत्री, न मिली तो मंगल मैत्री।
अकेला साधु है तो जहाँ उसने देखा कि मेरे खाने के लिये पर्याप्त है तो वह कोई एकांत स्थान में जाकर भोजन कर ले।अपनी आवश्यकता से अधिक भोजन नही ले।यदि समूह में है और पीछे विहार में कोई बूढ़ा भिक्षु है, बीमार भिक्षु है या अन्य किसी कारण से गोचरी के लिये नही जा सका तो उसके लिये कुछ अवशय ले जाय।
लेकिन अपने लिये भोजन की मात्रा को जाने।

🌻मधुकरी की, जरा सा यहाँ से लिया, जरा सा वहां से लिया तो किसी पर बोझ नही बना।
और जहाँ जहाँ जाए वहां मन ही मन मंगल मैत्री ही मंगल मैत्री।
तेरा मंगल हो,
तेरा कल्याण हो!
भिक्षा दे तो भी, न दे तो भी।
ऐसा व्यक्ति सही माने में भिक्षु है।
वही आचार्य बनने लायक है, 
वही पूजन करने लायक है,
सम्मान सत्कार करने लायक है।
भले वह स्वयं पूजन, अर्चन, मान, सम्मान का भूखा नही है।
लेकिन वह सही आचार्य है तो शिष्य उसकी दैनिक और नैसर्गिक आवश्यकताओं की पूर्ति करे, उसके स्वास्थ्य की उचित देखभाल करे।
यही ' पूजा व पूजनीयानं ' है।

बुद्धवाणी

🌹बुद्धवाणी--
सभी प्रियो से वियोग होता ही रहता है।
जो कुछ उतपन्न हुआ है वह विनाश को प्राप्त न हो- ऐसा नही हो सकता।

🍁अतः अपने आप को अपना द्वीप बनाओ, आत्मनिर्भर होओ, किसी दूसरे के भरोसे मत रहो।
धर्म को अपना द्वीप बनाओ,
धर्म की शरण ग्रहण करो,
किसी अन्य की नही।

Thursday, November 14, 2019

🌷My Vipassana Experience: Peace Within a Prison.

🌷My Vipassana Experience: Peace Within a Prison.

(Kelvin Thompson is an inmate of Yerwada Central Jail, Pune. A 32-year old chemist from London, Kelvin sat his first Vipassana course in March 97 the second Vipassana course conducted in Yerwada prison. This interview was on Day 10, the Mettā Day).

"I left London in September 1993. I reached India and this problem started (alleged possesion of drugs). I was in Arthur Road Jail, Mumbai, until my case came up for hearing in July 1995. Then I was put in Yerwada here.
The DIG (Deputy Inspector General, Mr. D. N. Dawne) here told me about this Vipassana course. 'Do this course and you will get peace of mind,' he said.

I am looking for peace of mind.The situation here is getting desperate, real bad. I'm here stuck inside this prison. I may be here for how long, who knows. I want to see my parents, my wife Adeline, my daughter. I can't do that.

I took the 10-day Vipassana course. I thought a miracle will happen. But now I know what happens is according to the laws of nature. This is a wonderful technique. I am more happy now. But miracles have nothing to do with it. It's hard work.

At first I thought, 'What have these sensations got to do with my problems? What's it got to do with my miseries, to being locked up inside this prison?'

Then I began realizing how what was happening.

Any sensation that arose in my body with my thoughts - pain, heat, itching - I would just observe it without reacting. It would arise, it would pass away.

Why should I be reacting to something that was so impermanent? No sensation lasts forever.Now when thoughts of anger arise, I could see what was happening to my body - my breath became hot, for instance.

Earlier I used to hit out, rage for hours. Now I become calm in about 20 minutes. I am becoming calmer.Now I can see that my problems are not caused by other people.

The problems are within me.
Vipassana is a very different technique, you know. It strikes at the root of our problems and cuts it out. It's very practical.

My friends and I first thought, 'What's this? No God? No religion?.' We suspected we were being converted to Buddhism.

Then we realized it was nothing of that kind.

My brother, this is essence of all the goodness in all the religions. And this is not just preaching or blind belief. This is a technique anyone can practice.I could understand Vipassana much more easily because of my scientific background.

In the lab, we purify chemicals from its impure state to a refined, ultra pure state. I think this is what I have been through. I have been through a mental purification.

I don't think all my problems have gone. It cannot happen in just ten days. But what has gone has left me feeling much lighter. I am not the same person I was ten days ago. I am at peace."

(At a press conference, a few hours later, Kelvin Thompson and fellow inmates again spoke about their experience with their first Vipassana course. The Inspector General of prisons, Mr. Narawane, announced that Yerwada Jail will have regular Vipassana courses from now. The Maharashtra Government has already ordered that every prison in the state organize Vipassana courses for its inmates).

Vipassana Research Institute - http://www.vridhamma.org/en1997-02

Mangal Metta 🌷

🌷 Mangal Metta 🌷

Phira se jāge dharma jagata men phira se hove jane kalyāna
Jāge jāge dharma jagatamen hove hove jana kalyāna
Rāga dvesha aur moha dūra hon jāge shīla samādhi gyāna
Jana jana ke dukhaden mita jāyen phira se jāga uthe muskāna
Jāge jāge dharma jagata men hove hove jane kalyāna.

🌷 

"May Dhamma arise again in the world; May again there be welfare for all beings!
Arise, arise, Dhamma in the world; Manifest, manifest well-being of all!

May craving, aversion and ignorance vanish; May sīla, samādhi and paññā arise!
From the minds of beings, may all misery dissipate; bringing smiles again to the lips of all!

Arise, arise, Dhamma in the world; Manifest, manifest, welfare of all!

(Hindi chant of Goenkaji, concluding tenth day)

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🌷"मंगल मैत्री"🌷

सबका मंगल सबका मंगल 
          सबका मंगल होए रे।।
तेरा मंगल तेरा मंगल 
          तेरा मंगल होए रे।।

इस धरती पे जितने प्राणी 
          सबका मंगल होए रे।।
सबका मंगल सबका मंगल 
          सबका मंगल होए रे।।

जल चर थल चर नभ चर 
          सब जीवों का मंगल होए रे।।
सबका मंगल सबका मंगल 
          सबका मंगल होए रे।।

दृश्य और अदृश्य 
          सभी जीवों का मंगल होए रे।
सबका मंगल सबका मंगल 
          सबका मंगल होए रे।।

सभी प्राणी सुखी रहें और 
          सभी निराम़य होए रे।।
सबका मंगल सबका मंगल
          सबका मंगल होए रे।।

सबका मंगल हो 
    सबका कल्याण हो
       सबकी स्वस्ति मुक्ती हो।।

http://www.vridhamma.org/

https://www.dhamma.org/en/courses/search

मंत्र जाप की तरंगो से भीतर गहराईओंतक के संस्कार क्यों नही निकलते?

Que : मंत्र जाप की तरंगो से भीतर गहराईओं
तक के संस्कार क्यों नही निकलते?
उत्तर--इसलिए नही निकलते क्योंकि भीतर
गहराईओं तक जो हमने पूर्व संस्कार इकट्ठे कर
रखें हैं उनकी अपनी अलग अलग तरंग होती है।
क्रोध जगाते हैं एक प्रकार की तरंग होती है,
भय जगाते हैं एक प्रकार की तरंग होती हैं।
अहंकार जगाते हैं, वासना जगाते हैं..... कोई भी
विकार जगाएं। विकार तो तरंगे ही हैं।और
विकार क्या है? तो जो तरंग है वहां तक पहुँच
करके हमें उससे छुटकारा पाना है।
बहुत क्रोधी आदमी- उसे क्रोध जगाते समय
किस प्रकार की अनुभूति होती है, किस तरह
की तरंगे प्रकट होती हैं, उसको देखना सीखता
है।देखते देखते उनको बढ़ावा नही देता।और
बढ़ावा नही देता तो कम होते होते समाप्त हो
जाती है।जब नया समाप्त होता है तो समता में
रहने के कारण पुराना उभर कर ऊपर आता है।
समता उसे भी समाप्त करती है।
इस प्रकार नए और पुराने दोनों की समाप्ति
होती है। यह काम विपश्यना करती है।
मन्त्र से चित्त निश्चित रूप से शांत होगा।
क्योंकि किसी भी शब्द को बार बार
दोहराएंगे तो मन शांत होता चला जाएगा।
ऊपरी ऊपरी हिस्से तक होगा।जड़ो तक तो
उसकी पहुँच नही होगी। क्योंकि वह एक
कृत्रिम तरंग पैदा कर रहा है।
और हमें अपने विकारो की जो स्वाभाविक तरंगे
हैं वहां पहुँच कर उनसे छुटकारा पाना है।
यह जो नई तरंग पैदा कर रहें हैं इसका अवश्य
एक बहुत अच्छा लेप लग जायेगा जो की हमारे
लिये कवच का सा काम करेगा।
लेकिन इससे क्या हुआ- जो हमारा पूर्व
संग्रह है उसका क्या हुआ?
वह तो वैसा का वैसा रह गया, और रह ही नहीं
गया उसका अपने स्वभाव की वजह से भीतर ही
भीतर संवर्धन होता रहा। छूटकारा कहाँ?
तो हम कोई कृत्रिम तरंग न बनने दें।
यदि हम ऊपर ऊपर कोई भी कृत्रिम लेप लगा
लेंगे तो भीतर तक जैसा है वैसा देख नही पाएंगे।
देख नही पाएंगे तो जड़ो तक नही पहुँच पाएंगे।
जड़ क्या है?
संवेदना ही है।
शरीर की संवेदना और मन की जड़ दोनों जुड़े हुए
हैं, और हम जड़ो तक पहुंचे ही नही, और ऊपर ऊपर
कोई बहुत मोटा मोटा कृत्रिम लेप लगा लिया
तो यही हुआ की-
भस्माछंनो च पावको-
भीतर अग्नि के अंगारे हैं और उसपर हमने मोटी-
मोटी राख लगा दी। हम बड़े खुश हो गए।हमारे
भीतर के अंगारे कायम तो रहे ही।उनकी तपन
तो कायम रही ही। हमको वहां तक पहुँच करके
उन अंगारो की आग- क्रोध की आग, द्वेष की
आग- सभी विकारो की आग बुझानी है।
वह उनकी तरंगो को देख कर ही बुझाई जा
सकेगी, अन्यथा नही।

~आचार्य सत्यनारायण गोयंका