Thursday, November 14, 2019

मंत्र जाप की तरंगो से भीतर गहराईओंतक के संस्कार क्यों नही निकलते?

Que : मंत्र जाप की तरंगो से भीतर गहराईओं
तक के संस्कार क्यों नही निकलते?
उत्तर--इसलिए नही निकलते क्योंकि भीतर
गहराईओं तक जो हमने पूर्व संस्कार इकट्ठे कर
रखें हैं उनकी अपनी अलग अलग तरंग होती है।
क्रोध जगाते हैं एक प्रकार की तरंग होती है,
भय जगाते हैं एक प्रकार की तरंग होती हैं।
अहंकार जगाते हैं, वासना जगाते हैं..... कोई भी
विकार जगाएं। विकार तो तरंगे ही हैं।और
विकार क्या है? तो जो तरंग है वहां तक पहुँच
करके हमें उससे छुटकारा पाना है।
बहुत क्रोधी आदमी- उसे क्रोध जगाते समय
किस प्रकार की अनुभूति होती है, किस तरह
की तरंगे प्रकट होती हैं, उसको देखना सीखता
है।देखते देखते उनको बढ़ावा नही देता।और
बढ़ावा नही देता तो कम होते होते समाप्त हो
जाती है।जब नया समाप्त होता है तो समता में
रहने के कारण पुराना उभर कर ऊपर आता है।
समता उसे भी समाप्त करती है।
इस प्रकार नए और पुराने दोनों की समाप्ति
होती है। यह काम विपश्यना करती है।
मन्त्र से चित्त निश्चित रूप से शांत होगा।
क्योंकि किसी भी शब्द को बार बार
दोहराएंगे तो मन शांत होता चला जाएगा।
ऊपरी ऊपरी हिस्से तक होगा।जड़ो तक तो
उसकी पहुँच नही होगी। क्योंकि वह एक
कृत्रिम तरंग पैदा कर रहा है।
और हमें अपने विकारो की जो स्वाभाविक तरंगे
हैं वहां पहुँच कर उनसे छुटकारा पाना है।
यह जो नई तरंग पैदा कर रहें हैं इसका अवश्य
एक बहुत अच्छा लेप लग जायेगा जो की हमारे
लिये कवच का सा काम करेगा।
लेकिन इससे क्या हुआ- जो हमारा पूर्व
संग्रह है उसका क्या हुआ?
वह तो वैसा का वैसा रह गया, और रह ही नहीं
गया उसका अपने स्वभाव की वजह से भीतर ही
भीतर संवर्धन होता रहा। छूटकारा कहाँ?
तो हम कोई कृत्रिम तरंग न बनने दें।
यदि हम ऊपर ऊपर कोई भी कृत्रिम लेप लगा
लेंगे तो भीतर तक जैसा है वैसा देख नही पाएंगे।
देख नही पाएंगे तो जड़ो तक नही पहुँच पाएंगे।
जड़ क्या है?
संवेदना ही है।
शरीर की संवेदना और मन की जड़ दोनों जुड़े हुए
हैं, और हम जड़ो तक पहुंचे ही नही, और ऊपर ऊपर
कोई बहुत मोटा मोटा कृत्रिम लेप लगा लिया
तो यही हुआ की-
भस्माछंनो च पावको-
भीतर अग्नि के अंगारे हैं और उसपर हमने मोटी-
मोटी राख लगा दी। हम बड़े खुश हो गए।हमारे
भीतर के अंगारे कायम तो रहे ही।उनकी तपन
तो कायम रही ही। हमको वहां तक पहुँच करके
उन अंगारो की आग- क्रोध की आग, द्वेष की
आग- सभी विकारो की आग बुझानी है।
वह उनकी तरंगो को देख कर ही बुझाई जा
सकेगी, अन्यथा नही।

~आचार्य सत्यनारायण गोयंका