Thursday, November 14, 2019

गुरूजी-

🌹गुरूजी--
विवादम भयतो दिस्वा,
अविवादम च खेमतो।
समग्गा सखिला होथ,
एस बुद्धानुसासनी।।

🍁यह शिक्षा है उस महापुरुष की।
जहाँ विवाद देखा कि उसमे भय नजर आये।बड़ा खतरनाक है, कहाँ उलझ गए?
हम झगड़ा करने के लिए इस मार्ग पर आये! तू छोटा, मै बड़ा यह करने के लिये इस मार्ग पर आये।

🌷अविवाद में ही कुशल है हमारा।
बड़े प्यार से रहेंगे।
बड़े प्रसन्न चित्त से रहेंगे।
बड़े मिलजुलकर रहेंगे।
यही चाहते हैं भगवान।
यही उनकी शिक्षा है।
यह हमेशा याद रहे।
धर्म का विकास जरा सी भी कडुवाहट लेकर न हो।

वर्तमान क्षण

गुरूजी- शरीर और चित्त की संयुक्त धारा पर इस क्षण जो भी घटना घटित हुई, अर्थात शरीर स्कंध पर जो भी संवेदना महसूस हुई, उसका भूतकाल की संवेदनाओ की यादों से कोई संबंध न हो, भविष्य में होने वाली संवेदनाओ की कामना- कल्पना से कोई संबंध न हो, केवल वर्तमान क्षण की संवेदना का अनित्य स्वभाव ही महसूस हो।
यही इस क्षण में जीना है, यही विपश्यना साधना है।संबंध हुआ की तुलना होगी, मूल्यांकन होगा, अच्छे- बुरे का लेबल लगेगा और प्रतिक्रियास्वरूप नए राग और नए द्वेष का प्रजनन होगा।यह सब ना हो और केवल इस क्षण के तथ्य को और उसके परिवर्तनशील स्वभाव को स्वीकार करके रह जाएँ तो उसके प्रति न राग जागेगा, न द्वेष।

🌷Pujya Guruji S N Goenkaji

🌷Pujya Guruji S N Goenkaji :
(The following extract is from an article written by Goenkaji in 1979 to mark his completion of ten years as a Teacher of Vipassana meditation.)
I do not devalue what has been done for the spread of Vipassana in the last ten years, since to do so would be to de-value the selfless service given by so many people. But the fact remains that up to now only a first step has been taken in the work, and a small step.
From a firm base in India, the light of Vipassana must spread everywhere around the world.
It is a lifetime job.
It is a steep ascent of the mountain.Upon the way are many obstacles and hindrances, those within and those without.... To overcome these difficulties
requires great strength of Dhamma, perseverance, forbearance, zeal, and egolessness.
🌷At times when faced with great difficulties, I find that I have stooped beneath their weight. Very soon, however, I have stood up, brushed the dust from my knees, and started walking with increased Dhamma strength. Whatever portion of the journey has been completed gives the inspiration and strength to walk on. And the greatest help upon the path is gratitude. This is the support for the journey ahead.
Therefore gratitude keeps overflowing in my mind, firstly to the Enlightened One who rediscovered this lost technique and used it for his benefit, and who with free hand and compassionate heart distributed it for the benefit of one and all I am grateful to the entire chain of teachers from the Buddha to Sayagyi U Ba Khin who maintained this wonderful technique in its original form, thereby permitting me to learn it in its purity. I am grateful to all the members of my family whose co-operation has been so helpful in the Dhamma work.
I am grateful to all my comrades and friends in the Dhamma, all who have given me their co-operation and assistance, whose companionship has given me sustenance on the path.
If during the last ten years by my deeds of body, speech, or mind I have committed any wrong action knowingly or unknowingly, intentionally or unintentionally toward anyone, I ask pardon.
May all beings be happy!
May all beings be peaceful!
May all beings be liberated!
—Traveler on the Dhamma Path, 
S.N. Goenka.
(Vipassana International Newsletter. Dec'86)

शून्यागार और पगोडा

शून्यागार और पगोडा 
(जयपुर पैगोडा के शिलान्यास के अवसर पर मार्च 24, 1982 का प्रवचन )

जहां शुद्ध धरम जागता है वहां की धरती तपने लगती है। धरम की शुद्ध तरंगों से ही धरती तपती है। सारा वातावरण तपता है। यह तपोभूमि न जाने कितने युगों में, कितनी सदियों में धरम के तप से तपी है। तभी यहां शुद्ध धरम जागने का, अनेक लोगों के कल्याण का अवसर प्राप्त हुआ है।

जिस धरती पर तापस तपते हैं, जहां सिवाय धरम-तप के और कोई प्रवृति नहीं होती, वहां चित कैसे राग से विमुक्त हो, द्वेष से विमुक्त हो, मोह से विमुक्त हो। इसका सक्रिय अभ्यास ही किया जाता है। इसका भी केवल चिंतन-मनन नहीं, सक्रिय अभ्यास होता है। अंतर्मन की गहराइयों तक कैसे संवर कर लें। नया राग जगने ही न पाये, नया द्वेष जगने ही न पाये, नया मोह जगने ही न पाये। और जो संग्रहीत है वह कैसे शनै: शनै: दूर होता चला जाय। धीरे-धीरे उसकी निर्जरा होती चली जाय, छूटता चला जाय, उसका क्षय होता चला जाय।

जिस धरती पर धरम का यह शुद्ध अभ्यास निरंतर होता रहता है. वह धरती खूब तपने लगती है। सारा वातावरण तरंगों से आप्लावित हो उठता है, तरंगित हो उठता है। अधिक लोक-कल्याण होने लगता है। ऐसी तपोभूमि में आकर जब कोई व्यक्ति थोड़ा भी प्रयास करता है तो अधिक सफलता प्राप्त होती है।
इस धरती पर अब भी लोग तप रहे हैं। भविष्य में जब यहां शून्यागार बन जायेंगे तो और अधिक लोग तपेंगे। आज भी लोगों का कल्याण होता है, शून्यागार में तपेंगे तब और अधिक कल्याण होगा। साधना के रास्ते, आगे बढ़ने के लिए एक तो अपनी मेहनत आवश्यक है, अपना परिश्रम आवश्यक है। बिना परिश्रम किये कोई उपलब्धि नहीं होती। दूसरे साधना की विधि निर्मल हो, स्वच्छ हो तो लाभ होता है। साधना की विधि निर्मल न हो तो बहुत मेहनत करने पर भी जो लाभ मिलना चाहिए वह नहीं मिलता। उचित मार्गदर्शक हो तो लाभ होता है। क्योंकि साधक गलत तरीके से काम नहीं करता। अच्छे मार्ग निर्देशन में जैसे काम करना चाहिए वैसे काम करता है। एक बात और जो बहुत आवश्यक है, वह है उचित वातावरण हो, उचित स्थान हो। हर कहीं ध्यान करने से वह लाभ नहीं प्राप्त होगा जितना लाभ किसी तपी हुई भूमि पर ध्यान करने से होता है।
अभी पिछले दिनों, साधकों की एक मंडली भारत के वैसे स्थानों पर होकर आयी जहां संत तपे, अरहंत तपे। तभी इतने लंबे अरसे के बाद भी साधक महसूस करता है कि कितनी प्रेरणादायी तरंगें वहां आज भी कायम हैं। तो भूमि का अपना बहुत बड़ा महत्व होता है। 

यह भूमि बहुत मंगलमयी है! तभी शुद्ध धरम का अभ्यास यहाँ आरंभ हुआ और आगे जा कर और अधिक लोग यहां तपेंगे। शून्यागार का अपना महत्व है। भगवान ने कहा, जब कोई व्यक्ति अकेला तपता है तो जैसे ब्रह्मा तप रहा हो! जहां दो साथ बैठ कर तपते हो तो जैसे दो देवता तप रहे हों। तीन बैठकर साथ तप रहे हो तो जैसे कोई तपस्वी मनुष्य तप रहे हैं। इससे अधिक एक साथ बैठकर तप रहे हों तो कोलाहल होता है। यानी उन गहराइयों तक तप नहीं होता। सामूहिक साधना का अपना महत्व होता है। शून्यागार का अलग महत्व है। शून्यागार माने ऐसा स्थान, ऐसा कमरा, ऐसी कुटी जिसमें अपने सिवाय कोई और नहीं। शून्य ही शून्य है। अकेला व्यक्ति एकांत ध्यान कर सके। बहुत आवश्यक है। बड़ा लाभ भी होता है। ब्रह्मदेश में जो ध्यान का केंद्र है, वहां जो शून्यागार हैं उनमें जो तपस्वी तपते हैं, उनकी तरंगें किस प्रकार धर्म से भरपूर हैं। साधक हो तो उसकी महत्ता को समझ सकता है। वहां बैठ करके ध्यान करे तो कितना अंतर। ठीक उसी प्रकार इगतपुरी में शून्यागार बने तो लोग उसमें ध्यान करते हैं तो कितना बड़ा अंतर मालूम होता है। शून्यागार का अपना महत्व, बहुत बड़ा महत्व है। 
सुञ्आगारं पविट्टस्स, सन्तचित्तस्स भिक्खुनो। 
अमानुसी रति होति, सम्मा धम्मं विपस्सतो॥
 “सम्मा धम्मं विपस्सतो” - सम्यक प्रकार से विपश्यना करता है। कहां करता है - " सुञ्आगारं पविट्ठस्स" - किसी शून्यागार में प्रवेश करके, शुद्ध धरम की विपश्यना करता हो तो शांतचित हो जाता है साधक। और "अमानुसी रति होति"- भीतर ऐसा आनंद, ऐसा रस प्राप्त होता है कि हम मनुष्यों को सामान्यतया अपने ऐन्द्रिय अनुभूति से होने वाले सुखों से उसका कोई मुकाबला नहीं, उसकी कोई तुलना नहीं। उससे बहुत परे है, बहुत परे है। दिव्य अनुभूति होती है, ब्राह्मी अनुभूति होती है और उससे भी परे निर्वाणिक अनुभूति होती है। क्युकि एकांत साधना कर रहा है। कहीं कोई व्यवधान नहीं है, बाधायें नहीं हैं।

तो बड़े कल्याण की बात होगी। इस तपोभूमि में भी ऐसे शून्यागार निर्मित होंगे। जहां साधक अपनी साधना द्वारा धर्म की गहरइयो तक जा सकेगा, अन्तेर्मन कि गहरइयो तक जो गाँठे बांध  रखी है उन्हें खोल सकेगा। किसी एक व्यक्ति का भी कल्याण हो जायगा और कल्याण तो जो-जो तपेगा सबका ही होने वाला है। किसी एक व्यक्ति का भी कल्याण हो जायगा तो इसके निर्माण के लिए जो श्रम, जो त्याग किसी ने भी किया वह सार्थक हो उठेगा। उससे बड़ा मूल्य और कुछ नहीं हो सकता। 

एक बार भगवान ने अपने किसी पूर्वजन्म की बात बताते हुए कहा कि जब वह बोधिसत्व थे. अभी बुद्ध नहीं बने थे, अनेक जन्मों तक बोधिसत्व का जीवन जीते-जीते, अपनी पारमिताओ को पूरा करते-करते ही वह अवस्था आती है जब कोई व्यक्ति बुद्ध बनता है। सम्यक संबुद्ध बनता है। तो दान की भी एक बहुत बड़ी पारमी होती है। 
बताते हैं कि वे किसी एक जीवन में बहुत बड़े देश के राजा थे। चित्त में दान की चेतना जागी तो जितना राजकोष था, जितना कुछ उनके पास था सब दान करना शुरू किया। सात वर्ष तक इतना दान दिया, हजारों लोगों को, लाखों लोगों को दान दिया। सात वर्ष तक लगातार दान का क्रम चलता ही रहा। अन्न का दान दिया। वस्त्र का दान दिया।  औषधि  का दान दिया। वाहन का दान दिया। निवास का दान दिया। लोगों की जो-जो सांसारिक आवश्यकताएं हो सकती हैं वे सारी पूरी हो जाय। किसी व्यक्ति को किसी सांसारिक बात की कमी न रह जाय। यों सात वर्ष तक खूब दान दिया। अब मुस्कराकर कहते हैं कि इतना बड़ा दान दिया, बहुत पुण्यशाली, पारमी बढ़ाने वाला लेकिन वह सारा का सारा दान एक ओर, और किसी श्रोतापन्न व्यक्ति को एक समय का भोजन दिया जाय, तो एक श्रोतापन्न व्यक्ति को एक समय के भोजन का दिया हुआ दान उससे कहीं अधिक पुण्यशाली होता है। पात्र कैसा है ? बीज कहां बोया गया अपने पुण्यकर्मों का। धरती उपजाऊ होगी तो फल और अधिक अच्छा आयेगा। वह श्रोतापन्न व्यक्ति साधना करते-करते शील, समाधी, समाधि प्रज्ञा में पुष्ट होते-होते अनार्य से आर्य बन गया। जिसने पहली बार निर्वाण का साक्षात्कार कर लिया, मुक्ति की चार सीढ़ियों में से पहली सीढ़ी तक पहुँच गया. पहला सोपान प्राप्त कर लिया। ऐसा व्यक्ति श्रोतापन्न हो गया। श्रोत में पड़ गया। 

दान का लाभ तो होता ही है पर किसको दान दे ?  तो कहा कि उस समय कोई श्रोतापन्न था ही नहीं पृथ्वी पर। क्योंकि विपश्यना नही थी। क्योंकी निर्वाण का साक्षात्कार करने का तरीका लोगों के पास नहीं था । तो जो थे उन्ही को दान दिया गया। लेकिन उनके मुकाबले एक श्रोतापन्न को केवल एक समय का भोजन दिया जाय तो वह भी उससे अधिक लाभदायक होता है। 

ऐसा क्यों होता है इसे समझे। किसी भी प्राणी को भोजन दे रहे है तो उसे हम एक दिन का जीवन और दे रहे हैं। उस भोजन के बल पर उसकी जीवनधारा आगे बढ़ेगी। किसको दे रहे हैं? एक कोई हिंसक पशु है, कोई शेर है. चीता है; दूसरी ओर एक गाय है। एक दिन का भोजन हमने दोनों को दिया। लेकिन गाय को दिया हुआ अधिक पुण्यशाली क्यों? सिंह एक दिन अधिक जी करके अन्य प्राणियों को कष्ट ही देगा। गाय एक दिन अधिक जी करके अन्य प्राणियों को लाभ ही देगी। इसलिए इन दोनों के मुकाबले गाय को दिया हुआ भोजन अधिक फलदायी है, अधिक कल्याणकारी है। एक ओर गाय है और उसके मुकाबले एक सामान्य मनुष्य है, उसे भोजन दिया गया तो उस सामान्य मनुष्य को दिया गया भोजन अधिक कल्याणकारी होगा। क्योंकि मनुष्य है। पशु के मुकाबले उसके पास ऐसी शक्ति है कि वह अंतर्मुखी हो करके, आत्ममुखी हो कर, सत्यमुखी होकर अपनी गांठे खोलना सीख जायेगा, मुक्त हो जायगा। वह काम पशु नहीं कर सकता। वह गाय जीवनभर जी कर के भी अपने आप को मुक्त नहीं कर सकती, उसके पास कुदरत ने वह शक्ति नहीं दी। इस मनुष्य को अगर हमने एक दिन और जिला दिया तो कौन जाने, उस एक दिन अधिक जीने में ही उसे शुद्ध धर्म का संपर्क हो जाये, ऐसी विधि मिल जाये, जिससे आत्ममुखी होकर अपनी गांठें खोल ले। इन दोनों के मुकाबले उस व्यक्ति को दिया हुआ दान, उस व्यक्ति को दिया हुआ भोजन अधिक कल्याणकारी है। 

मनुष्य में भी एक सामान्य व्यक्ति जिसको धरम का रास्ता नहीं मिला, सारे जीवन दुराचार का ही जीवन जीता है, उसके मुकाबले एक व्यक्ति जो सदाचार का जीवन जी रहा है, धरम के रास्ते पड़ गया। इन दोनों में से सदाचारी को दिया हुआ भोजन ज्यादा कल्याणकारी है। इसलिए कि उसका एक दिन भी अधिक जीना उसकी सन्मार्ग की ओर ले जाने में सहायता करेगा और सचमुच बढ़ते-बढ़ते मुक्त अवस्था तक पहुँच जायेगा। बड़ा लाभ हो जायगा उसका । 

सन्मार्ग के रास्ते पड़ा हुआ, धर्म के रास्ते पड़ा हुआ एक व्यक्ति है, लेकिन अभी तक उसको निर्वाण का साक्षात्कार नहीं हुआ। उसके मुकाबले एक व्यक्ति जिसको निर्वाण का साक्षात्कार हो गया, उसे एक दिन का भोजन देते हैं तो वह ज्यादा पुण्यशाली है। क्योंकि उस व्यक्ति को हमने यदि एक दिन का जीवन दिया तो एक दिन अधिक जी करके वह केवल अपना ही कल्याण नहीं कर रहा बल्कि हर सांस के साथ अब वह जो तरंगें पैदा करता है, हर क्षण जो तरंगों से भरती हैं। वह न जाने कितने लोगों के कल्याण का कारण बन जायेगा। 

इसीलिए कहा कि इतने लोगों को जो मैंने दान दिया उसके मुकाबले एक श्रोतापन्न को दिया गया भोजन दान कही अधिक कल्याणकारी होता है, कहीं अधिक पुण्यशाली होता है। 
अनेक श्रोतापन को भोजन दिया उसके मुकाबले अगर एक सक्दागामी को भोजन दे दिया, वह कही अधिक कल्याणकारी होगा, कही अधिक फलशाली होगा । अनेक सक्दागामी को भोजन दिया उसके मुकाबले एक अनागामी को भोजन दे दिया ।  वह कही अधिक कल्याणकारी हो गया! अनेक अनागामी को भोजन दान दिया, उसके मुकाबले एक अरहंत को भोजन दान दे दिया, वह उससे भी अधिक कल्याणकारी हो गया! अनेक अरहंतों को भोजन दिया और एक सम्यक संबुद्ध को भोजन दे दिया, वह कहीं अधिक कल्याणकारी हो गया। किसी सम्यक संबुद्ध को भोजन दे और तपने वाले संघ को भोजन दे तो सम्यक संबुद्ध को दिये हुए भोजन से भी ज्यादा कल्याणकारी हो गया !
 
और उसके बाद कहा कि कितने ही बड़े तपने वाले संघ को भोजन दे करके, कितना ही बड़ा पुण्य अर्जित क्यों न कर ले, उसके मुकाबले साधना करने वालो के लिय कोई सुविधा बना दी,  कोई शून्यागार बना दिया, जिसमें बैठ करके कोई व्यक्ति अपनी मुक्ति का रास्ता खोज सकता हो तो उन सारे पुण्यों से भी अधिक ऊंचा पुण्य है, अधिक कल्याणकारी है। 

अब तक जो काम हुए वे निरर्थक हुए ऐसा नहीं कहते, पर शून्यागार बनाने का जो भी श्रम कर रहे हैं वह अधिक कल्याणकारी है। एक-एक व्यक्ति अलग-थलग रहे। उसका निवास भी अलग हो और उसके ध्यान का जो स्थान ही वह भी अलग हो तो साधक की जो प्रगति होती है वह कई गुना अधिक होती है। बहुत अच्छी बात कि इस तपोभूमि में शून्यागार बनने का काम शुरू हुआ। इस धरती का सम्मान करते हैं। अपने यहां एक परंपरा है- भूमिपूजन होता है। शुद्ध धरम के रास्ते क्या भूमिपूजन होता है -भूमि का सम्मान इसी तरह किया जाता है कि तपते हैं उस भूमि पर बैठकर । तप करके जो शुद्ध तरंगें पैदा करेंगे, इससे बढ़कर कोई धरती सम्मानित नही हो सकती, पूजित नही हो सकती । तो इसीलिए यहाँ तपे, तप करके भूमि का सम्मान किया। अधिक से अधिक धरम की तरंगें इस भूमि पर स्थापित हों, इस वातावरण में स्थापित हों ताकि अधिक से अधिक लोगों का कल्याण हो, यही भूमिपूजन है। यही भूमि का सम्मान है। 

जो भी साधक अब तक यहाँ तपते रहे है, अपना मैल उतारते रहे हैं, जिसका थोड़ा भी मैल उतर जाता है मन में मंगल-मैत्री जागती ही है कि जैसे मेरा कल्याण हुआ, जैसी सुख-शांति मुझे मिली, थोड़ी-सी ही मिली, ऐसी सुख-शांति, अधिक से अधिक लोगों को मिले। अधिक से अधिक लोगों के करम-बंधन टूटें। अधिक से अधिक लोगों को मुक्ति का रास्ता मिले। ऐसा मंगलभाव मन में जागता है, कि मैं उसमें कैसे सहायक हो सकूं ! 
अनेक प्रकार से सहायक हो सकता है - जिसके पास जो शक्ति है. उस शक्ति के बल पर सहायक हो सकता है। शरीर की सेवा करके सहायक हो सकता है। वाणी द्वारा सहायक हो सकता है। किसी के पास धन है, धन द्वारा सहायक हो सकता है। पर उन सबसे बढ़कर एक बहुत बड़ी सहायता होती है, तपकर सहायक होता है।

पुराना साधक इस धरती पर जितना तपेगा उतना ही अनेक लोगों के मंगल का कारण बनेगा। गुरुदेव के जीवनकाल में देखते थे – कि अनेक लोग ऐसे जो निर्वाणीक अवस्था तक पहुचे हुये और उस अवस्था तक जो पहुँचता है वह जब जी चाहे, जितने समय के लिए जी चाहे, निवृणिक अवस्था की अनुभूति करता है। ऋण से मुक्त होना है तो कैसे हो सकते हो? और लोग अपनी ओर से शरीर-श्रम का दान दे करके, धन का दान दे करके, अन्य प्रकार से सहायता करके, अपने-अपने ऋण से मुक्त होने का प्रयत्न करेंगे। लेकिन इतने अच्छे तापस के लिए तो यही उचित है कि कम से कम समाह में एक बार यहां आ जाया करो और किसी शून्यागार में बैठ करके एक घंटे की निर्वाणक समाधि लेकर चले जाया करो। बस, हो गया! कितनी बड़ी सेवा हो गयी। सारा का सारा आश्रम उन धरम कि तरंगो से इतना अल्पवित हो उठेगा ! तो जो भी साधक जिस-जिस अवस्था तक पहुँचा है, जितना भी तपा है उतनी तरंगें पैदा करेगा ही।

शुन्यगार बना कर लोगों को उसमे जो तपने की सहूलियत दे रहे हैं, यह तो अपने आपमें बहुत पुण्य की बात है ही, पर उससे कही बड़े पुण्य कि बात यह होगी कि, हर साधक सप्ताह में एक बार यहां आकर के तपेंगे। यह अपने तप का दान है। अपने तप की तरंगों का दान है। वह इस धरती को खूब अधिक पकायेगा. खूब अधिक तपायेगा। जिससे कि जो भी व्यक्ति आये वह थोड़े ही श्रम से अधिक प्राप्त कर सके। अपने विकारों से युद्ध करने की मेहनत तो हर व्यक्ति को करनी पड़ेगी। लेकिन आसपास का वातावरण धर्म कि तरंगो से तरंगित है तो मेहनत आसान  हो जायगी। बाहर की तरंगें अगर दृषित हैं तो बाधायें अधिक आयेंगी। भीतर की तरंगों से यानी अपने विकारों से भी लड़ रहा है और बाहर कि तरंगे भी ऐसी है जो पाँव खीचने वाली है, तो काम नही करने देती। उससे बचाव हो जायगा। बहुत बड़ा बल मिलता है, बहुत बड़ी सहायता मिलती है।

साधकों को चाहिए कि अपने भीतर मंगल मैत्री जगायें। अपना कल्याण तो है ही। जब आकर तपेंगे तब अपना कल्याण तो है ही । लेकिन उस तपने से और न जाने कितनो का  कल्याण होगा। सदियों तक कल्याण होने वाला है। जहां धरम की तरंगे जगने लगी तो लोग अपने आप खीचते हुये चले आयेगे । इस स्थान पर धर्म अपने शुद्ध रूप में जितनी सदियों तक रहेगा, उतनी सदियों तक न जाने कितने लोग आयेगे, तपेंगे , अपना अपना कल्याण करेंगे। 

इस समय जो भी तप रहे हैं, भविष्य में आकर जो भी तपेंगे उन सब का मंगल हो ! उन सब का कल्याण हो !  मुक्ति हो, उन सब की स्वस्ति मुक्ति हो! 

कल्याण मित्र, स.ना.गोयंका.

यथाभूत दर्शन

🌷"यथाभूत दर्शन"🌷

यथार्थ में जीना वर्तमान में जीना है, इस क्षण में जीना है।

क्योंकि बीता हुआ क्षण यथार्थ नही वह तो समाप्त हो चूका है।

अब तो केवल उसकी याद ही रह सकती है, वह क्षण नही।

इसी तरह आने वाला क्षण अभी उपस्थित नही है, उसकी केवल कल्पना हो सकती है, कामना हो सकती है, उसका यथार्थ दर्शन नही हो सकता।

🍁वर्तमान में जीने का अर्थ है, इस क्षण में जो कुछ अनुभूत हो रहा है, उसी के प्रति जागरूक होकर जीना।

भूतकाल की सुखद या दुखद स्मृतिया अथवा भविष्य की दुखद आशंकाएं या सुखद आशाएँ हमे वर्तमान से दूर ले जातीं हैं और इस प्रकार सच्चे जीवन से विमुख रखती हैं।

🌻वर्तमान से विमुख यह थोथा निस्सार जीवन ही हमारे लिये विभिन्न क्लेशो का कारण बनता है। अशांति, असंतोष, अतृप्ति, आकुलता, व्यथा और पीड़ा को ही जन्म देता है।

जैसे ही हम इस क्षण का यथाभूत दर्शन करने लगते हैं, वैसे ही क्लेशो से स्वभाविक मुक्ति मिलने लगती है।

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🌹  🌹  🌹  बुद्ध वाणी  🌹  🌹  🌹

अतीतं  नान्वाग्मेय्य न पटिकंखे अनागतं।
यं अतीतं पहीणं  तं अप्पत्तंच अनागतं ।।
पच्चुपन्नंच यो धम्मं तत्थ तत्थ विपस्सति ।
असंहीर  असंकुप्पा  तं  विद्वा अनुब्रूहये ।।

                         मज्झिम निकाय 131

भूतकाल को यादकर व्यग्र - व्याकुल न हों , भविष्य की कपोल - कल्पना के प्रति कामनाग्रस्त न हों । भूतकाल तो बीत चूका ,  भविष्य अभी आया नहीं । 

इस क्षण जो - जो जहां - जहां उत्पन्न हुआ है , उस धर्म को , उस स्थिति को , समझदार आदमी वहां - वहां देखे । 

न राग - रंजित हो कर उससे चिपके और न ही द्वेष - दूषित हो कर उससे कुपित हो । इस प्रकार अनासक्त हो साक्षी स्वभाववाली विपश्यना का अभ्यास करे , उसका विकास करे ।  

🍃  🍃  🍃  मंगल हो 🍃  🍃  🍃

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🌷Words of Dhamma🌷

"Atītaṃ nānvāgameyya, nappaṭikaṅkhe anāgataṃ;
yadatītaṃ pahīnaṃ taṃ, appattañca anāgataṃ.
Paccuppannañca yo dhammaṃ, tattha tattha vipassati; asaṃhīraṃ asaṃkuppaṃ, taṃ vidvāmanubrūhaye.
Ajjeva kiccamātappaṃ ko jaññā maraṇaṃ suve;
Na hi no saṅgaraṃ tena mahāsenena maccunā.
Evaṃ vihāriṃ ātāpiṃ, ahorattamatanditaṃ;
taṃ ve bhaddekaratto’ti santo ācikkhate muni."

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One should not linger on the past nor yearn for what is yet to come. The past is left behind, the future out of reach. But in the present he observes with insight each phenomenon, immovable, unshakable. Let the wise practice this. 

Today, strive at the task. Tomorrow death may come—who knows? We can have no truce with death and his mighty horde. Thus practicing ardently, tireless by day and night; for such a person, even one night is auspicious, says the Tranquil Sage.

—— Bhaddekarattasuttaṃ, Majjhimanikāya, Uparipaṇṇāsapāḷi, Vibhaṅgavaggo

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🌹गुरूजी इस जीवन में हमारे साथ जो भी हो रहा है, क्या वह हमारे पूर्व कर्मो का ही परिणाम है?

उत्तर-- यह सच है तो भी हम इसके कारण अपने आप को निष्क्रिय न बना लें।यह सोचकर की हमारे पूर्व कर्म के अनुसार जो होने वाला है सो तो होगा ही, हम उसमे क्या कर सकते हैं? यह धर्म के, प्रकर्ति के नियमो के बिलकुल विरुद्ध चिंतन होगा।
यह सच है कि पुराने कर्म हमारे इस जीवन की धारा को सुखद या दुखद मोड़ देते हैं, परंतु हमारा वर्तमान कर्म बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि वर्तमान के हम मालिक हैं।और यह मिलकियत अगर हमने हासिल कर ली तो हम इस धारा को अगर दुखद है तो उसे मोड़ने में सफल हो सकते हैं।

🌻पहले तो उसका सामना करना सीखेंगे, समता स्थापित करेंगे, फिर देखेंगे की मोड़ने के काम में लग गए।दुःख सुख में बदलने लगा।लेकिन अगर यह मानकर बैठ गए की दुःख तो आने ही वाला है क्योंकि हमारे पुराने कर्म ही ऐसे हैं तो चिंतन गलत हो जाएगा।
और यदि जीवनधारा सुखमय है तो भी हम सत्कर्मो में लगे रहेंगे तो यह सुखद धारा और अधिक सुखद बनेगी।

🌷तो हर हालत में वर्तमान कुशल कर्म को अधिक से अधिक महत्त्व देने में ही समझदारी है।