गुरूजी- शरीर और चित्त की संयुक्त धारा पर इस क्षण जो भी घटना घटित हुई, अर्थात शरीर स्कंध पर जो भी संवेदना महसूस हुई, उसका भूतकाल की संवेदनाओ की यादों से कोई संबंध न हो, भविष्य में होने वाली संवेदनाओ की कामना- कल्पना से कोई संबंध न हो, केवल वर्तमान क्षण की संवेदना का अनित्य स्वभाव ही महसूस हो।
यही इस क्षण में जीना है, यही विपश्यना साधना है।संबंध हुआ की तुलना होगी, मूल्यांकन होगा, अच्छे- बुरे का लेबल लगेगा और प्रतिक्रियास्वरूप नए राग और नए द्वेष का प्रजनन होगा।यह सब ना हो और केवल इस क्षण के तथ्य को और उसके परिवर्तनशील स्वभाव को स्वीकार करके रह जाएँ तो उसके प्रति न राग जागेगा, न द्वेष।