Thursday, November 14, 2019

मंत्र जाप की तरंगो से भीतर गहराईओंतक के संस्कार क्यों नही निकलते?

Que : मंत्र जाप की तरंगो से भीतर गहराईओं
तक के संस्कार क्यों नही निकलते?
उत्तर--इसलिए नही निकलते क्योंकि भीतर
गहराईओं तक जो हमने पूर्व संस्कार इकट्ठे कर
रखें हैं उनकी अपनी अलग अलग तरंग होती है।
क्रोध जगाते हैं एक प्रकार की तरंग होती है,
भय जगाते हैं एक प्रकार की तरंग होती हैं।
अहंकार जगाते हैं, वासना जगाते हैं..... कोई भी
विकार जगाएं। विकार तो तरंगे ही हैं।और
विकार क्या है? तो जो तरंग है वहां तक पहुँच
करके हमें उससे छुटकारा पाना है।
बहुत क्रोधी आदमी- उसे क्रोध जगाते समय
किस प्रकार की अनुभूति होती है, किस तरह
की तरंगे प्रकट होती हैं, उसको देखना सीखता
है।देखते देखते उनको बढ़ावा नही देता।और
बढ़ावा नही देता तो कम होते होते समाप्त हो
जाती है।जब नया समाप्त होता है तो समता में
रहने के कारण पुराना उभर कर ऊपर आता है।
समता उसे भी समाप्त करती है।
इस प्रकार नए और पुराने दोनों की समाप्ति
होती है। यह काम विपश्यना करती है।
मन्त्र से चित्त निश्चित रूप से शांत होगा।
क्योंकि किसी भी शब्द को बार बार
दोहराएंगे तो मन शांत होता चला जाएगा।
ऊपरी ऊपरी हिस्से तक होगा।जड़ो तक तो
उसकी पहुँच नही होगी। क्योंकि वह एक
कृत्रिम तरंग पैदा कर रहा है।
और हमें अपने विकारो की जो स्वाभाविक तरंगे
हैं वहां पहुँच कर उनसे छुटकारा पाना है।
यह जो नई तरंग पैदा कर रहें हैं इसका अवश्य
एक बहुत अच्छा लेप लग जायेगा जो की हमारे
लिये कवच का सा काम करेगा।
लेकिन इससे क्या हुआ- जो हमारा पूर्व
संग्रह है उसका क्या हुआ?
वह तो वैसा का वैसा रह गया, और रह ही नहीं
गया उसका अपने स्वभाव की वजह से भीतर ही
भीतर संवर्धन होता रहा। छूटकारा कहाँ?
तो हम कोई कृत्रिम तरंग न बनने दें।
यदि हम ऊपर ऊपर कोई भी कृत्रिम लेप लगा
लेंगे तो भीतर तक जैसा है वैसा देख नही पाएंगे।
देख नही पाएंगे तो जड़ो तक नही पहुँच पाएंगे।
जड़ क्या है?
संवेदना ही है।
शरीर की संवेदना और मन की जड़ दोनों जुड़े हुए
हैं, और हम जड़ो तक पहुंचे ही नही, और ऊपर ऊपर
कोई बहुत मोटा मोटा कृत्रिम लेप लगा लिया
तो यही हुआ की-
भस्माछंनो च पावको-
भीतर अग्नि के अंगारे हैं और उसपर हमने मोटी-
मोटी राख लगा दी। हम बड़े खुश हो गए।हमारे
भीतर के अंगारे कायम तो रहे ही।उनकी तपन
तो कायम रही ही। हमको वहां तक पहुँच करके
उन अंगारो की आग- क्रोध की आग, द्वेष की
आग- सभी विकारो की आग बुझानी है।
वह उनकी तरंगो को देख कर ही बुझाई जा
सकेगी, अन्यथा नही।

~आचार्य सत्यनारायण गोयंका

How does one deal with illness using Vipassana

"How does one deal with illness using Vipassana?"

Goenkaji explained that illness is as much a part of human existence as birth, old age and death.

One must seek proper treatment for one's disease.

Vipassana may help in some diseases directly if the disease is psychosomatic.

Even when the illness is purely physical, Vipassana is a big help because one learns to face the illness bravely and to maintain equanimity in the face of unpleasant sensations.

There are many cases where a serious Vipassana meditator facing the pain of terminal cancer takes medicines that do not affect the alertness of the mind but refuses medicines that cause sleepiness.

The meditator knows that death is imminent and wants to stay awake and alert to face death with equanimity.

Vipassana makes one courageous.

[Vipassana newsletter. June '02]

http://www.vridhamma.org/Home

https://www.dhamma.org/en/courses/search

🌹गुरूजी मै समता नही रख पा रहा हूँ। बहुत पीड़ा है और उसको भूलना मुश्किल है?

उत्तर--प्रयास करते रहो। करते रहो। तुम हमेशा समता रखने में सफल नही होंगे, पर यदि सौ बार में एक बार भी समता रख पाये तो बड़ी बात हुई। और प्रयास से यह दो बार होगा, फिर तीन बार, फिर...... बढ़ता जायेगा। इस प्रकार सफलता बढ़ती जायेगी।

प्रयास करते रहो।

दर्द को भूलने का प्रयास नही करना- उसको समता से देखने का अभ्यास करना है। और निरंतरता से दर्द के स्थान पर ही ध्यान केंद्रित नही करना। शरीर के भिन्न भिन्न अंगो पर ध्यान करते रहो, और फिर जब पीड़ा के स्थान पर आओ, तो 1-2 मिनिट शांत चित्त से, समता भरे चित्त से उसका भी निरिक्षण कर लो। फिर आगे बढ़ जाओ। इससे लाभ होगा।

Addiction

🌷 Addiction 🌷

 1. How can we avoid addictions like smoking cigarettes?

Ans:  There are so many different types of addictions. 

When you practise Vipassana, you will understand that your addiction is not actually to that particular substance. It seems as if you are addicted to cigarettes, alcohol, drugs, paan (betel leaf). 

But actually, you are addicted to a particular sensation in the body, a bio-chemical flow caused by that particular substance. 

Similarly, when you are addicted to anger, passion etc, these are also related to body sensations. 

Your addiction is to the sensations. 

Through Vipassana you come out of that addiction, all addictions. It is so natural, so scientific. Just try, and you will experience how it works.

🌷 2. Why is drinking only one glass of wine a breakage of sila?

Ans: One glass becomes more. So why not come out it from the very beginning? Once one becomes addicted, it is so difficult to come out of the addiction. Why not refrain from anything that is addictive?

If someone who has come out of all kinds of intoxicants and is progressing in meditation takes even a very small quantity of alcohol, that person will immediately feel that it creates agitation and will feel unhappy. They can't take it. Ignorance causes impurities to develop and intoxicants are closely associated with ignorance. They drown all your understanding. Come out of them as quickly as possible.

🌷 3. The method you have just described is very practical, but can everybody benefit from it-even those who suffer from severe addictions, such as to drugs or alcohol?

Ans: When we talk of addiction, it is not merely to alcohol or to drugs, but also to addiction to impurities such as passion, to anger, to fear, to egotism. 

At the intellectual level you understand very well: "Anger is not good for me, it is dangerous, so harmful." Yet you are addicted to anger, keep generating anger because you have not been working at the depth of the behavior pattern of your mind. The anger starts because of a particular -chemical that has started flowing in your body, and with the interaction of mind and matter-one influencing the other-the anger continues to multiply.

By practicing Vipassana, you start observing the sensation which has arisen because of the flow of a particular chemical. You do not react to it. That means you do not generate anger at that particular moment. This one moment turns into a few moments, which turn into a few seconds, which turn into a few minutes, and you find that you are not as easily influenced by this flow as you were in the past. You have slowly started coming out of your anger.

People who have come to these courses go back home and apply this technique in their daily lives by their morning and evening meditation and by continuing to observe themselves throughout the day-how they react or how they maintain equanimity in different situations. The first thing they will try to do is to observe the sensations. Because of the particular situation, maybe a part of the mind has started reacting, but by observing the sensations their minds become equanimous. Then whatever action they take is an action; it is not a reaction. Action is always positive. It is only when we react that we generate negativity and become miserable. A few moments observing the sensation makes the mind equanimous, and then it can act. Life then is full of action instead of reaction.

http://www.vridhamma.org/Question-and-Answers

विपश्यना साधना परिचय 🌷 (Hindi -English)

🌷 विपश्यना साधना परिचय 🌷  (Hindi -English) 

विपश्यना (Vipassana) भारत की एक अत्यंत पुरातन ध्यान-विधि है। 

इसे आज से लगभग २५०० वर्ष पूर्व भगवान बुद्ध ने पुन: खोज निकाला था। 

विपश्यना का अभिप्राय है कि जो वस्तु सचमुच जैसी हो, उसे उसी प्रकार जान लेना। यह अंतर्मन की गहराइयों तक जाकर आत्म-निरीक्षण द्वारा आत्मशुद्धि की साधना है। अपने नैसर्गिक श्वास के निरीक्षण से आरंभ करके अपने ही शरीर और चित्तधारा पर पल-पल होने वाली परिवर्तनशील घटनाओं को तटस्थभाव से निरीक्षण करते हुए चित्त-विशोधन और सद्गुण-वर्धन का यह अभ्यास (Dhamma), साधक को किसी सांप्रदायिक आलंबन से बॅंधने नहीं देता। 

इसीलिए यह साधना सर्वग्राह्य है, बिना किसी भेदभाव के सबके लिए समानरूप से कल्याणकारिणी है।

1) विपश्यना क्या नहीं है:

विपश्यना अंधश्रद्धा पर आधारित कर्मकांड नहीं है।यह साधना बौद्धिक मनोरंजन अथवा दार्शनिक वाद-विवाद के लिए नहीं है।यह छुटी मनाने के लिए अथवा सामाजिक आदानप्रदान के लिए नहीं है।यह रोजमर्रा के जीवन के ताणतणाव से पलायन की साधना नहीं है।

2)  विपश्यना क्या है:

यह दुक्खमुक्ति की साधना है।

यह मनको निर्मल करने की ऐसी विधि है जिससे साधक जीवन के चढाव-उतारों का सामना शांतपूर्ण एवं संतुलित रहकर कर सकता है। यह जीवन जीने की कला है जिससे की साधक एक स्वस्थ समाज के निर्माण में मददगार होता है।

विपश्यना साधना का उच्च आध्यात्मिक लक्ष्य विकारों से संपूर्ण मुक्ति है। उसका उद्देश्य केवल शारीरिक व्याधियों का निर्मूलन नही है। लेकिन चित्तशुद्धि के कारण कई सायकोसोमॅटीक बीमारिया दूर होती है। 

वस्तुत: विपश्यना दुक्ख के तीन मूल कारणों को दूर करती है—राग, द्वेष एवं अविद्या। 

यदि कोई इसका अभ्यास करता रहे तो कदम-कदम आगे बढ़ता हुआ अपने मानस को विकारों से पूरी तरह मुक्त करके नितान्त विमुक्त अवस्था का साक्षात्कार कर सकता है।

चाहे विपश्यना बौद्ध परंपरा में सुरक्षित रही है, फिर भी इसमें कोई सांप्रदायिक तत्त्व नहीं है और किसी भी पृष्ठभूमि वाला व्यक्ति इसे अपना सकता है और इसका उपयोग कर सकता है। 

विपश्यना के शिविर ऐसे व्यक्ति के लिए खुले हैं, जो ईमानदारी के साथ इस विधि को सीखना चाहे। इसमें कुल, जाति, धर्म अथवा राष्ट्रीयता आड़े नहीं आती। 

हिन्दू, जैन, मुस्लिम, सिक्ख, बौद्ध, ईसाई, यहूदी तथा अन्य सम्प्रदाय वालों ने बड़ी सफलतापूर्वक विपश्यना का अभ्यास किया है। 

चूंकि रोग सार्वजनीन है, अत: इलाज भी सार्वजनीन ही होना चाहिए।

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🌷 Introduction to the Technique: 🌷

Vipassana is one of India's most ancient meditation techniques. Long lost to humanity, it was rediscovered by Gotama the Buddha more than 2500 years ago. 

The word Vipassana means seeing things as they really are. It is the process of self- purification by self-observation. 

One begins by observing the natural breath to concentrate the mind. 

With a sharpened awareness one proceeds to observe the changing nature of body and mind and experiences the universal truths of impermanence, suffering and egolessness. 

This truth-realization by direct experience is the process of purification. 

The entire path (Dhamma) is a universal remedy for universal problems and has nothing to do with any organized religion or sectarianism. 

For this reason, it can be freely practiced by everyone, at any time, in any place, without conflict due to race, community or religion, and will prove equally beneficial to one and all.

1) What Vipassana is not:

It is not a rite or ritual based on blind faith.
It is neither an intellectual nor a philosophical entertainment.
It is not a rest cure, a holiday, or an opportunity for socializing.
It is not an escape from the trials and tribulations of everyday life.

2) What Vipassana is:

It is a technique that will eradicate suffering.
It is a method of mental purification which allows one to face life's tensions and problems in a calm, balanced way.

It is an art of living that one can use to make positive contributions to society.

Vipassana meditation aims at the highest spiritual goals of total liberation and full enlightenment. Its purpose is never simply to cure physical disease. 

However, as a by-product of mental purification, many psychosomatic diseases are eradicated. In fact, Vipassana eliminates the three causes of all unhappiness: craving, aversion and ignorance. 

With continued practice, the meditation releases the tensions developed in everyday life, opening the knots tied by the old habit of reacting in an unbalanced way to pleasant and unpleasant situations.

Although Vipassana was developed as a technique by the Buddha, its practice is not limited to Buddhists. There is absolutely no question of conversion. 

The technique works on the simple basis that all human beings share the same problems and a technique which can eradicate these problems will have a universal application. 

People from many religious denominations have experienced the benefits of Vipassana meditation, and have found no conflict with their profession of faith.

https://www.dhamma.org/hi/about/qanda

*मेरा प्रथम विपश्यना शिविर*

*मेरा प्रथम विपश्यना शिविर*

_कल्याणमित्र श्री सत्यनारायण गोयन्का_

शिविर आरंभ हुआ। गुरुदेव ने आनापान की साधना दी
और मैं आते-जाते साँस के प्रति सजग रहने का अभ्यास करने
लगा। पूर्वाह्न की साधना अच्छी हुई परंतु 11 बजे भोजनशाला में
एकत्र हुए तब गुरुदेव ने एक-एक साधक को उसकी साधना के
बारे में पूछा। शिविर में केवल 5-7 साधक थे। उनमें से सबने
कहा कि उन्हें प्रकाश दिखा। मेरी बारी आयी। मुझे तो प्रकाश
दिखा नहीं था। नाक के नीचे खुजलाहट और झुनझुनाहट की
बहुत तीव्र अनुभूति हुई थी। वही बता दी। भोजनोपरांत हम सभी
ऊपर अपने-अपने निवास-कक्ष में चले आये।

मेरा मन उदास होने लगा। मैं उन दिनों बहुत अहंकारी
व्यक्ति था। इतनी कम उम्र में जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में
आशातीत सफलताएँ मिलती रहने के कारण मानस अत्यंत
अहंकेन्द्रित हो गया था। इस कारण जरा-सी भी असफलता
अथवा जरा-सी अनचाही घटना मेरे लिए असह्य हो उठती। दिल
बैठने लगता, उदासी में डूबने लगता। अब भी यही होने लगा।
ध्यान के शून्यागार में भी जाने को जी नहीं चाहे। मन पर बहुत
जोर लगा कर गया तो एक-दो साँस भी नहीं देख पाया। एक क्षण
भी मन नहीं टिका। शून्यागार से शीघ्र निकल कर अपने निवास-
कक्ष में वापिस आ गया। कुछ देर लेटा रहा, करवटें बदलता रहा,
परंतु बेचैनी बढ़ती ही रही। बार-बार मन में हीन भावना जागने
लगी। पराजय के भाव जागने लगे। सोचने लगा कि मैं किस
जंजाल में फँस गया। साधना तो अच्छी है। सभी साधकों को
लाभ मिल रहा है। परंतु मैं यह साधना करने के योग्य नहीं हूँ।
अन्य सभी साधक -साधिकाएँ भले मानुस हैं। कोई स्कूल का
अध्यापक है, कोई कॉलेज का प्रोफेसर है, कोई रिटायर्ड सरकारी
अफसर। इनका जीवन सरल और सात्विक है। लेकिन मैं तो
व्यापारी ठहरा। व्यापार में झूठ और छल-कपट चलता रहता है।
इन सबको दिव्य ज्योति के दर्शन हो गये, मैं ही अकेला पिछड़ा
रह गया। मेरे भाग्य में दिव्य ज्योति के दर्शन कहाँ ? ये सब योग्य
पात्र हैं। अध्यात्म की ऐसी साधना मेरे जैसे सांसारिक व्यक्ति के
लिए नहीं है।

इस निराशा भरे चिंतन से बहुत हतोत्साहित हो गया। मन
उदासी में इतना डूबने लगा कि शिविर छोड़ने का निर्णय कर
बैठा। जानता था कि शिविर के कड़े नियम हैं। मुझे जाने की
अनुमति नहीं मिलेगी परंतु गुरुदेव तो भोजन के बाद ऑफिस
चले गये हैं। वे शाम को छः बजे तक लौटेंगे। मैंने घर से कुछ
आवश्यक सामान मँगाया है उसे लेकर लगभग पाँच बजे मेरी
गाड़ी आयेगी। मैं उसमें वापिस चल दूँगा। सामान मैं ले जा सका
तो ठीक, अन्यथा दूसरे दिन ड्राईवर आकर ले जाएगा। सारा
सामान बाँध कर भाग निकलने की तैयारी कर बैठा।

परंतु मेरा भाग्य जागा। पुराना पुण्य उदय हुआ। मेरे निवास
कक्ष के सामने से एक महिला गुजरी। वह मेरी परिचित प्रोफेसर
डो म्या सैं थी। रंगून के विश्वविद्यालय में भूगोल विभाग की
प्रोफेसर थी और अध्यक्षा भी। उच्च कोटि की विदुषी थी। मुझे
शिविर में सम्मिलित हुआ देख कर बहुत प्रसन्न हुई थी। परंतु इस
समय मेरे बिगड़े हुए रंग-ढंग देख कर चकित हुई और पूछ बैठी
कि मैं क्यों उदास हूँ। मैंने उसे सच-सच बता दिया। गुरुदेव के
आने से पहले मैं घर वापिस चल दूँगा। यह साधना मेरे लायक
नहीं है या यों कहँ, मैं इस साधना के लायक नहीं हूँ।

उसने पूछा कि तुम्हारे मन में यह हीन भावना क्यों जागी?
मैंने कहा कि अन्य सबको दिव्य ज्योति के दर्शन हो गये, मुझे
नहीं हुए। अतः मुझे कोई सफलता मिलने वाली नहीं है। मैं
अपना समय यहाँ क्यों बरबाद करू। यह सुनकर वह हँसी। उसने
कहा, भोजन के पश्चात्‌ गुरुदेव तुम्हारी साधना की बहुत प्रशंसा
कर रहे थे। तुम्हें नासिका के नीचे संवेदनाओं की स्पष्ट
अनुभूतियाँ होने लगी हैं। पहले दिन बहुत कम लोगों को ऐसा
होता है। तुम भाग्यशाली हो। परंतु मैंने मन-ही-मन सोचा, इन
संवदेनओं में क्या पड़ा है। मुख्य बात तो दिव्य ज्योति की है।
हमारी परंपरा में दिव्य ज्योति का दर्शन कितना महत्वपूर्ण है।
उसने मुझे फिर समझाया कि गुरुजी ने तुम्हें संवेदनाओं को महत्व
देने के लिए कहा है। प्रकाश दिख जाय तो दिख जाय। यह भी

ध्यान के लिए एक निमित्त है, आलंबन है। परंतु इस समय हमारे
लिए प्रमुख निमित्त नासिका के इर्द-गिर्द होने वाली संवेदनाएँ हैं।
आगे चल कर ये ही सारे शरीर में फैलेगी और इसी से साधना
सफल होगी। तुम्हारी सफलता में कोई संदेह नहीं है। उसने
आग्रहपूर्वक कहा कि तुम एक रात और रुक जाओ। अगर जाना
ही है तो इसका निर्णय कल सुबह करना। जब ध्यान में बैठो तो
प्रकाश को बिल्कुल महत्व मत देना। तुम्हें नासिका के नीचे इतनी
तीव्र संवेदना मिलने लगी, बस साँस के साथ-साथ उसी पर सारा
ध्यान केन्द्रित रखो। यही साथ देगी, यही तुम्हारी प्रगति में
सहायक होगी। मैंने भी सोचा, अब जाना तो हो नहीं पायेगा।
अतः इसकी बात मान लेता हूँ। एक रात और रुकता हूँ।

शाम को छः बजे शूत्यागार में जा बैठा। साँस के साथ-
साथ नासिका के नीचे होने वाली संवेदना पर सारा ध्यान लगाने
की कोशिश करने लगा और यह निश्चय किया कि प्रकाश दिखे
या न दिखे, मुझे इसकी कोई चिंता नहीं। डो म्या सैं के कहे
अनुसार मैं संवेदना को ही महत्व दूँगा। मुझे याद आया, गुरुजी ने
भी यही कहा था कि साँस और संवेदना हमारे लिए प्रमुख है। मैं
दत्तचित्त होकर ध्यान में लग गया। मुझे यह देखकर आश्चर्य
हुआ कि कुछ मिनटों के भीतर ही इस ओर ज्योति जागी, उस
ओर ज्योति जागी। चारों ओर ज्योति ही ज्योति। मैंने मन को दृढ़
किया कि मुझे इस ज्योति से कुछ लेना-देना नहीं। मुझे शरीर की
संवेदना को ही महत्व देना है। नाक के आसपास जो संवेदना हो
रही है, यही मेरी साधना का आलंबन है। थोड़ी देर बाद देखा कि
दिव्य ज्योति ही नहीं, कानों में दिव्य नाद सुनाई देने लगे, अनहद
नाद सुनाई देने लगा। एक कान के पास मानो किसी चट्टान पर
बहुत बड़ा जल-प्रपात गिर रहा हो। दूसर के पास जैसे मधुर
घंटियाँ बज रही हों। यह दिव्य नाद भी मुझे आकर्षित नहीं कर
सका।

दिव्य ज्योति और अनहद नाद के बारे में मैंने बहुत पढ़ा था
उन्हें बहुत महत्व देता था। परंतु उस समय मैंने निश्चय किया कि
इन्हें कोई महत्व नहीं दूँगा। मुझे साधना पथ की यात्रा संवेदनाओं
के आधार पर पूरी करनी है। ऐसे मन को दृढ़ करके संवेदनाओं पर
ध्यान लगाये रखा। कुछ समय पश्चात्‌ देखा कि दिव्य ज्योति
और दिव्य शब्द के अतिरिक्त कुछ अन्य अतीन्द्रिय अनुभूतियाँ
भी होने लगी। मैं उनकी भी अपेक्षा करता रहा। संवेदना पर ही
ध्यान लगाये रहा। रात 9 बजे अपने शून्यागार से निकला तो मन
बड़ा प्रसन्न था। दोपहर के बाद जो निराशा छा गई थी, वह
विलीन हो गई। अब तो भागने का प्रश्न ही नहीं रहा। मैं डो म्या
सैं का अपार उपकार मानता हैँ। जिसने मुझे रोक कर मेरा
कल्याण किया। अगर मैं नासमझी से शिविर छोड़ कर भाग जाता
तो ऐसे अनमोल रत्न से सदा के लिए वंचित रह जाता। बहुत
आभार मानता हूँ कि उसने मुझे भगौड़ा बनने से रोका और मैं
दत्तचित्त होकर साधना में लग गया।

इसी कारण अत्यंत आशातीत प्रगति होती चली गयी। दो
दिन बाद विपश्यना मिली तो अभूतपूर्व अनुभव हुआ। पूरा शरीर
केवल परमाणुओं का पुंज और उन परमाणुओं के पुंज में भिन्न-
भिन्न प्रकार की हलन-चलन, भिन्न-भिन्न प्रकार की संवेदनाएँ।
जैसे मैं किसी ऐसे अजायबघर (कौतुकागार) में आ गया हैँ,
जिसे पहले कभी देखा नहीं था। भीतर की एक ऐसी दुनियाँ जो
अब तक नितांत अनजानी रही। शरीर में विभिन्न प्रकार की
अनुभूतियाँ सतत होती रहती है, यह कभी सोच भी नहीं सकता
था।

विपश्यना भोजन के पहले सुबह दी गई थी। गुरुदेव ने जब
चेकिंग की तो कहा, तुम्हें जो प्राप्त हुआ है, यह बहुत मूल्यवान
है। अब तुम्हें देखना है कि यह छूटे नहीं। उन्होंने किसी एक
सहायक को बुलाया और एक कंबल मंगवायी। मेरे शरीर और
चेहरे पर कंबल डालकर कर वह धर्म-सेवक मुझे शूत्यागार के
बाहर निकाल कर मेरे निवास-कक्ष तक ले गया ताकि मैं बाहर
के किसी आलंबन के संपर्क में आकर भीतर की उस वास्तविक
स्थिति को न खो दूं। मुझे अपने निवास-कक्ष में ही लेटे-लेटे
साधना करते रहने का कहा गया। यहीं कोई भोजन ले आएगा।
भोजन करते हुए भी मैं इन संवेदनाओं के प्रति जागरूक रहेँ।
इसकी निरंतरता टूटे नहीं, यह ध्यान रखूं। मैंने ऐसा ही किया।
उठते-बैठते, चलते-लेटते, खाते-पीते हर अवस्था में
अंतर्बोधिनी प्रज्ञा जाग्रत रहे। यों साधना में रत रहते हुए दिन-
पर-दिन बीतते चले गये। एक-से-एक अजीबोगरीब
अनुभूतियाँ होती चली गयीं। सारा मृण्मय शरीर चिन्मय हो उठा।
सर्वत्र तरंग ही तरंग। कहीं ठोसपने का नामोनिशान नहीं। संपूर्ण
मेरुदंड भी तरंग ही तरंग। कपाल के मानो सहस्र रंध्रो में तरंगें
फूटने लगीं। सिर के मध्य से एक फव्वारा-सा छूटने लगा। शिविर
समाप्त होते-होते यों लगा जैसे मणों बोझ उतर गया है। जैसे मैं
हवा में उड़ सकता हँ। मानो धरती का गुरुत्वाकर्षण समाप्त हो
गया है।

साधना के दिनों एक बार यह भ्रम अवश्य हुआ कि मैं
किसी कल्पना लोक में तो भ्रमण नहीं कर रहा ? यह कल्पना नहीं
है, सत्य है, इसे जाँचने के लिए गुरुदेव ने एक-दो उपाय बताये।
उन्हें आजमा कर जाना कि सचमुच न कोई कल्पना है, न
आत्म-सम्मोहन। यह भीतर की सच्चाई है। ऊपर-ऊपर अविद्या
की मोटी-मोटी खोल है जिसके रहते हम इसका साक्षात्कार नहीं
कर सकते।

भगवान बुद्ध की इस कल्याणी विपश्यना विद्या के सही
प्रयोग से यह ऊपरी खोल टूटी और भीतर एक नई दुनियां के
दर्शन हुए। ठीक वैसे ही जैसे अंडे में रहने वाला चूजा बाहर की
दुनिया के बारे में क्या जाने! जब अंडा फूटता है और वह बाहर
आता है तो नई दुनिया देखकर भौचक्का रह जाता है। भीतर
अंधेरे में रहते हुए कल्पना भी नहीं कर सकता कि बाहर की
सच्चाई कैसी है। बिल्कुल अलग, दोनों का कोई तालमेल नहीं।
ठीक यही होता है जब अविद्या की खोल टूटने से सदा बहिर्मुखी
रहने वाला व्यक्ति अपने भीतर की सच्चाई देखने लगता है, उसे
अनुभव करने लगता है तभी जान पाता है कि उन स्थूल सच्चाइयों
से यह बिल्कुल भिन्न है।
यह खोल क्या टूटी, मुझे यों लगा कि जैसे मेरा नया जन्म
हुआ, दूसरा जन्म हुआ। जैसे पक्षी का दूसरा जन्म तभी होता है
जबकि वह माँ के पेट से अंडे के रूप में जन्मने के बाद अंडा फोड़
कर बाहर निकलता है। ठीक इसी प्रकार मैं अपनी माँ के गर्भ से
यह अविद्या का खोल लिए हुए जन्मा और अब इस
कल्याणकारी विपश्यना विधि ने अविद्या के खोल को तोड़कर
मुझे दूसरा जन्म दिया। मैं सही माने में द्विज बना, द्विजन्मा बना।
यह दूसरा जन्म ही वास्तविक जन्म हुआ। मैं धन्य हुआ। मेरा
कल्याण हुआ, परम कल्याण हुआ।
भवतु सब्ब मङ्गलं !

_साभार-नेपाल विपश्यना केन्द्र_