*मेरा प्रथम विपश्यना शिविर*
_कल्याणमित्र श्री सत्यनारायण गोयन्का_
शिविर आरंभ हुआ। गुरुदेव ने आनापान की साधना दी
और मैं आते-जाते साँस के प्रति सजग रहने का अभ्यास करने
लगा। पूर्वाह्न की साधना अच्छी हुई परंतु 11 बजे भोजनशाला में
एकत्र हुए तब गुरुदेव ने एक-एक साधक को उसकी साधना के
बारे में पूछा। शिविर में केवल 5-7 साधक थे। उनमें से सबने
कहा कि उन्हें प्रकाश दिखा। मेरी बारी आयी। मुझे तो प्रकाश
दिखा नहीं था। नाक के नीचे खुजलाहट और झुनझुनाहट की
बहुत तीव्र अनुभूति हुई थी। वही बता दी। भोजनोपरांत हम सभी
ऊपर अपने-अपने निवास-कक्ष में चले आये।
मेरा मन उदास होने लगा। मैं उन दिनों बहुत अहंकारी
व्यक्ति था। इतनी कम उम्र में जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में
आशातीत सफलताएँ मिलती रहने के कारण मानस अत्यंत
अहंकेन्द्रित हो गया था। इस कारण जरा-सी भी असफलता
अथवा जरा-सी अनचाही घटना मेरे लिए असह्य हो उठती। दिल
बैठने लगता, उदासी में डूबने लगता। अब भी यही होने लगा।
ध्यान के शून्यागार में भी जाने को जी नहीं चाहे। मन पर बहुत
जोर लगा कर गया तो एक-दो साँस भी नहीं देख पाया। एक क्षण
भी मन नहीं टिका। शून्यागार से शीघ्र निकल कर अपने निवास-
कक्ष में वापिस आ गया। कुछ देर लेटा रहा, करवटें बदलता रहा,
परंतु बेचैनी बढ़ती ही रही। बार-बार मन में हीन भावना जागने
लगी। पराजय के भाव जागने लगे। सोचने लगा कि मैं किस
जंजाल में फँस गया। साधना तो अच्छी है। सभी साधकों को
लाभ मिल रहा है। परंतु मैं यह साधना करने के योग्य नहीं हूँ।
अन्य सभी साधक -साधिकाएँ भले मानुस हैं। कोई स्कूल का
अध्यापक है, कोई कॉलेज का प्रोफेसर है, कोई रिटायर्ड सरकारी
अफसर। इनका जीवन सरल और सात्विक है। लेकिन मैं तो
व्यापारी ठहरा। व्यापार में झूठ और छल-कपट चलता रहता है।
इन सबको दिव्य ज्योति के दर्शन हो गये, मैं ही अकेला पिछड़ा
रह गया। मेरे भाग्य में दिव्य ज्योति के दर्शन कहाँ ? ये सब योग्य
पात्र हैं। अध्यात्म की ऐसी साधना मेरे जैसे सांसारिक व्यक्ति के
लिए नहीं है।
इस निराशा भरे चिंतन से बहुत हतोत्साहित हो गया। मन
उदासी में इतना डूबने लगा कि शिविर छोड़ने का निर्णय कर
बैठा। जानता था कि शिविर के कड़े नियम हैं। मुझे जाने की
अनुमति नहीं मिलेगी परंतु गुरुदेव तो भोजन के बाद ऑफिस
चले गये हैं। वे शाम को छः बजे तक लौटेंगे। मैंने घर से कुछ
आवश्यक सामान मँगाया है उसे लेकर लगभग पाँच बजे मेरी
गाड़ी आयेगी। मैं उसमें वापिस चल दूँगा। सामान मैं ले जा सका
तो ठीक, अन्यथा दूसरे दिन ड्राईवर आकर ले जाएगा। सारा
सामान बाँध कर भाग निकलने की तैयारी कर बैठा।
परंतु मेरा भाग्य जागा। पुराना पुण्य उदय हुआ। मेरे निवास
कक्ष के सामने से एक महिला गुजरी। वह मेरी परिचित प्रोफेसर
डो म्या सैं थी। रंगून के विश्वविद्यालय में भूगोल विभाग की
प्रोफेसर थी और अध्यक्षा भी। उच्च कोटि की विदुषी थी। मुझे
शिविर में सम्मिलित हुआ देख कर बहुत प्रसन्न हुई थी। परंतु इस
समय मेरे बिगड़े हुए रंग-ढंग देख कर चकित हुई और पूछ बैठी
कि मैं क्यों उदास हूँ। मैंने उसे सच-सच बता दिया। गुरुदेव के
आने से पहले मैं घर वापिस चल दूँगा। यह साधना मेरे लायक
नहीं है या यों कहँ, मैं इस साधना के लायक नहीं हूँ।
उसने पूछा कि तुम्हारे मन में यह हीन भावना क्यों जागी?
मैंने कहा कि अन्य सबको दिव्य ज्योति के दर्शन हो गये, मुझे
नहीं हुए। अतः मुझे कोई सफलता मिलने वाली नहीं है। मैं
अपना समय यहाँ क्यों बरबाद करू। यह सुनकर वह हँसी। उसने
कहा, भोजन के पश्चात् गुरुदेव तुम्हारी साधना की बहुत प्रशंसा
कर रहे थे। तुम्हें नासिका के नीचे संवेदनाओं की स्पष्ट
अनुभूतियाँ होने लगी हैं। पहले दिन बहुत कम लोगों को ऐसा
होता है। तुम भाग्यशाली हो। परंतु मैंने मन-ही-मन सोचा, इन
संवदेनओं में क्या पड़ा है। मुख्य बात तो दिव्य ज्योति की है।
हमारी परंपरा में दिव्य ज्योति का दर्शन कितना महत्वपूर्ण है।
उसने मुझे फिर समझाया कि गुरुजी ने तुम्हें संवेदनाओं को महत्व
देने के लिए कहा है। प्रकाश दिख जाय तो दिख जाय। यह भी
ध्यान के लिए एक निमित्त है, आलंबन है। परंतु इस समय हमारे
लिए प्रमुख निमित्त नासिका के इर्द-गिर्द होने वाली संवेदनाएँ हैं।
आगे चल कर ये ही सारे शरीर में फैलेगी और इसी से साधना
सफल होगी। तुम्हारी सफलता में कोई संदेह नहीं है। उसने
आग्रहपूर्वक कहा कि तुम एक रात और रुक जाओ। अगर जाना
ही है तो इसका निर्णय कल सुबह करना। जब ध्यान में बैठो तो
प्रकाश को बिल्कुल महत्व मत देना। तुम्हें नासिका के नीचे इतनी
तीव्र संवेदना मिलने लगी, बस साँस के साथ-साथ उसी पर सारा
ध्यान केन्द्रित रखो। यही साथ देगी, यही तुम्हारी प्रगति में
सहायक होगी। मैंने भी सोचा, अब जाना तो हो नहीं पायेगा।
अतः इसकी बात मान लेता हूँ। एक रात और रुकता हूँ।
शाम को छः बजे शूत्यागार में जा बैठा। साँस के साथ-
साथ नासिका के नीचे होने वाली संवेदना पर सारा ध्यान लगाने
की कोशिश करने लगा और यह निश्चय किया कि प्रकाश दिखे
या न दिखे, मुझे इसकी कोई चिंता नहीं। डो म्या सैं के कहे
अनुसार मैं संवेदना को ही महत्व दूँगा। मुझे याद आया, गुरुजी ने
भी यही कहा था कि साँस और संवेदना हमारे लिए प्रमुख है। मैं
दत्तचित्त होकर ध्यान में लग गया। मुझे यह देखकर आश्चर्य
हुआ कि कुछ मिनटों के भीतर ही इस ओर ज्योति जागी, उस
ओर ज्योति जागी। चारों ओर ज्योति ही ज्योति। मैंने मन को दृढ़
किया कि मुझे इस ज्योति से कुछ लेना-देना नहीं। मुझे शरीर की
संवेदना को ही महत्व देना है। नाक के आसपास जो संवेदना हो
रही है, यही मेरी साधना का आलंबन है। थोड़ी देर बाद देखा कि
दिव्य ज्योति ही नहीं, कानों में दिव्य नाद सुनाई देने लगे, अनहद
नाद सुनाई देने लगा। एक कान के पास मानो किसी चट्टान पर
बहुत बड़ा जल-प्रपात गिर रहा हो। दूसर के पास जैसे मधुर
घंटियाँ बज रही हों। यह दिव्य नाद भी मुझे आकर्षित नहीं कर
सका।
दिव्य ज्योति और अनहद नाद के बारे में मैंने बहुत पढ़ा था
उन्हें बहुत महत्व देता था। परंतु उस समय मैंने निश्चय किया कि
इन्हें कोई महत्व नहीं दूँगा। मुझे साधना पथ की यात्रा संवेदनाओं
के आधार पर पूरी करनी है। ऐसे मन को दृढ़ करके संवेदनाओं पर
ध्यान लगाये रखा। कुछ समय पश्चात् देखा कि दिव्य ज्योति
और दिव्य शब्द के अतिरिक्त कुछ अन्य अतीन्द्रिय अनुभूतियाँ
भी होने लगी। मैं उनकी भी अपेक्षा करता रहा। संवेदना पर ही
ध्यान लगाये रहा। रात 9 बजे अपने शून्यागार से निकला तो मन
बड़ा प्रसन्न था। दोपहर के बाद जो निराशा छा गई थी, वह
विलीन हो गई। अब तो भागने का प्रश्न ही नहीं रहा। मैं डो म्या
सैं का अपार उपकार मानता हैँ। जिसने मुझे रोक कर मेरा
कल्याण किया। अगर मैं नासमझी से शिविर छोड़ कर भाग जाता
तो ऐसे अनमोल रत्न से सदा के लिए वंचित रह जाता। बहुत
आभार मानता हूँ कि उसने मुझे भगौड़ा बनने से रोका और मैं
दत्तचित्त होकर साधना में लग गया।
इसी कारण अत्यंत आशातीत प्रगति होती चली गयी। दो
दिन बाद विपश्यना मिली तो अभूतपूर्व अनुभव हुआ। पूरा शरीर
केवल परमाणुओं का पुंज और उन परमाणुओं के पुंज में भिन्न-
भिन्न प्रकार की हलन-चलन, भिन्न-भिन्न प्रकार की संवेदनाएँ।
जैसे मैं किसी ऐसे अजायबघर (कौतुकागार) में आ गया हैँ,
जिसे पहले कभी देखा नहीं था। भीतर की एक ऐसी दुनियाँ जो
अब तक नितांत अनजानी रही। शरीर में विभिन्न प्रकार की
अनुभूतियाँ सतत होती रहती है, यह कभी सोच भी नहीं सकता
था।
विपश्यना भोजन के पहले सुबह दी गई थी। गुरुदेव ने जब
चेकिंग की तो कहा, तुम्हें जो प्राप्त हुआ है, यह बहुत मूल्यवान
है। अब तुम्हें देखना है कि यह छूटे नहीं। उन्होंने किसी एक
सहायक को बुलाया और एक कंबल मंगवायी। मेरे शरीर और
चेहरे पर कंबल डालकर कर वह धर्म-सेवक मुझे शूत्यागार के
बाहर निकाल कर मेरे निवास-कक्ष तक ले गया ताकि मैं बाहर
के किसी आलंबन के संपर्क में आकर भीतर की उस वास्तविक
स्थिति को न खो दूं। मुझे अपने निवास-कक्ष में ही लेटे-लेटे
साधना करते रहने का कहा गया। यहीं कोई भोजन ले आएगा।
भोजन करते हुए भी मैं इन संवेदनाओं के प्रति जागरूक रहेँ।
इसकी निरंतरता टूटे नहीं, यह ध्यान रखूं। मैंने ऐसा ही किया।
उठते-बैठते, चलते-लेटते, खाते-पीते हर अवस्था में
अंतर्बोधिनी प्रज्ञा जाग्रत रहे। यों साधना में रत रहते हुए दिन-
पर-दिन बीतते चले गये। एक-से-एक अजीबोगरीब
अनुभूतियाँ होती चली गयीं। सारा मृण्मय शरीर चिन्मय हो उठा।
सर्वत्र तरंग ही तरंग। कहीं ठोसपने का नामोनिशान नहीं। संपूर्ण
मेरुदंड भी तरंग ही तरंग। कपाल के मानो सहस्र रंध्रो में तरंगें
फूटने लगीं। सिर के मध्य से एक फव्वारा-सा छूटने लगा। शिविर
समाप्त होते-होते यों लगा जैसे मणों बोझ उतर गया है। जैसे मैं
हवा में उड़ सकता हँ। मानो धरती का गुरुत्वाकर्षण समाप्त हो
गया है।
साधना के दिनों एक बार यह भ्रम अवश्य हुआ कि मैं
किसी कल्पना लोक में तो भ्रमण नहीं कर रहा ? यह कल्पना नहीं
है, सत्य है, इसे जाँचने के लिए गुरुदेव ने एक-दो उपाय बताये।
उन्हें आजमा कर जाना कि सचमुच न कोई कल्पना है, न
आत्म-सम्मोहन। यह भीतर की सच्चाई है। ऊपर-ऊपर अविद्या
की मोटी-मोटी खोल है जिसके रहते हम इसका साक्षात्कार नहीं
कर सकते।
भगवान बुद्ध की इस कल्याणी विपश्यना विद्या के सही
प्रयोग से यह ऊपरी खोल टूटी और भीतर एक नई दुनियां के
दर्शन हुए। ठीक वैसे ही जैसे अंडे में रहने वाला चूजा बाहर की
दुनिया के बारे में क्या जाने! जब अंडा फूटता है और वह बाहर
आता है तो नई दुनिया देखकर भौचक्का रह जाता है। भीतर
अंधेरे में रहते हुए कल्पना भी नहीं कर सकता कि बाहर की
सच्चाई कैसी है। बिल्कुल अलग, दोनों का कोई तालमेल नहीं।
ठीक यही होता है जब अविद्या की खोल टूटने से सदा बहिर्मुखी
रहने वाला व्यक्ति अपने भीतर की सच्चाई देखने लगता है, उसे
अनुभव करने लगता है तभी जान पाता है कि उन स्थूल सच्चाइयों
से यह बिल्कुल भिन्न है।
यह खोल क्या टूटी, मुझे यों लगा कि जैसे मेरा नया जन्म
हुआ, दूसरा जन्म हुआ। जैसे पक्षी का दूसरा जन्म तभी होता है
जबकि वह माँ के पेट से अंडे के रूप में जन्मने के बाद अंडा फोड़
कर बाहर निकलता है। ठीक इसी प्रकार मैं अपनी माँ के गर्भ से
यह अविद्या का खोल लिए हुए जन्मा और अब इस
कल्याणकारी विपश्यना विधि ने अविद्या के खोल को तोड़कर
मुझे दूसरा जन्म दिया। मैं सही माने में द्विज बना, द्विजन्मा बना।
यह दूसरा जन्म ही वास्तविक जन्म हुआ। मैं धन्य हुआ। मेरा
कल्याण हुआ, परम कल्याण हुआ।
भवतु सब्ब मङ्गलं !
_साभार-नेपाल विपश्यना केन्द्र_